जीवन का उत्तरार्ध लोक सेवा में लगाएँ

जाग्रत आत्माओं से अनुरोध युग परिवर्तन की महती आवश्यकता की पूर्ति के लिए भावनाशील व्यक्तियों के प्रबल पुरुषार्थ के साथ उठ खड़े होने का ठीक यही समय है । बढ़ती हुई दुष्प्रवृत्तियों का प्रवाह इतना प्रचंड है कि यथास्थिति बनाए रहना किसी भी दृष्टि से वांछनीय नहीं । जनमानस में विकृत्तियाँ इस कदर बढ़ती जा रही हैं कि उनके विद्रूप विस्फोट कभी भी विपत्ति खड़ी करके रख देंगे । अपराधों की दुष्प्रवृत्तियाँ प्रत्यक्ष और परोक्ष स्तर पर इतनी बढ़ती जा रही हैं कि अब किसी घोषित सदाचारी के भी छद्म-दुराचारी होने की आशंका रहती है । लगता है कि चरित्र निष्ठा कोई तथ्य न रहकर वाक्विलास की, परस्पर उपदेश करने में काम आने वाली चर्या बनकर रह गई है । एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के प्रति अविश्वास चरम सीमा तक बढ़ता जा रहा है । पति और पत्नी के बीच की गई पवित्र प्रतिज्ञाएँ एक मखौल जैसी बन गई हैं । कामुक दृष्टि की प्रधानता के कारण पवित्र विवाह संस्था का लगभग दम ही घुट चला है । पिता-पुत्र के संबंध नाम मात्र के रह गए हैं । असंयमी मनुष्य अहर्निश अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारता रहता है । नशेबाजी से अब कोई बिरला ही बचा है । मनोविकारों की तो हद ही हो गई है । अनास्थावान बढ़ते जा रहे हैं । चिंता, निराशा, आशंका, असुरक्षा एवं अविश्वास से बचा हुआ स्वच्छ मन अब किसी बिरले का ही दृष्टिगोचर होगा । न्याय की चर्चा तो बड़ी सुंदर है, पर इसे प्राप्त कर सकना ईश्वर को प्राप्त कर सकने से भी अधिक दुर्लभ हो गया है । सर्वसाधारण को न्याय मिल सके, ऐसी आज की

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