आत्मबल संपन्न व्यक्तित्व का निर्माण- गायत्री शक्ति से
नव युग में मानव समाज की आस्थाऐ-आकाक्षाएँ प्रथा-परंपराएँ, रीति-नीतियाँ, गतिविधियाँ किस स्तर की हों? किन मान्यताओं से अनुप्राणित हों, इसका निर्णय-निर्धारण किया जाना है। मात्र विचार क्षेत्र की अवांछनीयताओं को हटा देना ही पर्याप्त न होगा। मूढ़-मान्यताओं को हटा देने पर जो रिक्तता उत्पन्न होगी, उसकी अइर्त परिष्कृत आस्थाओं को ही करनी होगी । स्वास्थ्य, शिक्षा, आजीविका, सुरक्षा जैसी सुविधाएँ आवश्यक तो हैं और उनके उपार्जन-अभिवर्धन में किसी को कोई आपत्ति भी नहीं हो सकती किंतु इन साधनों तक ही सीमित रहकर किसी समस्या का समाधान नही होता। उनका उपयोग करने वाली चेतना का परिष्कृत होना आवश्यक है; अन्यथा बढ़े हुए सुविधा-साधन दुष्ट के हाथ में पड़कर नई समस्याएँ और नई विपत्तियाँ उत्पत्र करेंगे । दुष्ट जब शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ होता है, तो क्रूर-कर्मों पर उतारू होता है और आततायी जैसा भयंकर बनता है। चतुर और बुद्धिमान होने पर ठगने, सताने के कुचक्र रचता है । धनी होने पर व्यसन और अहंकार के सरंजाम जुटाता है और अपने तथा दूसरों के लिए क्लेश-विद्वेष के सरंजाम खडे़ करता है । अन्यान्य कला-कौशल गिराने और लुभाने के लिए प्रयुक्त होते हैं । सुरक्षा-सामग्री का उपयोग दुर्बलों के उत्पीड़न में होता है ।