घृणा, विद्वेष, चिडचिडापन, उतावली, अधैर्य, अविश्वास यही सब उसकी सपत्ति थे । यों कहिये कि संपूर्ण जीवन ही नारकीय बन चुका था, उसके बौद्धिक जगत् में जलन और कुढन के अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं था । सारा शरीर सूखकर कॉटा हो गया था । पडोसी तो क्या पीठ पीछे मित्र भी कहते स्टीवेन्सन अब एक-दो महीने का मेहमान रहा है; पता नहीं कब मृत्यु आए और उसे पकड ले जाए ?
विश्व-विख्यात कवि राबर्ट लुई स्टीवेन्सन के जीवन की तरह आज सैकडों-लाखों व्यक्तियों के जीवन मनोविकार ग्रस्त हो गये हैं पर कोई सोचता भी नहीं कि यह मनोविकार शरीर की प्रत्येक जीवनदायिनी प्रणाली पर विपरीत प्रभाव डालते हैं । रूखा-सूखा, बिना विटामिन, प्रोटीन और चर्बी के भोजन से स्वास्थ्य खराब नही होता; यह तो चिंतन, मनन की गंदगी, ऊब और उत्तेजना ही है जो स्वास्थ्य को चौपट कर डालती है, शरीर को खा जाती है ।
उक्त तथ्य का पता स्टीवेन्सन को न चलता तो उसकी निराशा भी उसे ले डूबती । पता नहीं अंत क्या होता ? यह तो अच्छा हुआ कि उसमें बुद्धि से काम लेने की योग्यता थी, सो जैसे ही एक मनोवैज्ञानिक मित्र ने उन्हें यह सुझाव दिया कि आप अपने जीवन में परिवर्तन कर डालिए । कुछ दिन के लिए किसी नए स्थान को चले जाइए, जहां के लोग आपसे बिल्कुल परिचित न हों । फिर उन्हें अपना कुटुंबी मानकर आप प्रेम, आत्मीयता, श्रद्धा, सद्भावना और उत्सर्ग का अभ्यास कीजिए । आपके जीवन में प्रेम की गहराई जितनी बढेगी आप उतने ही स्वस्थ होते चले जायेगे