पारिवारिक जीवन की समस्यायें
गृहस्थाश्रम की श्रेष्ठता महान है ।
भारतवर्ष में विवाह-बंधन अत्यन्त पवित्र धार्मिक कृत्य माना गया है । इसमें अनेकों उद्देश्यों की प्रतीति और महान उत्तरदायित्वों की पूर्ति के साधन समाविष्ट हैं । भारत के प्राचीन मुनियों ने इसे मानव प्रकृति की उद्दाम प्रवृत्तियों को स्वीकार करने, प्रकृति द्वारा आयोजित प्रजनन तथा सृष्टि विस्तार, सामाजिक सुव्यवस्था, सुदृढ़ नागरिक निर्माण और अन्त में निवृत्ति की चरम सीमा पर पहुंचने की व्यवस्था की है ।
धर्म शास्त्र का प्रवचन है-
तथा तथैव कार्याणि न कालस्तु विधीयते ।
अभित्रेव प्रयुज्जानों ह्यास्मन्नेव प्रत्नीयते ।।
इस संसार के साथ हमारा संयोग है, इसी संसार में हमारा लय हो जायगा, सब हमें जिस समय जो कर्तव्य हो, वही करना अनिवार्य है । व्यक्तिगत सुविधा तथा असुविधा को लेकर कर्तव्य के पुण्य पथ से परिभ्रष्ट होना उचित नहीं । इसलिए धर्म ने गृहस्थाश्रम को तपोभूमि कह कर उसकी महत्ता स्वीकार की है । यहाँ तक कि धर्म की दृष्टि में गृहस्थाश्रम ही चारों आश्रमों का मुख्य केन्द्र है । इस संबंध में योगिवर वशिष्ट का निर्देश देखिये-
गृहस्थ एव यजते गृहस्थस्तप्यते तप: ।
चतुर्थामाश्रमाणान्तु गृहस्थस्तु विशिष्यते ।।