संगठित जातियाँ चट्टान की तरह मजबूत होती हैं।

October 1996

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आस्ट्रेलिया के उत्तरी तट पर एक चट्टान है, 1200 मील लम्बी, भूगोल में उसका विशिष्ट स्थान है। नाम है ‘ग्रैट बैरियर रीफ’ इसकी चौड़ाई न्यूनतम 20 फीट है, कहीं-कहीं पर तो वह एक मील तक चौड़ी हो गई है। 50 मीटर नीचे तक जाने वाली यह चट्टान जिसके समीप जाने से बड़े-बड़े जहाज भी भय खाते हैं सचमुच कोई पत्थर की चट्टान नहीं है वरन् ‘स्टोनी कोरल्स’ जाति के एन्थ्रोजोआ जीव होते हैं। उनका चट्टान की तरह एक उपनिवेश (कालोनी) में रहना यह बताता है कि संगठन में कितनी सामर्थ्य है। छोटे-छोटे जीव संगठित होकर इतने शक्तिमान हो सकते हैं तो हम बुद्धिशील भारतीय जातीय एकता के बंधन मजबूत करके समर्थ क्यों नहीं हो सकते?

चट्टान के भीतरी भाग में कोमलता भरी हुई, पर ऊपर इतनी सुदृढ़ता क्यों? यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है। भीतर के सब जीव श्रम विभाजित कर अपना-अपना काम करते रहते हैं। कोई खाद्यान्न जुटाता है तो कोई बच्चे सेता है। बाहरी रक्षा पंक्ति के एन्थ्रोजोआ कैल्शियम कार्बोनेट का बहुत भारी आवरण ऊपर चढ़ा लेते हैं। इस तरह वे एक चट्टान की आकृति में मजबूत दुर्ग के समान सुरक्षित बने रहते हैं, यदि उन्होंने परस्पर मिलने की सुदृढ़ता न दिखाई होती, आपस में बिखरे और विश्रृंखलित बने रहते तो आज उनकी वंशावली या तो होती ही नहीं, होती भी तो बहुत संभव है, पूर्व भारतीयों के समान पराधीन या विश्व में अल्पसंख्यक रह गये होते।

आवश्यकतानुसार यह विभिन्न आकृतियाँ बनाते रहते हैं, कभी पंखे जैसा होकर ‘सीफैन’ कहलाते हैं, तो कभी प्राचीनकाल के मोरपंख की लेखनी जैसे जिन्हें ‘सीपेन’ कहते हैं। इसी जाति का ‘एटाल’ नामक जीव बैलों व घोड़ों के खुरों में जड़े जाने वाले नाल जैसा होता है, जिसकी दोनों भुजाओं के बीच की दूरी 50 मील तक हो सकती है। विभिन्न आकृतियों में संगठन का स्वरूप यह इंगित करता है कि हम ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि कैसे ही स्वरूप में रहें, शासन और सामाजिक व्यवस्थाओं के स्वरूप भले ही बनते-बिगड़ते रहें, पर धर्म व संस्कृति की दृष्टि से अपनी एकता कभी भंग न करें, तभी हम संसार की भयंकरता से, द्वन्द्वों और आक्रमणों से टक्कर ले सकते हैं।

काम वितरण करके भी एक जाति एक परिवार की तरह रह सकती है। संसार के अनेक जीवों में यह सिद्धान्त पाया जाता है, जिसका नाम ‘पोली मार्फिज्म’ है। एक ही जीव कई प्रकार का आकार बनाकर रहते हैं पर उनका मुख्य उद्देश्य अपने समाज व समुदाय की सुरक्षा व विकास करना ही होता है।

सीलेन्ट्रेटा समुदाय के ‘साइनोफोरा’ वर्ग में पाये जाने वाले फाइसेलिया, वेलेला, पोरपिटा, टेंटिला कैल्किफोरा आदि जीव श्रम वर्गीकरण करके जीते हैं पर उनमें पारस्परिक एकता व मैत्री भी इतनी घनिष्ठ होती है

कि कोई भी बाहरी जीव उँगली नहीं उठा सकता। किसी समय भारतीय समाज में भी यही व्यवस्था थी। सारी हिन्दू जाति एक पिता की संतान की तरह रहती थी। सुविधा की दृष्टि से कोई ब्राह्मण का, समाज को संस्कारवान बनाने का कार्य करता था, कोई देश की सुरक्षा का क्षत्रिय कर्म। कुछ भरण-पोषण का उत्तरदायित्व सँभालते थे, कुछ सेवा-सुश्रूषा के स्थूल कार्य करते थे।

इसी संगठन की शक्ति ने भारत को अपराजेय कर रखा। फाइसेलिया जीव पुर्तगाल के सिपाही की हैट की तरह की आकृति बनाकर अपने जाति के सब अण्डे-बच्चों को समेट कर सुरक्षित कर लेते हैं। कुछ भोजन में, कुछ सुरक्षा व्यवस्था में, रहकर संगठन को बनाये रखते हैं। ‘गोनोज्वाइड’ नामक इन्हीं जीवों की एक श्रेणी प्रजनन का काम करती है, शेष सब संयमित जीवनयापन करते हैं। उनका एक ही काम रहता है अपने समाज की सेवा और सुरक्षा। हमारी आन्तरिक व्यवस्था भी ऐसी ही थी। जब तक संयमी व सेवाशील समाज सुधारकों की कमी न रही, देश विश्व का सिरमौर रहा। महान सांस्कृतिक गरिमा के धूमिल होने का एकमात्र कारण रहा विघटन।

संगठित जातियाँ संख्या में थोड़ी ही हों तो भी वे सारे संसार में अँग्रेजों की तरह एकछत्र राज्य कर सकते हैं। मनुष्य क्या जीवों में भी अनूठा उदाहरण है। ‘वाल्वाक्स’ नामक प्रोटोजोआ। यह हमेशा एक कालोनी में संघबद्ध रहता है। परस्पर मिले-जुले होने पर गेंद की आकृति बना लेते हैं और कहीं भी समुद्रभर में घूमते रह सकते हैं। सुरक्षा, आजीविका और प्रजनन के सब कार्य इनमें भी वितरित होते हैं।

संगठन और जातीय एकता, शक्ति और सुरक्षा के आधार हैं। कोई भी देश और जाति तब तक विकसित नहीं हो सकती, जब तक उनका यह प्राथमिक आधार ही सुदृढ़ न हो।


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