इन्द्रियातीत ज्ञान- मनुष्य के लिए नितान्त सम्भव

October 1968

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ड्यूक विश्वविद्यालय में परामनोविज्ञान से संबंधित एक स्त्री से संबंधित घटना इस प्रकार है-

“दूसरा महायुद्ध प्रारम्भ हो चुका था। तब मेरे पति को स्नायु सन्निपात (नर्वस ब्रेक डाउन) हो गया। वे घर से लगभग 50 मील दूर एक चिकित्सालय में चिकित्सा करा रहे थे। हम दोनों प्रतिदिन एक दूसरे को पत्र लिखते। एक दिन शाम को मैं अपने ड्राइंगरूम में अकेली बैठी थी। आठ बजने को थे कि एकाएक मुझे बेचैनी होने लगी। बहुत प्रयत्न करने पर भी व्यग्रता बढ़ती ही गई। इस अनायास परिताप का कारण समझ नहीं पा रही थी। मुझे ऐसा लगा, जैसे मुझे कोई टेलीफोन की ओर आकर्षित कर रहा है। मुझे ऐसा लगा कि अपने पति को टेलीफोन करूं, इसी गरज से टेलीफोन के पास तक चली गई। मुझे अनावश्यक फोन करने की मनाही करदी गई थी, इसलिये आस-पास चक्कर तो काटती रही पर फोन न कर सकी और फिर चुपचाप लौट आई।

दूसरे दिन पति के दो पत्र आये। एक तो प्रतिदिन लिखा जाने वाला पत्र था, जो नियमित रूप से आता था। दूसरा उससे पहले लिखा गया था और उसमें पतिदेव ने मुझसे ठीक आठ बजे फोन पर बातचीत करने को लिखा था। इसके दूसरे दिन एक और पत्र आया, जिसमें लिखा था- ‘‘मैं आठ बजे टेलीफोन पर तुम्हारी व्यग्रता से प्रतीक्षा करता रहा। मुझे बहुत बेचैनी रही।”

इस घटना से सिद्ध होता है कि हमारे अन्तःकरण और मन में उठा कोई भी भाव या विचार नष्ट नहीं होता वरन् वह संबन्धित व्यक्ति तक पहुँचता है और भावनायें जितनी हार्दिक और प्रखर होती हैं, उतनी ही तेजी से प्रभावित और प्रेरित भी करती हैं। देव उपासनाओं से मिलने वाला अनुग्रह और प्रार्थना से मिलने वाला आशीर्वाद भी इसी तरह होता है। उससे अधिक अतीन्द्रिय ज्ञान से जीवन की अमरता सिद्ध होती है।

वह इस तरह कि जब तक स्वप्नावस्था में होते हैं तो भी इन्द्रियातीत ज्ञान की अनुभूति होती रहती है। ऐसा लगता है, जैसे हम प्रत्यक्ष शरीर से चल-फिर, उठ-बैठ और क्रियायें कर रहे हों। उस समय की कितनी ही अनुभूतियाँ इतनी सच्ची निकलती हैं कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। अपने पति की हत्या से पूर्व ही राष्ट्रपति अब्राहमलिंकन की पत्नी ने एक सुस्पष्ट स्वप्न में अपने पति की मृत्यु का दृश्य देखा था।

पौराणिक कथा है कि “भरत ने कई दिन पूर्व ही अयोध्या में होने वाले विग्रह और दशरथ की मृत्यु का भविष्य-दर्शन स्वप्न में किया था।” प्राचीन टेस्टामेंट की एक घटना से यह भी सिद्ध होता है कि इस तरह का इन्द्रियातीत ज्ञान जागृत अवस्था में भी हो सकता है और किसी को विचार-संचार भी किया जा सकता है। एक बार राजा बेलसज्जार अपने मेहमानों के साथ भोजन के लिये बैठे, तभी उन्हें किसी के हाथ ऊपर उठते और अँगुली से दीवाल पर कुछ शब्द लिखे दिखे। भविष्य वक्ता डेनिपल ने उक्त सारी घटना की व्याख्या करते हुये बताया कि “राजा का राज्य और अस्तित्व खतरे में है।” वैसा ही हुआ भी। प्रातःकाल होने से पूर्व ही सम्राट् की हत्या कर दी गई और डोरिस नाम के एक उच्च-पदाधिकारी ने राज्य सत्ता पर अपना अधिकार कर लिया।

अपने भावों को व्यक्त करने के लिये जब आत्मा को बोलने की इच्छा होती है तो वह बुद्धि द्वारा अर्थों को संग्रहित कर मन को इस कार्य के लिये प्रेरित करती है। मन शरीरस्थ अग्नि द्वारा प्राण-वायु को गरम करके उसे अपने प्रयोजन के लिये गतिमान करता है। नाभि प्रदेश से उठता हुआ, यह वायु छाती (उरस) आदि स्थानों में से अतिक्रमण कर कण्ठ प्रदेश में पहुँचता है। उपरोक्त प्रक्रिया वायु और आकाश तत्त्वों से मिलकर कम्पन करती है, इस ध्वनि कम्पनों का अभ्यान्तर प्रयत्नों से किसी के भी पास पहुँचाया जा सकता है।

दूरस्थ व्यक्तियों को इसी विद्या से प्राण और विचार देकर उन्हें प्राणवान् बनाया जा सकता है अथवा कोई विशेष सन्देश भेजा जा सकता है। इस क्रिया को आध्यात्मिक भाषा में आत्मा की विवशता कहते हैं। प्राणवान् आत्मायें मृत्यु के उपरान्त भी इस तरह के विचार-क्रम में संलग्न रहती हैं। उन्मुक्त हुई आत्मायें लोक-लोकान्तरों में विचरण करती रहती और वहाँ की परिस्थितियों का आनन्द लूटती रहतीं, उपासना काल में साधकों को दिखाई देने वाले नृत्य-गायन और संगीतों की मधुर-ध्वनियाँ भी इसी प्रकार सुनी जाती हैं, वह प्रसारण किसी विशेष लोक या स्थान से सुनिश्चित रूप से संचारित होते हैं, अब यह आत्मा की पवित्रता और मलिनता पर निर्भर है कि वह किसी सन्देश या दृश्य को कितनी स्पष्टता से देखे। पवित्र आत्माओं को दृश्य और सन्देश बिल्कुल साफ और स्पष्ट मिलते हैं, जबकि अपवित्र आत्मायें देख-सुनकर भी सही अर्थ नहीं समझ सकतीं।

‘छायापुरुष’ की सिद्धि और ‘प्रकाश-शरीर’ के द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पहुँच किसी को कोई मार्ग-दर्शन करना भी सम्भव है। और मन की बातों को जान लेना भी। इस संबंध में योगी श्री श्यामाचरण लाहिड़ी के जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना इस प्रकार है-

श्री लाहिड़ी दानापुर में सेना विभाग के आंकिक थे। उनका रानीखेत से दानापुर के लिये स्थानान्तर हुआ। रानीखेत में उनका संबंध एक योगी से था, जिसे वे अपना गुरु मानते थे। दानापुर जाते हुये वे मुरादाबाद अपने एक मित्र के यहाँ रुके। बात-बात में उन्होंने अपने गुरु की चर्चा छेड़ दी और उनकी अलौकिक शक्तियों का वर्णन करना प्रारम्भ कर दिया। मित्रों के सामने जो बात थी नहीं उसे उनने स्वीकार करने से मना कर दिया। और कहा कि तुम यह सब प्रत्यक्ष दिखाओ तो मानें- श्री लाहिड़ी ने अपने आपको एक कमरे में बन्द करके गुरु का आह्वान किया। बताते हैं एक प्रकाश वहाँ आया। उसमें से एक छाया हिलती-डुलती दिखाई दी। उसने उपस्थित लोगों से बातचीत भी की पर तब तक उन्होंने इस घटना को सम्मोहन (मैस्मरेजम) जैसी क्रिया समझी अंत में योगिराज ने अपने हाथों के माँस का स्पर्श भी कराया। चलते समय वे श्री लाहिड़ी से भविष्य में फिर कभी वैसा न करने का आदेश भी दे गये।

मनोगतिशीलता वस्तुतः शरीर या किसी शारीरिक ऊर्जा से संबंध नहीं रखता। उसका संबंध प्राण और संकल्प (सूक्ष्म शरीर) से रहता है पर उसकी शक्ति अपरिमित होती है, शाप और वरदान तक उससे सफल होते देखे जाते हैं। एक बार दक्षिणेश्वर के काली मन्दिर में भक्तों के एक मेले में रानी रासमणि भी सम्मिलित हुई। रानी से दक्षिणेश्वर मन्दिर को बहुत धन मिलता था। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने सहसा उन्हें जोर का तमाचा मार दिया। तो उनके अंग-रक्षक बहुत नाराज हुये पर रानी ने उन्हें शाँत करते हुये स्वीकार किया कि उन्हें ऐसे पवित्र स्थान में जो बात नहीं सोचनी थी, वह सोच रही थीं। उसे रामकृष्ण परमहंस किस प्रकार जान गये इसे तब बड़ी आश्चर्य की दृष्टि से देखा गया पर अब परामनोविज्ञान इसे मन की संकल्प-सिद्धि का छोटा-सा चमत्कार मानता है। स्वामी विवेकानन्द ने सिस्टर निवेदिता को इसी तरह अपनी मृत्यु का पूर्व-ज्ञान करा दिया था।

स्वामी शिवानन्द ने एक बार एक ग्रामीण की डडडड उन्हें दूध पहुँचाने जाता था, एक साँप से रक्षा की। जब वह स्वामी जी के पास पहुँचा तो उन्होंने जाते ही पूछा- ‘‘साँप ने कहाँ काटा?” वह व्यक्ति यह सुनकर आश्चर्यचकित रह गया। रास्ते में साँप ने जहाँ काटा था, स्थान दिखाया और स्वामी जी ने मन्त्र बल से उसे डडडड कर दिया।

स्थूल इन्द्रियों की ज्ञान-शक्ति बहुत सीमित हैं। जो थोड़ी दूर तक देख सकती हैं, कान थोड़ी दूर का सुन सकते हैं, मुख से निकाली हुई आवाज को दो-तीन डडडड से अधिक दूर तक नहीं पहुँचाया जा सकता। पर डडडड आत्म-चेतना स्थूल शारीरिक ऊर्जा से हटकर सूक्ष्म डडडड स्थिति में केन्द्रित होने लगती है तो उसकी ज्ञान की डडडड बढ़ने लगती हैं। मन की शक्तियों को जितना डडडड नियन्त्रण किया जा सके, उतनी ही विलक्षण डडडड प्राप्त की जा सकती हैं। मन से सूक्ष्म आत्मा है, डडडड की उपासना करते हैं और उसके समीप पहुँचने डडडड तो दूर प्रदेशों के दृश्य, श्रव्य आदि ऐसे दिखाई व सुनाई देने लगते हैं, जैसे वह बिल्कुल पास का दृश्य हो। आत्मा जब ‘परमात्मा’ की स्थिति में पहुँचने लगती है, तब त्रिकाल-दर्शन, सर्वात्मभूति की विलक्षण क्षमतायें मिलने लगती हैं। अन्तिम भूमिका सर्व-शक्तिमान भूमिका होती है।

यह अपार क्षमतायें अदृश्य होने पर भी सूक्ष्म रूप से शरीर में विद्यमान् हैं किन्तु साधारण मनुष्य, काम, क्रोध, लोभ, मोह, वासना, धन-संचय, ईर्ष्या-द्वेष, छल, झूँठ, दम्भ, पाखण्ड आदि मनोविकारों से अपनी आत्मा को मलिन बनाये रहता है, फलतः उसमें ऐसे चित्रों और अनुभूतियों का अंकन नहीं हो पाता। इसीलिये दूसरों की ऐसी क्षमताओं पर विश्वास भी नहीं करते।

आत्मा शरीर से विलग रहने पर भी जब ज्ञान की स्थिति (अर्थात् सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण) में रहती है तो निश्चित ही उसका शरीर से बहुत बड़ा संबंध नहीं। यद्यपि आत्मा और शारीरिक ऊर्जा के सम्मिलन से उन चमत्कारों को दिखाया जा सकता है पर इस समन्वय का मूल उद्देश्य जीवन-लक्ष्य की अनुभूति और प्राप्ति है, यदि हम ऐसा सुन्दर शरीर पाकर भी उसे क्षणिक सुखों की लिप्सा में व्यर्थ नष्ट करते हैं तो उसे पाने का कोई अर्थ सिद्ध न हुआ मानना चाहिये।

परातत्त्व-ज्ञान इस संबंध में विस्तृत खोज कर रहा है और वह यह मानने लगा है कि विश्व में कई ऐसी सत्तायें काम कर रही हैं, जिनसे मिलाप हो जाने से मनुष्य लौकिकता से उठकर अपने अविनश्वर जीवन की सुखानुभूति कर सकता है। प्रमाण के लिये वे ऐसे इन्द्रियातीत ज्ञान को प्रस्तुत करते हैं और कहते हैं कि जब आत्म-चेतना शरीर का संबंध बना रहने पर भी इन्द्रियों से परे का ज्ञान संग्रहित कर सकता है तो मुक्त अवस्था में तो वह और भी आश्चर्यजनक उपलब्धियों का स्वामी होता होगा। उदाहरणार्थ ईसा के समकालीन योगी एपोलिनियस ने भारत में योग विद्या सीखी और भूत-भविष्य को देखने की क्षमता प्राप्त की। उसने कई मृतकों को भी जिला दिया था।

लुम्मा के फ्रीडियन नामक एक पाश्चात्य योगी ने ओसर नदी की धारा को ही बदलकर देश को नष्ट होने से बचाया। श्री एडवर्ड निनेसमैन ने लिखा है कि- ‘‘एक-बार महात्मा इसीडोर के घर कुछ अतिथि आये। उन्होंने योग विद्या से तुरन्त ही एक व्यक्ति को प्रभावित कर भोजन के उतने थाल मँगवा लिये। यह देखकर सभी आगन्तुक आश्चर्यचकित रह गये।”

यह चमत्कार और कुछ नहीं आत्म-चेतना की अमर अनुभूतियाँ हैं, उन्हें कोई भी व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, शर्त यही है कि आत्मा मनोविकारों, द्वेष, दुर्भावों से मुक्त रहनी चाहिये। स्वच्छ दर्पण में जैसे सूर्य की किरणें साफ चमकती हैं, उसी प्रकार निष्कलुष आत्मा में भूत और भविष्य का ज्ञान चमकता है। इस ज्ञान को पाकर मनुष्य अमरत्व पर विश्वास करने लगता है और उसकी प्राप्त के प्रयत्न भी।


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