लोक-मानस का परिष्कृत मार्गदर्शन

मनुष्य की काय संरचना और मस्तिष्कीय बुद्धि विचारणा का इतना बड़ा अनुदान हर किसी को मिला है कि वह अपना और संबद्ध परिकर का काम भली प्रकार चला सके । इस क्षमता से रहित कोई भी नहीं है, इतने पर भी व्यामोह का कुछ ऐसा कुचक्र चलता रहता है कि उपलब्धियों की न तो उपस्थिति का अनुभव होता है और न उससे किसी प्रकार का, क्या काम लिया जाना चाहिए, इसका निर्धारण बन पड़ता है । ऐसी दशा में असमर्थता अनुभव करने वालों को समर्थों का मार्गदर्शन एवं सहयोग प्राप्त करना होता है। उसके अभाव में विद्यमान क्षमताएँ प्रसुप्त अवस्था में पड़ी रहती हैं और उनके द्वारा जिस प्रयोजन की पूर्ति की जा सकती थी वह नहीं हो पाती। कपड़े कोई भी धो सकता है, पर अनभ्यास या आलस्य की स्थिति में धोबी का आश्रय लेना पड़ता है । पेट भरने योग्य भोजन बना लेने की आदत दो-चार दिन में डाली जा सकती है, पर देखा यह गया है कि आवश्यक वस्तुएँ घर में होते हुए भी रसोई बनाने का सरंजाम नहीं जुट पाता और भूखे रहने या बाजार से खाने की कठिनाई सामने आ खड़ी होती है । अनेक अपने हाथ से हजामत बनाते हैं, पर कितनों ही का काम नाई का सहयोग लिए बिना चलता ही नहीं । अभ्यास से संगीत-संभाषण जैसे कौशल सहज ही सीखे जा सकते है, पर अपने से इस संदर्भ में कुछ करते-धरते न बन पड़ने पर किसी दूसरे को बकौल प्रतिनिधि या माध्यम के खड़ा करना पड़ता है । इसे आलस्य-अनभ्यास भी कहा जा सकता है और अनुकूल सुविधा हस्तगत न होने का कुयोग भी ।

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