पारिवारिक जीवनक्रम तप और त्याग से भरा हुआ है ।। गृहस्थी के निर्वाह हेतु किया जाने वाला प्रयत्न किसी तितीक्षा से कम नहीं ।। परिवार का भार वहन करना, सदस्यों की सहकारितापूर्वक सुविधा के साधन जुटाना एक दुस्तर तपस्या है ।। उससे भी अधिक दुस्तर जो तपोवनों में बैठकर की जाती है ।। इस व्यवस्था में ही व्यक्ति अपनी अनेक प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना सीखता है ।। माँ- बाप स्वयं अपना पेट काटकर भी बच्चों को पढ़ाते हैं, छोटों को आगे बढ़ाते हैं ।। इसी खदान से सुसंस्कारी नागरिक निकलते हैं एवं इस व्यवस्था से ही जन्म लेती हैं- भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर- अतिशय धर्म ।।
यह एक विडम्बना ही है कि बढ़ती आधुनिकता व शहरीकरण की आसुरी लीला ने इस व्यवस्था को हानि पहुँचाने का कुछ सीमा तक प्रयास किया है ।। यही कारण है कि अब यह संस्था विशृंखलित होने लगी है ।। यह आलोक जन- जन तक पहुँचाना जरूरी है कि सहयोग- सहकारिता भरी परिवार व्यवस्था ही सुख- शांति से युक्त समाज का मूल आधार है ।।