गुरुकुल सघन वृक्षों की छाया में चलता था। ऋतु की विषमता से बचने के लिए कुछ पर्ण-कुटीर भी बने थे। प्राचार्य पिप्पलाद छात्रों को जहाँ ज्ञान-विज्ञान के अनेक विषय पढ़ाते , वहाँ साथ-साथ यह भी कहते रहते कि “ईश्वर के सान्निध्य से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।” छात्रों में अधिक तार्किक थे आश्वलायन। उनने अवसर पाकर जिज्ञासा प्रस्तुत की-देव, ईश्वर की निकटता से शान्ति मिले, इतना तो समझ में आता है, पर ऐश्वर्य मिले, इसका क्या तुक? आचार्य ने समयानुसार उत्तर देने की बात कहकर प्रसंग टाल दिया। शिक्षण सत्र समाप्त हुआ। पुराने छात्रों की विदाई और नयों की भरती का क्रम चल रहा था। पुराने छात्रों में राजकुमार सुतीक्ष्ण भी थे। छात्रों के मध्य कौटुम्बिकता और समता का व्यवहार चलता था। विदाई के समय आचार्य ने आश्वलायन ने सुतीक्ष्ण को अपने घर पधारने के लिए निमन्त्रण दिया। बात तो असमंजस की थी, पर राजा ने पुराने सम्बन्धों को ध्यान में रखते हुए निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। यथासम्भव साज-सज्जा के साथ वे पधारे। घर छोटा था। साधनों के अभाव से राज्याधिकारियों ने प्रबन्ध स्वयं कर लिया। आवभगत और वार्तालाप के उपरान्त राजा विदा हुए, तो उन्होंने निर्धन मित्र के लिए बहुत से सुविधा-साधन जुटा दिये। देखते-देखते वे निर्धन से सुसम्पन्न हो गये। समय बीता, आश्वलायन की फिर एक बार पिप्पलाद से भेंट हुई। आचार्य ने पुराना प्रसंग याद दिलाया और पूछा-राजा का संपर्क यदि दरिद्रता दूर कर सकता है, तो ईश्वर का सान्निध्य ऐश्वर्य प्रदान क्यों नहीं कर सकता? देर तो लगी, पर आश्वलायन का संदेह पूरी तरह दूर हो गया।