तथ्यान्वेषियों की दृष्टि में परमसत्ता का स्वरूप
परिवर्तनशील सृष्टि में हर क्षण जीवन-मृत्यु का संघात चल रहा है । सृजन में विनाश का क्रम अनिवार्य रूप से जुड़ा है । नए पौधे उगते हैं । जीव पैदा होते हैं, किंतु देखते-देखते काल के गर्भ में समा जाते हैं । जीवन-मरण के इस चक्र को देखकर यह प्रश्न सदियों से मानव-मन को आन्दोलित करता चला आ रहा है कि इन सबके पीछे सत्य क्या है ?
जीवन क्या है ? जड़ परमाणुओं का सम्मिश्रण मात्र या अन्य कुछ ? विलास, वैभव एवं शक्ति के क्षणिक सुखों के प्रभाव के कारण इस प्रश्न को भले ही भुला दिया जाए किंतु उनका आवेश कम होते ही वह पुन: उठ खड़ा होता है । आदिकाल से ही मनुष्यों को सृष्टि प्रवाह के सत्य को जानने की आकांक्षा रही है तथा जब तक इसका समाधान नहीं मिल जाता, बनी ही रहेगी । विज्ञान, मनोविज्ञान एवं दर्शन सभी अपने-अपने ढंग से इसका समाधान प्रस्तुत करते हैं ।
प्रचलित मान्यताएँ तीन प्रकार की हैं ?
(१) शून्यवादियों के अनुसार सब कुछ शून्य है ।
(२) विज्ञान के अनुसार जीवन जड़ तत्वों का सम्मिश्रण मात्र है जो तत्त्वों के संगठन-विघटन के साथ उत्पन्न तथा विनष्ट होता है ।
(३) दार्शनिकों के अनुसार जीवन का आधार भौतिक तत्त्व नहीं है । इससे परे उसकी सत्ता है । वह अविनाशी है ।