मातृ-शक्ति ही उद्धार करेगी

March 1968

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सृष्टि का आदि क्रम चला था तब देव और दानवों से भी प्रबल शक्ति मनुष्य की मानी जाती थी। मानव हर क्षेत्र में इनसे बढ़ कर था। विद्या, बल, बुद्धि, वैभव सब में अग्रणी मनुष्य ही था। वह जब भी इच्छा करता था दानवों को दबोच लेता था और देवों को परास्त कर डालता था। मानव-शक्ति से उन दिनों सभी भयभीत रहते थे।

एक दिन देव-दानवों ने सृष्टा ब्रह्मा से शिकायत की- “आपने मनुष्य को इतना सशक्त बनाया है, वह सबको भयभीत रखता है, उसकी शक्ति के आगे किसी की नहीं चलती। समस्त धरती का वैभव उसके हाथ है हम लोग केवल उसके आश्रित रह गये हैं। हमें भी वह अधिकार दीजिये जिससे स्ववश जी सकें, मनुष्य से डरने की बात का अन्त आप ही कर सकते हैं।”

ब्रह्मा जी ने विचार किया और उत्तर दिया ‘‘जब तक मनुष्य को मानवी- ‘नारी’ की शक्ति मिलती रहेगी वह अजेय है, अजेय रहेगा, हम उसके लिये कुछ नहीं कर सकते।” देव-दानव चले आये पर वह यह रहस्य जान गये कि मनुष्य को कैसे परास्त किया जा सकता है। इसके बाद जब भी कभी मनुष्य से लड़ने का अवसर मिला उन्होंने सर्वप्रथम नारी-शक्ति का हनन किया तब मनुष्य निःशक्त होता गया और देव तथा दानव प्रबल होते गये।

एक बार ऐसा ही एक प्रसंग भगवान् राम के समक्ष आया था। मेघनाथ ने इतना भयंकर युद्ध किया कि रीछ और बन्दरों की सेना व्यथित और व्याकुल हो उठी। राम ने विभीषण से मन्त्रणा की। विभीषण ने बताया- भगवन्! मेघनाथ अपनी पतिव्रता और साध्वी पत्नी सुलोचना की शक्ति के कारण अजेय है। जब तक उसे वह शक्ति मिलती रहेगी तब तक मेघनाथ कदापि जीता नहीं जा सकता?

ऐसे और भी सैकड़ों अलंकारपूर्ण पौराणिक कथानक हैं, उन सब का रहस्य यही है कि मातृ-शक्ति से बढ़ कर मनुष्य के पास दूसरी शक्ति नहीं है। नारी का स्नेह, नारी का समर्पण, नारी का वात्सल्य, नारी का सौहार्द, नारी का विश्वास, नारी की सेवा- ऐसी शक्तियाँ हैं, जिन्हें पाकर मनुष्य अमोघ और अक्षय शक्ति वाला बन जाता है। जिसकी पीठ पर माँ का, स्त्री का हाथ होता है वह अविजित ही संसार में सफलता प्राप्त करता है और आगे बढ़ता है।

किसी भी समाज का साँस्कृतिक एवं आध्यात्मिक स्तर समाज में नारियों की स्थिति में निर्धारित होता है। इतिहास, पुराण के व्यापक परिप्रेक्ष्य देखने से पता चलता है कि नारी के अंतस् की मातृत्व निर्माण एवं नेतृत्व की शक्तियाँ ही पुरुष का शारीरिक, मानसिक, भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास करती रही हैं, मनुष्य को जीवन-पथ पर आगे बढ़ाती रही हैं।

स्त्री शाँति स्वरूपा और पूजनीया है, वह परिवार की शोभा है, देवी है, ज्योति है। उसकी ज्योति से सम्पूर्ण परिवार प्रकाशित होता रहता है, उसके अभाव में घर सुनसान लगता है। वह घर की प्राण है। प्राणि मात्र के दुःख दर्द को समझने, स्वार्थ को परमार्थ में ढालने की विराट् चिन्तन वृत्ति पुरुष को नारी ने ही दी है।

सामाजिक संगठन, समुन्नति की प्रेरक भी वही है। राष्ट्र का यश, सौभाग्य और लक्ष्मी भी वही है। जिस देश और जाति में नारी का पूज्य स्थान होता है वही देश और जातियाँ गौरव प्राप्त करती हैं, सिर ऊँचा उठा कर स्वाभिमान क साथ अमर रहती हैं।

अथर्ववेद कहता है-

ब्रह्मापरं युज्यतां ब्रह्म पूर्व ब्रह्मान्ततो मध्यतो ब्रह्म सर्वतः। अनाव्याधां देवपुरां प्रपद्य शिवा स्योना पतिलोके विराज॥ -अथर्व 14/1/64

“हे मनुष्यो! पत्नी के पीछे ब्रह्म (उच्चता, महानता) हो, आगे ब्रह्म हो और अन्त तक ब्रह्म हो। इस प्रकार ब्रह्म से सर्वत्र घिरी हुई वह पति हृदय में राज्य करे।”

आगे, पीछे और मध्य में ब्रह्म होने का अर्थ उसे चतुर्दिक उच्चता, महानता के वातावरण में रखना है। कन्या के रूप में सर्वाधिक स्नेह और उत्तराधिकार भी उसे चाहिये। शिक्षा, स्वास्थ्य संवर्धन और सामाजिक व्यवहार का उपयुक्त और पूर्ण वातावरण उसे मिलना चाहिये। मध्य अर्थात् जब वह पति-गृह में आवासिनी बने तब वह घर की साम्राज्ञी, रानी, सत्तारूढ़ बन कर रहे। घर की सम्पूर्ण स्थिति का संचालन उसकी आज्ञा से हो। सहचरत्व की उपेक्षा न की जाये। उसकी अनुमति के बिना पति भी कोई कार्य न करे। अन्य ही नहीं पुरुष स्वयं भी पत्नी के अनुशासन में रहे।

और जब वह माँ बने तो बच्चा उसकी आज्ञा का पालन कर उसकी उच्चता सिद्ध करे। सेवा, सुश्रूषा द्वारा सम्मानित की गई माँ का स्नेह और वात्सल्य इतनी बड़ी शक्ति है कि वह परमात्मा भी नहीं दे सकता। भारत में परमेश्वर की पिता के समान ही नहीं, किन्तु माता के समान पूजा होती है। माता का शब्द यहाँ सबसे प्यारा और सबसे समीप का सम्बन्ध माना गया है। कोई कष्ट होता है, बड़ा दुःख सिर पर आता है, तब उस समय हम परमात्मा की भी उतनी याद नहीं करते जितना हृदय तल से, माँ की याद करते हैं। हमें उस समय मालूम होता है कि मां से बढ़ कर संवेदनशील, करुणामय, दयार्द्रचित्त और सहायक और दूसरा कोई नहीं हो सकता। ऐसी शक्ति तो सचमुच सम्माननीय ही नहीं पूजनीय है।

“समाज में नारी एक बहुत बड़ी शक्ति है। घर का सारा व्यवहार उन्हीं के हाथ में आज तक रहा, आगे भी रहेगा। बच्चों का प्रजनन और पालन ही नहीं, पोषण भी उसी के हाथ है। बच्चों में जो संस्कार बचपन में माता की तरफ से होते हैं, उससे अधिक संपर्क दूसरा कोई संस्कार जीवन भर में नहीं उभार पाता। मित्रों, पड़ोसियों और कुटुम्बियों का भी असर होता है, लेकिन बिल्कुल बचपन में अगर माता भक्तिमान, श्रद्धावान हो तो उसके द्वारा जो संस्कार बच्चों को मिलता है, वह सबसे ज्यादा बलवान होता है, जीवन में उत्थान के पहियों को तेजी से ऐसे ही संस्कार खींच पाते हैं।

अपने देश में भगवती दुर्गा की महिमा बहुत गाई जाती है। दुर्गा शक्ति की प्रतीक हैं। नारी में शक्ति की इतनी सुन्दर कल्पना अन्यत्र कहीं नहीं हुई। उसमें भी पुरुषों के सदृश चैतन्य-तत्व भरा पड़ा है, उसे जगाने की आवश्यकता है। हमारा गौरव नारियों के शरीर सजाने में, रूप-परायण अथवा भोग-परायण बनाने में नहीं वरन् उन्हें शक्ति, सरस्वती और साध्वी बनाने में है। नारी में उन निष्ठाओं का विकास होना ही चाहिये जिनकी प्रतिच्छाया हम भावी सन्तति और समाज में देखना चाहते हैं।

स्त्री के गुण लज्जा, भय या संकोच नहीं विनय, आत्म-श्रद्धा, निर्भयता, शुचिता, आत्म-सौंदर्य का भाव हमारी माताओं में जगाया जाय, ताकि वे इन गुणों को पका कर भावी सन्तानों को स्तन-पान करायें और उनमें भी वैसे ही तेजस्विता, मनस्विता, वीरता, समर्थता, मेधा के भाव भरते हुए चले जायें, और अतीतकालीन गौरव एक बार फिर से स्पष्ट हो पड़े।

मानवी शक्ति का जागरण ही विश्व परिवर्तन का आधार है। नारी विधेयात्मक शक्ति है। जो काम पुरुष शक्ति-ताँडव द्वारा करता है, नारी उसे सहज स्नेह, सरलता और सौम्यतापूर्वक सम्पन्न कर लेती है। युग परिवर्तन का महत्वपूर्ण प्रयोजन पूर्ण करने के लिए सर्वतोभावेन-उसी को जगाना चाहिए। उसी को बढ़ाना चाहिए और विश्व-शाँति के उपयुक्त वातावरण बनाने की उसी से याचना करनी चाहिए। नारी-तत्व को प्रतिष्ठित पूजित किए बिना हमारा उद्धार नहीं हो सकता।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118