मूढ़ मान्यताओं की भूलभुलैयों में भटकें नहीं

किसी भी समाज अथवा राष्ट्र की प्रगति एवं समुन्नति में उसकी चिंतन पद्धति का सबसे बड़ा योगदान होता है । प्राचीनकाल की स्थिति भिन्न थी । तब बुद्धि का इतना अधिक विकास नहीं हुआ था और न ही चिंतन को प्रभावित करने वाले आज जैसे सुविकसित तंत्र थे । उपलब्ध प्रकृतिप्रदत्त परिस्थितियाँ तथा मानवी पुरुषार्थ प्रगति अथवा अवगति के कारण बनते थे । अस्तु, मानवी प्रयासों का एकमात्र केंद्रबिंदु था- बाह्य परिस्थितियों का अनुकूलन । वह मनुष्य के विकास की आरंभिक अवस्था थी, जब चिंतन का क्षेत्र अपरिचित था ।

आज की स्थिति दूसरी है । साधनों का महत्व तो आज भी है, पर विचारशील समुदाय में उससे भी अधिक महत्त्व वैचारिक संपदा को दिया जा रहा है । समाज की सामूहिक चिंतन पद्धति का विकास अथवा पतन के अनिवार्य तथ्य के रूप में स्वीकारा जा रहा है । अभीष्ट प्रयोजन के लिए जनमानस में एक निश्चित तरह की विचारधारा देने के मनोवैज्ञानिक प्रयोग भी विभिन्न देशों में विभिन्न प्रकार से चलते रहते है । साम्यवाद की चिंतन पद्धति में देशवासियों को रँगने के लिए सरकारी, गैर सरकारी और शैक्षणिक स्तर पर प्रयास करते रहते हैं । रेडियो, टेलीविजन, पत्र-पत्रिकाएँ उक्त लक्ष्य को सार्थक करने में जन-मानस की ब्रेनवाशिग करते तथा अपने प्रयोजन में सफल भी हो जाते हैं।

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