कर्मयोग और कर्म कौशल

सर्वव्यापी वायु की तरह कर्म मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षण में समाया हुआ है ।। सोते, जागते, उठते, बैठते, खाते, पीते, काम करते, विश्राम करते हुए मनुष्य कर्म ही करता है ।। यह कर्म ही उसके सुख- दुःख का हेतु होता है ।। पाप- पुण्य, स्वर्ग- नरक का आधार कर्म ही है ।। कर्म तो सभी करते हैं, किंतु किस मनोयोग से कर्म किया जाए कि सफलता मिलकर ही रहे ।। असफल हो जाने पर किस प्रकार बिना उद्विग्न हुए पुन: उसमें प्रवृत्त हुआ जा सके ।। कर्म तथा आकांक्षाओं, विचारणाओ में सामंजस्य किस प्रकार स्थापित किया जाए जिससे स्वयं सुखी होने के साथ- साथ विश्वमानव को भी सुखी बनाया जा सके ।। कर्म उसके कर्ता को पहले क्षण सफलता के हर्ष से उन्मत्त बना देता है तो दूसरे ही क्षण असफलता का विषाद उसे सिर धुनने को विवश कर देता है ।। इस विडंबना से बचने के लिए कर्म के प्रति समग्र दृष्टिकोण रखना आवश्यक है ।।

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