कोशीतकि ब्राह्मणोपनिषद् के दूसरे अध्याय में इन्द्र ने प्राण विद्या का रहस्योद्घाटन करते हुए कहा है।
अथ खलु तस्मा देतमेवोक्थ मुपासीतं। यो वे प्राणः सा प्रज्ञा या वा प्रज्ञा स प्राणं स यदा प्रतिबुध्यते यथाडग्नेविस्फुलिंग। विप्रतिश्ठनते प्राणेभ्यों देवा देवेभ्यों लोका।
अर्थात् जब मन विचार करता है, तब अन्य सभी प्राण उसके सहयोगी होकर विचारमग्न हो जाते हैं, नेत्र किसी वस्तु को देखने लगते हैं तो अन्य प्राण उनका अनुसरण करते हैं। वाणी जब कुछ कहती है, तब अन्य प्राण उसके सहायक होते हैं। मुख्य प्राण के कार्य में अन्य प्राणों का पूर्ण सहयोग होता।
अन्य श्लोकों में बताया गया है कि मन और इन्द्रियों के साथ प्राण-शक्ति को मिला देने से वे अत्यन्त प्रभावशाली हो उठती है और अपनी सामर्थ्य से किसी को भी प्रभावित कर सकती है। ऐसे प्राणवान के सन्देश कही भी सुने और हृदयंगम किये जा सकते हैं। वह अपने प्राणों को किसी के प्राण में घुला कर उसके प्राणों को जागृत कर सकता है। ऐसे व्यक्ति की आज्ञा को पर्वत भी अमान्य नहीं करते। जो ऐसे प्राणवान से द्वेश करता है, वह नष्ट हो जाता है।
इसी उपनिषद् में यह भी वर्णन है कि सामर्थ्यवान् गुरु अपने शिष्यों को इसी प्राण-सम्पदा से सुसम्पन्न बन कर उन्हें उत्तराधिकार का श्रेय वैभव प्रदान करते हैं। यही अनुदान प्राप्त करने के लिए श्रद्धालु-शिष्य ऋषि आश्रमों में निवास और तप-साधन करते हुए अपनी पात्रता का विकास करते थे।
महर्षि धौम्य ने आरुणी को, गौतम ने जाबालि का, इन्द्र ने अर्जुन को, यम ने नचिकेता को, शुक्राचार्य ने कच को-इसी प्रकार उच्च स्थिति में पहुँचाया था। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द को और विवेकानन्द से सिस्टर निवेदिता को इसी प्रकार प्राण प्रत्यावर्तित किये थे।
प्राण-शक्ति जीवात्मा को-सत् सता को-चित् समता से परिपूर्ण बनाती है। इन दोनों का समन्वय हो जाने से वह स्थिति उत्पन्न होती है। जिसके कारण पदार्थों के उपभोग और प्राणियों के सहयोग का ‘आनन्द’ उठाया जा सकता है। सत् चित आनन्द की संभावनाएँ हमारे चारों ओर भरी पड़ी है। उपभोक्ता में ‘आत्मा’ की सत्ता मौजूद है। आनन्ददायक सामग्री की भी कमी नहीं। परिस्थितियों की अनुकूलता भी विद्यमान है। फिर भी अशक्तिजन्य दरिद्रता से प्राणी घिरा ही रहता है। प्राण शक्ति को न्यूनता के अतिरिक्त इस विपन्नता का और कोई कारण नहीं है। जीवधारी को ‘प्राणी’ कहा ही इसलिए जाता है कि उसकी जीवन प्रक्रिया प्राण शक्ति के सहारे ही संचालित होती है। शरीर में प्राण की कमी होते चलने पर ‘प्राणान्त’ की स्थिति ही सामने आ खड़ी होती है।
मनुष्य में जो चमक, चेतना, स्फूर्ति, तत्परता, तन्मयता, दृष्टिगोचर होती है। वह उसमें विद्यमान प्राण-शक्ति की ही प्रतिक्रिया है। यह तत्व जिसमें जितना कम होगा वह उतना ही निस्तेज, निर्जीव, निर्बल दिखाई देगा। उत्साह, साहस और सन्तुलन की उपलब्धता प्राण-शक्ति की मात्रा पर ही निर्भर रहती है। ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी और तपस्वी व्यक्तियों की प्रखरता उनमें विद्यमान प्राण का परिणाम प्रकट करती है। पराक्रमी मनुष्यों की शरीर रचना में-मस्तिष्कीय संगठन में-कोई विशेषता नहीं होती। इस दृष्टि से वे भी सामान्य लोगों की तरह ही होते हैं। उनकी विशेषता प्राण ऊर्जा के रूप में बढ़ी-चढ़ी होती है। संकल्प शक्ति में-इच्छा शक्ति में-दृढ़ता सुनिश्चितता का अंश ही व्यक्तित्व को प्रखर बनाता है। इसी के आधार पर प्रगति के साधनों को जुटाना और अवरोधों को हटाना सम्भव होता है। आँखों में चमक, वाणी में प्रभावोत्पादक, चेहरे पर ओजस्, व्यवहार में प्रखरता का परिचय प्राण-शक्ति ही देती है। प्रभावशाली व्यक्तित्वों में इसी तत्व का बाहुल्य रहता है।
वायु, ईथर, विद्युत, ताप, प्रकाश, जैसी भौतिक शक्त धाराएँ अनन्त आकाश में भरी पड़ी है। चेतन शक्तियों में प्रमुखता प्राण शक्ति की है। इसी को ब्रह्माण्डीय चेतना कहते हैं। यह तत्व निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है। विचार-शक्ति का प्रवाह इसी धारा में गतिशील रहता है। जीवधारी इसी महासमुद्र में जलचरों की तरह अपनी सत्ता बनाये रहते हैं। कल्पनाएँ और सम्वेदनाएँ इसी चेतना सागर की उपलब्धियाँ है।
मछली जल में रहती है उसी के उपादानों पर उसका निर्वाह चलता है। शरीर में जल में पाये जाने वाले पदार्थों की ही भरमार रहती है। व्यापक प्राण समुद्र में निवास करने वाले प्राणी के स्थूल ओर सूक्ष्म उपकरणों को गति ओर प्रगति देने वाला भी प्राणतत्त्व ही होता है जीवधारियों की गरिमा का मूल्यांकन इसी की न्यूनाधिक मात्रा के आधार पर आँका जाता है।
यों प्राणतत्त्व एक है, पर प्राणी के शरीर में उसकी क्रियाशीलता के आधार पर कई भागों में विभक्त की गयी है। शरीर के प्रमुख अवयव माँस-पेशियों से बने है। पर संगठन की भिन्नता के कारण उनके आकार-प्रकार में भिन्नता पाई जाती हैं इसी आधार पर उनका नामकरण एवं विवेचन भी पृथक्-पृथक् होता है। मानवी काया में प्राण-शक्ति को जो विभिन्न उत्तरदायित्व निबाहने पड़ते हैं। उन्हीं के आधार पर उनके नामकरण भी अलग है और गुण, धर्म की भिन्नता भी बताई जाती है। इस पृथकता के मूल में एकता विद्यमान है। प्राण अनेक नहीं हैं उसके विभिन्न प्रयोजनों में व्यवहार पद्धति ही पृथक् है। बिजली एक है, पर उनके व्यवहार विभिन्न यन्त्रों में भिन्न प्रकार के होते हैं। हीटर, कूलर, पंखा, प्रकाश, पिसाई आदि करते समय उसकी शक्ति एवं प्रकृति भिन्न लगती है उपयोग और प्रयोजन को देखते हुए भिन्नता अनुभव की जा सकती है। तो भी जानने वाले जानते हैं। कि यह सब एक ही विद्युत शक्ति के बहुमुखी क्रिया-कलाप है। प्राण-शक्ति के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। शास्त्रकारों ने उसे कई भागों में विभाजित किया है, कई नाम दिये है और कई तरह से व्याख्या की है। उसका औचित्य होते हुए भी इस भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं कि प्राणतत्त्व कितने ही प्रकार का है। और उन प्रकारों में भिन्नता एवं विसंगति है। इस प्राण विस्तार को भी ‘एकोडहं बहुस्याम’ का एक स्फुरण कहा जा सकता है।
मानव शरीर में प्राण को दस भागों में विभक्त माना गया है। इनमें 5 प्राण और 5 उप प्राण है। प्राणमय कोश इन्हीं 10 के सम्मिश्रण से बनता है। 5 मुख्य प्राण है- (1) अपान (2) समान (3) प्राण (4) उदान (5) व्यान। उपप्राणों को (1) देवतत्त (2) वृकल (3) कूर्म (4) नाग (5) धनंजय नाम दिया गया है।
शरीर क्षेत्र में इन प्राणों के क्या क्या कार्य है? इसका वर्णन आयुर्वेद शास्त्र में इस प्रकार किया गया है-
(1) अपान-अपनयति प्रकर्शेण मलं निस्सारयति अपकर्शाति च शक्तिम् इति अपानः।
अर्थात्-जो मलों को बाहर फेंकने की शक्ति में सम्पन्न है वह अपान है। मल-मूल-स्वदे कफ़, रज, वीर्य आदि का विसर्जन भ्रूण का प्रसव आदि बारह फेंकने वाली क्रियाएँ इसी अपान प्राण के बल से सम्पन्न होती है।
(2) समान-रसं समं नयति सभ्यक् प्रकारेण नयति इति समानः।
अर्थात्-जो रसों को ठीक तरह यथास्थान ले जाता ओर वितरित करता है वह समान है। पाचक रसों का उत्पादन और उनका स्तर उपयुक्त बनाये रहना इसी का काम है।
पतंजलि योग सूत्र में पाद 3 सूत्र 40 में कहा गया है-समान जयात् प्रज्वलनम्” अर्थात् समान द्वारा शरीर की ऊर्जा एवं सक्रियता ज्वलन्त रखी जाती है।
(3) प्राण-प्रकेर्शेण अनियति प्रकर्शेण वा बलं ददाति, आकर्शति च शन्ति स प्राणः।
अर्थात्-जो श्रृस, आहार आदि को खींचता है और शरीर में बल संचार करता है वह प्राण है। शब्दोच्चार में प्रायः इसी की प्रमुखता रहती है।
(4) उदान-उन्नयति यः उद्आनयति वा उदानः।
अर्थात्-जो शरीर को उठाये रहे, कड़क रखे, गिरने न दे-वह उदान है। ऊर्ध्वगमन की अनेकों प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष क्रियाएँ इसी के द्वारा सम्पन्न होती है।
(5) व्यानः-व्याप्नोति शरीरं यः स व्यानः।
अर्थात्-जो सम्पूर्ण शरीर में संव्याप्त है-वह व्यान है। रक्त-संचार श्वास-प्रश्वास ज्ञान-तन्तु आदि माध्यमों से यह सारे शरीर पर नियन्त्रण रखता है। अंतर्मन की स्वसंचालित शारीरिक गतिविधियाँ इसी के द्वारा सम्पन्न होती है।
उपप्राणों को शरीर क्षेत्र में पाँच भागों में बाँटकर अपने अपने क्षेत्र पर अधिकार रखने एवं उत्तरदायित्व संभालने वाला कहा गया है। (1) देवदत्त को मुख मंडल तथा उसके साथ जुड़े जुए नेत्र, कर्ण, जिव्हा, नासिका आदि का प्रहरी कहा गया है। (2) वृकल को कण्ठ का अधिकारी कहा गया है। गायन, संभाषण, आदि क्रियाएँ उसी से होती है। (3) कूर्श-उदर क्षेत्र के अवयवों की साज संभाल रखता है। (4) नाग-जननेन्द्रियों का अधिकारी माना गया है। कुण्डलिनी शक्ति, कामवासना, प्रजनन, आदि पर इसी का नियंत्रण है। (5) धनंजय का कार्य-क्षेत्र जंघाओं से लेकर एड़ी तक है। गतिशीलता, स्फूर्ति, अग्रगमन का उत्साह इसी की समुन्नत स्थिति का परिणाम होता है।
प्राण-शक्ति का यथास्थान सन्तुलन बना रहे तो जीवन सत्ता के सभी अंग-प्रत्यंग ठीक काम करेंगे। शरीर स्वस्थ रहेगा, मन प्रसन्न रहेगा ओर अन्तः करण में सद्भाव सन्तोश झलकेगा। किन्तु यदि इस क्षेत्र में विसंगति विकृति उत्पन्न होने लगे तो उसकी प्रतिक्रिया आधि-व्याधियों के रूप में- विपत्तियों, विभीषिकाओं के रूप में सामने खड़ी दिखाई देगी। रक्त दूषित हो जाने पर अनेकों आकार प्रकार के चर्म रोग, फोड़े-फुंसी दर्द, सूजन आदि के विग्रह उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार प्राणतत्त्व में असन्तुलन उत्पन्न होने पर शारीरिक अवयवों की क्रियाशीलता लड़खड़ाती है। कई प्रकार की व्यथा, बीमारियाँ उपजती है। मनःक्षेत्र में उत्पन्न हुआ प्राण विग्रह-असन्तुलनों आवेगों, और उन्मादों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। भावना क्षेत्र में विकृत हुई प्राण सत्ता मनुष्य को नर-कीटाणु के-नर पिशाचों के घिनौने गर्त में गिरा देती है। पतन के अनेकों आधार प्राणतत्त्व की विकृति से सम्बन्धित होते हैं। उनके सुधार के लिए सामान्य उपचार कारगर नहीं होते। क्योंकि उनका प्रभाव उथला होता है। जबकि समस्या की जड़ें बहुत गहरी-प्राण चेतना में घुसी होती है। अनुभूत ओर परीक्षित उपचार भी जब निष्फल सिद्ध हो रहे हों तो समझना चाहिए कि चेतना की गहरी परतों में विक्षेप घुस गया है। चमड़ी में काँटा चुभा हो तो उसे नाखूनों की पकड़ से दबाकर बाहर निकाला जा सकता है, किन्तु यदि बन्दूक की गोली आँतों में गहरी घुस गई हो तो उसके लिए शल्य-क्रिया का आश्रय लिए बिना और कोई चारा नहीं।
प्राणायाम साधारणतया श्वास-प्रश्वास का एक व्यायाम प्रतीत होता है स्वास्थ्य संवर्द्धन के क्षेत्र में उसे फेफड़ों की कसरत’ के रूप में लिया जात है। आरोग्य शास्त्री उसका लाभ उसी सीमा में बताते हैं। श्वास प्रणाली की गड़बड़ी अथवा फेफड़ों की दुर्बलता, रुग्णता का उपचार करने के लिए कई प्रकार को श्वास-प्रश्वास कसरतें प्रचलित है। यह सभी प्रयोग अपनाये जाते योग्य और सराहनीय है किन्तु उसे बाल कक्षा मात्र ही माना जाना चाहिए। प्राणायाम का प्रयोजन तो निखिल ब्रह्माण्ड में से प्राणतत्त्व की अभीष्ट मात्रा को आकर्षित करने की तथा उस उपलब्धि का अभीष्ट संस्थानों में पहुँचाने की विशिष्ट कला के रूप में ही समझा जाना चाहिए। साँस को प्राण नहीं कह सकते हैं। साँस के साथ प्राण घुला होना-साँस के सहारे प्राणतत्त्व को आकर्षित कर सकना एक बात है और मात्र श्वास-प्रश्वास को आकर्षित कर सकना एक बात हैं और मात्र श्वास-प्रश्वास क्रिया करना सर्वथा दूसरी। प्राणायाम में प्रबल संकल्प-शक्ति क्रिया करना सर्वथा दूसरी। प्राणायाम में प्रबल संकल्प-शक्ति का समावेश करना पड़ता है। उसी के चुम्बकत्व से व्यापक प्राणतत्त्व का आकाश में खींच सकने में सफलता मिलती है। फिर उस उपलब्धि को अभीष्ट स्थान पर भेज सकना ओर मनोवाँछित परिणाम प्राप्त करना भी तो प्रबल संकल्प-बल से ही सम्भव है। श्वसन क्रिया के साथ-साथ प्रचण्ड मनोबल का समावेश करने से ही प्राणायाम क्रिया होती है। उसी समन्वय से वे परिणाम मिलते हैं जिनका प्राण-विद्या के अंतर्गत वर्णन किया गया है।