विवाह यज्ञ है, इसे उद्धत उत्पात जैसा न बनाऍं

विवाह मानव समाज की एक महत्वपूर्ण व्यवस्था है। कहा जाता है कि संसार एक समय ऐसा था जब मनुष्य पशुओं की तप निवास करता था, उन्हीं को तरह रहता था। उसे न माता-पिता का ज्ञान रहता था और न भाई-बहन का बोध। उस समय वह पशुओं की अपेक्षा भी हीन स्थिति में रहता था, क्योंकि उसमें न हाथी के समान बल था और न शेर के समान तेज दांत तथा नाखुन। न उनका शरीर गेंडा के समान कठोर ढालों से सुरक्षित था और न ही वह अन्य किसी प्रकार अपनी आत्म-रक्षा कर पाता था। इतना होने पर भी उसमें एक ऐसी सहयोगी बुद्धि और संगठन की प्रवृत्ति अवश्य थी, जिसका सहारा लेकर वह पशुओं पर विजय पा लेता था और अपनी रक्षा और वृद्धि में समय होता था। पर उस समय भी किसी नियत धर, भोजन और वस्त्रों की स्थायी व्यवस्था न होने से मनुष्य समुदाय बनाकर सड़ी गुफाओं या घने पेड़ों में निवास करते थे। उस अवस्था में परिवार का निर्माण न होने से स्त्री-पुरुषों में पाये जाने वाले आजकल के से रिश्तों का अस्तित्व नहीं था और समूह की सब स्त्रियाँ सभी पुरुषों की पत्नियाँ समझी जाती थी तथा उनसे उत्पन्न लड़के-लड़की भी समुदाय की सन्तान माने जाते थे । महाभारत में एक उपाख्यान आता है कि इस व्यवस्था फी खराबियों को देखकर श्वेतकेतु नामक सामाजिक नेता ने विवाह-प्रणाली की स्थापना की और तभी से वर्तमान कुटुम्ब-व्यवस्था का श्री गणेश हुआ।

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