भौतिक क्षेत्र की सफलताएँ योग्यता, पुरुषार्थ एवं साधनों पर निर्भर है । आमतौर से परिस्थितियाँ तदनुरूप ही बनती हैं । अपवाद तो कभी-कभी ही होते है । बिना योग्यता, विना पुरुषार्थ एवं विना साधनों के भी किसी को कारूँ का गड़ा खजाना हाथ लग जाय छप्पड़ फाड़कर नरसी के आँगन में हुण्डी बरसने लगे तो इसे कोई नियम नहीं चमत्कार ही कहा जायगा । वैसी आशा लगाकर बैठे रहने वाले सफलताओं का मूल्य चुकाने की आवश्यकता न समझने वाले व्यवहार जगत में सनकी माने और उपहासास्पद समझे जाते है ।
नियति-विधान का उल्लंघन करके उचित मूल्य पर उचित वस्तुएँ खरीदने की परम्परा को झुठलाने वाली पगडण्डियाँ ढूँढ़ने वाले पाने के स्थान पर खोते ही खोते रहते हैं । लम्बा मार्ग चलकर लक्ष तक पहुँचने की तैयारी करना ही बुद्धिमत्ता हैं यथार्थवादिता इसी में है । बिना पंखों के कल्पना लोक में उड़ान उड़ने वाले बहिरंग जीवन में व्यवहार क्षेत्र में कदाचित् कभी कोई सफल हुए हो ।
अध्यात्मक्षेत्र सूक्ष्म, अदृश्य, अविज्ञात जैसा लगता भर है । वस्तुतः वह भी अपने स्थान पर भौतिक जगत की तरह सुस्थिर और सुव्यवस्थित है । आँखों से न दीख पड़ने पर भी उसकी सत्ता सन्देह से परे है । शरीर दीखता हैं प्राण नहीं ।