अनवरत श्रम- एक तपश्चर्या

October 1968

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इस संसार को कर्म-भूमि बतलाया गया है और मनुष्य जीवन को कर्म-योनि। इसका तात्पर्य यही है कि संसार भोग-विलास का स्थान नहीं है और न विषय-वासनाओं के लिये मानव-जन्म दिया गया है। इस मनुष्य जीवन को इस भूमि पर इसीलिये अवतरित किया गया है कि वह संसार में कर्म-योग-पूर्वक रहे। पूरा जीवन कर्मों को समर्पित कर दे। जो लोग इसके विपरीत आचरण करते हैं, वे ईश्वरीय उद्देश्य का हनन करते हैं। यह एक अपराध है, पाप है, जो किसी प्रकार अपेक्षित अथवा शोभनीय नहीं है।

यों तो संसार में प्रायः सभी मनुष्य कुछ न कुछ काम करते रहते हैं। क्योंकि बिना काम किये गुजारा ही नहीं हो सकता। लोगों को भोजन-वस्त्र और निवास आवास की व्यवस्था के लिये काम करना ही पड़ता है। यह एक सामान्य प्रक्रिया है। कर्म-योग से इसका अधिक संबंध नहीं है। इन सामान्य कर्मियों के अतिरिक्त कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो विद्या-बुद्धि और ऐश्वर्य बुद्धि के लिये भी प्रयत्न करते हैं। यद्यपि उनकी यह क्रिया कुछ-कुछ कर्म-योग की ओर उन्मुख होती है तथापि कर्म-योग नहीं होती।

कर्म-योग वास्तव में काम करने का एक विशिष्ट प्रकार होता है। वह प्रकार जिस काम में भी समन्वित कर दिया जायेगा, वही काम कर्म-योग की श्रेणी में आ जायेगा, फिर चाहे वह मात्र आजीविका संबंधी काम ही क्यों न हो। वह इस प्रकार है, किसी भी काम को निष्ठा तथा श्रद्धापूर्वक करना। उसे जीवन का पवित्र कर्त्तव्य समझकर करना चाहिये। इस प्रकार कर्म-योग के दृष्टिकोण से किया हुआ, प्रत्येक काम मनुष्य की उन्नति का हेतु बनता है। जिस कार्य द्वारा मनुष्य उन्नति की ओर प्रगति नहीं करता वह काम देखने में कितना ही बड़ा और विस्तृत क्यों न हो कर्म-योग की कोटि में नहीं आता। उन्नति करना मानव-जीवन का लक्ष्य और उसकी पूर्ति कर्म-योग का प्रमाण है।

प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति को जीवन को अनुदिन उन्नति की ओर बढ़ाते ही रहना चाहिये। उन्नति और प्रगति से रहित जीवन मानव-जीवन नहीं है। केवल मानवाकार में जीवन का प्रवाहित होते रहना मानवता नहीं है। मानवता का लक्षण हे प्रतिदिन उन्नति की ओर बढ़ते जाना। संसार में उन्नति और प्रगति करके लोग जीव संज्ञा से मानव, महामानव, महापुरुष, देवपुरुष और अति मानव तक बनते हैं। लोग उन्हें भगवान मानकर पूजते हैं। समाज उन्हें प्रतिष्ठा देकर सर आँखों चढ़ाता है। ऐसे ही मानव वास्तव में मानव कहलाने योग्य होते हैं। इन्हीं से संसार की शोभा और समाज की मान्यता होती है और बढ़ती है।

मनुष्य-जीवन पाकर आखिर उन्नति क्यों न की जाये, उससे विमुख क्यों रहा जाय? परमात्मा ने जब एक-से-एक बढ़कर साधन, अवसर और योग्यताओं की व्यवस्था मनुष्य के लिये कर दी है, तब उनका उपयोग कर उन्नति की दिशा में क्यों न बढ़ा जाये? इसी संसार में, जिसमें हम सब रह रहे हैं, अनेकों लोग तेजी से उन्नति की ओर बढ़ रहे हैं, शिखरों पर पहुँच रहे हैं, आदर और सम्मान संचय कर रहे हैं तो और दूसरे लोग भी उस सम्मान और सुख के लिये क्यों प्रयत्न न करें? परमात्मा ने सबको समान रूप से चेतना और क्षमतायें दे रक्खी हैं। तब इस कर्म-भूमि में कर्मों के आधार पर किसी से पीछे क्यों रहा जाय? यह बात किसी प्रकार समझ में नहीं आती।

संसार में ऐश्वर्य और विभूतियों की उपस्थिति जब इसीलिये है कि मनुष्य उनको प्राप्त करे तब दीन-हीन अवस्था में पड़े रहने का कोई प्रयोजन समझ में नहीं आता। जब कोई एक ऐश्वर्यवान, वैभववान और उन्नतिशील बन सकता है, तब दूसरे वैसे क्यों नहीं बन सकते? यदि सभी मनुष्य उन्नति और प्रगति की महत्ता और आवश्यकता समझ पाते और उस ओर बढ़ने का पुण्य प्रयास करते तो क्या हमारी यह धरती, हमारा यह संसार स्वर्ग नहीं बन जाये? मनुष्य तन और मन से देवताओं की तरह समुन्नत होने लगे तो इस मृत्युलोक को देवलोक बनते क्या देर लग सकती है?

मनुष्य में यह सामर्थ्य है कि यदि वह चाहे और प्रयत्न करे तो देवता की कोटि में जा सकता है किन्तु यदि देवता अपनी भोग-योनि का त्याग कर मनुष्य की कर्मयोनि में आना चाहें तो वे वैसा नहीं कर सकते। मनुष्य को अपनी इस विशेषता को सत्य तथा सार्थक करना ही चाहिये। उसे नित्य प्रति उन्नति और प्रगति का प्रयत्न करते ही रहना चाहिये। यही उसकी शोभा है और यही अधिकार भी। उन्नति करते जाना ही कर्म-योग है और जीवन लक्ष्य भी।

मानव-जीवन के विकास की सम्भावनायें असीमित हैं। मनुष्य जिस सीमा तक चाहे विकास करता जा सकता है। पूर्वकालीन ऋषि-मुनियों ने तो अपना विकास यहाँ तक कर लिया था कि त्रिकालदर्शी तक हो गये थे। अतीत में क्या हो चुका है, वर्तमान में कहाँ, क्या हो रहा है और भविष्य में कहाँ, क्या होने वाला है, इसका ज्ञान वे एक स्थान पर बैठे-बैठे प्राप्त कर लेते थे। उन्होंने जीवन और मृत्यु दोनों को जीतकर अपने वश में कर लिया था। वे जब तब चाहते थे, जीवित रह सकते थे और जब चाहते थे, शरीर छोड़ देते थे। उन्होंने जीवन-मृत्यु के साथ संपूर्ण काल को ही जीत लिया था। यह बात सही है कि सर्व-सामान्य सहसा ऋषि-मुनि नहीं हो सकते तथापि इसमें सन्देह नहीं कि जीवन-प्रति-जीवन-थोड़ा विकास करते रहने पर कोई भी मनुष्य किसी-न-किसी जीवन में आकर ऋषि-मुनि की कोटि में पहुँच सकता है। आज जो मनुष्य अपने आस-पास की बात भी नहीं जान पाता वह जब त्रिकालदर्शी हो जायेगा, इसलिये इस मानव-जीवन का उपयोग उन्नति और विकास करने में ही करते रहना चाहिये।

मानव-जीवन के विकास की सीमा केवल ऋषि-मुनियों की कोटि तक जाकर ही समाप्त नहीं हो जाती। वह वहाँ से बढ़कर और भी आगे जाती है। वह कोटि है मोक्ष। अर्थात् परमात्मा को पाना और उसमें मिल जाना। इस विशाल सम्भावना से भरे मानव-जीवन को संसार के मिथ्या भोग-विलास और विषय-वासनाओं अथवा निरर्थक की अस्त-व्यस्तता में डालकर नष्टकर डालना जरा भी बुद्धिमानी नहीं है। मनुष्य जीव से परमात्मा के पद तक जा सकता है। उसे जाना भी चाहिये। आज मानव-जीवन जो किन्हीं भी कारणों से मिल गया है, दुबारा मिलेगा या नहीं यह संदिग्ध है। हाँ, दुबारा मानव-जीवन मिलने की आशा उसी दशा में की जा सकती हैं, जब मनुष्य अपना समुचित कर्त्तव्य करता हुआ, निरन्तर उन्नति की ओर बढ़ता जाये। दिन-प्रतिदिन अपने विकास में तत्पर रहे।

उन्नति करना मानव-जीवन का उद्देश्य है और उसका अमोघ उपाय है पुरुषार्थ। पुरुषार्थ द्वारा संसार का कोई भी उद्देश्य पूरा किया जा सकता है, चाहे वह कितना ही कठिन और दुर्लभ क्यों न हो? धार्मिक शब्दावली में जिस साधना को तपश्चर्या कहा जाता है, वह वास्तव में पुरुषार्थ का ही पर्यायवाची शब्द है। भौतिक क्षेत्र में कर्म-योग-पूर्वक किया हुआ पुरुषार्थ निश्चित रूप से तपश्चर्या ही होती है। तपश्चर्या द्वारा, ऐसी कोई भी सिद्धि नहीं है जो प्राप्त नहीं की जा सकती।

पुरुषार्थ एक साधना है, तपस्या है। किन्तु यह सफल तभी होती है, जब विधिपूर्वक की जाय। वे पुरुषार्थ सफल नहीं हो पाते, तो निर्लक्ष्य, अव्यवस्थित, अनियमित और अस्त-व्यस्त ढंग से किये जाते हैं। अव्यवस्थित पुरुषार्थ में उत्पादन क्षमता नहीं होती। यदि कोई व्यक्ति किसी काम को बिना किसी काम अथवा व्यवस्था के करने लगता है तो उस काम में शक्ति की मात्रा तो बहुत लग जाती है किन्तु फल नगण्य ही रहता है। पुरुषार्थ वास्तव में उसी श्रम को कहा जा सकता है, जो किसी काम को करने में क्रमपूर्वक अखण्ड रूप से अपेक्षित समय तक लगाया जाये। बहुत से लोग कभी तो किसी काम में बहुत अधिक श्रम और समय लगाते हैं और कभी बहुत ही थोड़ा। किसी एक काम को जो एक निश्चित समय में पूरा किया जा सकता है, टुकड़े-टुकड़े करके करना परिश्रम नहीं है। थोड़ा काम अभी कर लिया, और थोड़ा फिर के लिये छोड़ दिया, फिर उसमें से भी एक हिस्सा कर लिया और बाकी कल पर टाल दिया। इस प्रकार से खण्ड-खण्ड करके किया हुआ काम परिश्रम की सीमा में नहीं आता। परिश्रम वास्तव में वही होता है, जो व्यवस्थित रूप से किसी काम को अपेक्षित समय तक पूरा करने में अविराम गति से किया जाये।

इस प्रकार खण्ड-खण्ड करके किये हुये परिश्रम से कोई काम तो कृतकार्य नहीं ही होता, मनुष्य की शक्तियों का भी बड़ा ह्रास होता है। किसी एक काम को खण्ड-खण्ड करके करना मानसिक न्यूनता का द्योतक है। निश्चय ही ऐसे अस्त-व्यस्त कार्यकर्त्ताओं को काम करने में रुचि नहीं होती। उनका मन न तो काम में रमता है और न रस लेता है। काम उनके लिये नीरस भार जैसा होता है। वे मन से काम करने वाले लोग काम का नाम सुनते ही काँप जाते हैं। यदि उनके समान मजबूरी न हो तो शायद काम के नाम पर वे तिनका टालना भी पसन्द न करें। काम का नाम जिनमें उत्साह, प्रसन्नता और उत्सुकता पैदा नहीं करता, वे संसार में किसी प्रकार की उन्नति नहीं कर सकते।

जीवन में यदि उन्नति और विकास करना है तो मन को काम में रस लेने का अभ्यस्त बनाना होगा। आलसी, प्रमादी और निकम्मा मन परिश्रम के लिये वश में कठिनता से भले ही आये, किन्तु प्रयत्न करने पर वश में आ अवश्य जाता है। मन का स्वभाव होता है कि वह परिश्रम एवं पुरुषार्थ के संबंध में एक सीमा तक विद्रोह अवश्य करता है किन्तु प्रयत्न करने से वश में आ अवश्य जाता है। अभ्यास एक बड़ी साधना है। जब रगड़ करते रहने पर चन्दन जैसे नीरस और शीतल काष्ट में आग उत्पन्न हो जाती है, बार-बार रस्सी को रगड़ लगने से कुएँ पर पड़े पत्थर पर रेखायें बन जाती हैं और पानी के निरन्तर प्रवाह से जब पहाड़ कट जाते हैं, तब कोई कारण नहीं कि अभ्यास करने से मन काम में रस लेने न लगे।

इसके अतिरिक्त काम में रस पैदा करने का एक तरीका यह भी है कि हर काम व्यवस्थित रूप से नियमपूर्वक किया जाये। उसे बेगार समझकर कभी न टाला जाये। पूरी दक्षता, योग्यता और शक्ति से किया जाय। योग का अर्थ है सम्मिलित अर्थात् मन को तन्मय कर देना। जो काम मन की पूरी तन्मयता के साथ किया जाता है, वह कर्म-योग की कोटि का होता है। इस प्रकार योगपूर्वक किये जाने वाले काम में कर्त्ता को पूरा आनन्द आता है। उसकी कठिनाइयाँ आपसे-आप हल होती जाती हैं। और यदि एक बार कोई बड़ी कठिनाई भी आ जाती है तो भी कर्त्ता का मन उससे घबराता नहीं। उसका हृदय अपने काम की पूर्ति में लगा होने से उसे उसका अनुभव ही नहीं होता। कर्म-योगी को अपनी कर्त संबंधी कठिनाइयों तक में भी आनन्द मिलने लगता है। वह अधिकारपूर्वक अपने काम की कठिनाइयों के विषय में सोचता और उनका हल निकालता है।

रुचि और पूरी तन्मयता से करने पर काम का भार मन, मस्तिष्क और शरीर पर नहीं पड़ता। उसकी थकान तभी अनुभव होती है, जब काम पूरा हो जाता है। उस अवस्था में अनुभव होने वाली थकान में एक बड़ा ही संतोष और गौरव का भाव रहता है। वह परिश्रम जिसके करने में आनन्द आता रहा हो, जो उन्नति और विकास हेतु रहा हो, सात्विक श्रम होता है। इसके विपरीत वह श्रम जिसको करते समय थकान, हीनता और दण्ड-सा अनुभव होता है और जिसके साथ विवशता का भाव चलता रहा हो, वह असात्विक श्रम होता है।

मानव-जीवन उन्नति और प्रगति का अवसर है। इसका उपयोग कर मनुष्य किसी भी दिशा में कितनी उन्नति कर सकता है। किन्तु इस उन्नति का आधार एक मात्र श्रम और पुरुषार्थ ही है। ऐसा पुरुषार्थ जो क्रमयोग के भाव से प्रेरित और तपश्चर्या की गरिमा से किया जाय। ऐसा श्रम, आनन्ददायक, सफलतादायक और पुष्पदायक भी होता है। श्रम मानव-जीवन की तपस्या माना गया है। तपस्या में मनोरथ दायिनी शक्ति होती है। सच्चा और सात्विक श्रमिक एक तपस्वी ही होता है। तपस्वी के लिये संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं होता। वह भौतिक ऐश्वर्यों से लेकर पारलौकिक मोक्ष तक अपनी साधना द्वारा सरलतापूर्वक पा सकता है।


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