विजातीय द्रव्य, विषाणु जलवायु को प्रदूषण, घटिया अहार, ऋतु प्रभाव, दुर्घटना जैसे कारण शरीर को रुग्ण बनाने के लिए उत्तरदायी ठहराये जाते रहे हैं। उन्हीं को दूर करने के लिए उपाय सोचे गये हैं तथा उत्पन्न बीमारियों से निपटने के लिए चिकित्सा परक प्रयत्न हुए है। स्वास्थ्य समस्या के संदर्भ में एक नया तथ्य सामने यह आया है कि मस्तिष्कीय तनाव आरोग्य नष्ट करने का सबसे बड़ा कारण है। नवीनतम शोधों ने अपना निष्कर्ष यह प्रस्तुत किया है कि यदि मनः संस्थान उत्तेजित आवेशग्रस्त एवं अस्त-व्यस्त रहे तो फिर स्वास्थ्य रक्षा के सारे साधना व्यर्थ हो जायेंगे और अन्य कोई कारण न होने पर शरीर के भीतरी अवयव अपना काम ठीक तरह पूरा न कर सकेंगे। फलतः दुर्बलता ओर रुग्णता अकारण ही बढ़ती चली जायगी।
सुपाच्य वस्तुओं से पोषण के साधन बनते हैं; पर यदि पाचन तन्त्र ही गड़बड़ा जाए, पाचक रसों की मात्रा न्यूनाधिक हो जाए, स्नायु संस्थान लड़खड़ाने लगें, हारमोन ग्रन्थियाँ कुछ का कुछ टपकाने लगें तो यकृत, वृक्क आँतें, हृदय, फुफ्फुस जैसे महत्त्वपूर्ण अवयव अपनी ड्यूटी ठीक तरह पूरी न कर सकेंगे। फलतः रस, रक्त, माँस, अस्थि का निर्माण घटिया स्तर का होगा, उसमें विषाक्तता घुली रहेगी और स्वास्थ्य संकट उत्पन्न होगा।
शरीर पर पूरी तरह नियन्त्रण करने वाला एक ही अवयव है-मस्तिष्क। शक्ति का स्रोत यही है। पिछले दिनों हृदय को सर्वोपरि माना जाता था। अब उसकी प्रमुखता अस्वीकार कर दी गई है और प्रमुख के पद पर मस्तिष्क को आसीन कर दिया गया है। अब डाक्टर लोग हृदय की धड़कन बन्द होने पर किसी को मृत घोषित नहीं करते वरन् यह देखते हैं कि मस्तिष्कीय विद्युत प्रवाह चल रहा है या नहीं। मस्तिष्क जीवित हो तो हृदय की धड़कन को उपचारों के सहारे पुनः गतिशील किया जा सकता है। कितने ही मृतकों के श्मशान से वापिस लौट आने एवं कब्र से निकल कर पुनर्जीवित होने के जो समाचार मिलते रहते हैं उन सब के पीछे एक ही बात पाई गई है कि लोगों ने नाड़ी चलना, हृदय, धड़कना, साँस रुकना देखकर मृत्यु मान ली, यह नहीं जाना जा सका कि मस्तिष्क के किसी कोष्ठक में चेतना तो विद्यमान नहीं है। समाधि लगाने वाले योग मृतक अथवा अर्धमृतक स्थिति में महीनों पड़े रहते हैं। उस अवधि में हृदय की धड़कन नाम मात्र को रह जाती है। उतने भर से शरीर यात्रा का चल रुकना विस्मयजनक माना जा सकता है; पर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है कि मस्तिष्क जीवित रहने की स्थिति में अपने ही संकल्प बल से शरीर को अर्धमृतक बना देने से लेकर पुनर्जीवित कर देने तक के सारे क्रिया-कलाप सम्भव हो सकते हैं। इच्छा शक्ति के चमत्कार संकल्प-बल के जादू विभिन्न क्षेत्रों में आश्चर्य चकित करने वाले प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। जीवन के उत्थान पतन में शरीर का अन्य कोई अवयव उतनी बड़ी भूमिका नहीं निभाता जितना कि मस्तिष्क। दीर्घजीवन से लेकर प्रतिभावान बनने तक की समस्त विकासोन्मुख प्रक्रियाओं के पीछे मानसिक शक्तियों के ही कौतूहल दृष्टिगोचर होते हैं।
देखने में तो लगता है कि हृदय, पाचन तन्त्र आदि अवयवों के बलबूते पर शरीर यात्रा चल रही है; पर गहराई में प्रवेश करने पर कुछ दूसरे ही तथ्य सामने आते हैं। मस्तिष्क के पिछले भाग में अवस्थित अचेतन मन के नियन्त्रण में शरीर की अति महत्त्वपूर्ण गतिविधियाँ अपने ढर्रे पर लुढ़कती है ओर स्वसंचालित यन्त्र की तरह विभिन्न संस्थान अपना-अपना काम करते रहते हैं। रक्त संचार, श्वास-प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष, निद्रा-जागृति, क्षुधा-पिपासा, ग्रहण-विसर्जन जैसी अनवरत रीति से आजीवन चलती हरने वाली गतिविधियाँ अपने आप ही नहीं चलती रहती। इनका क्रमबद्ध सुसंचालन अचेतन मस्तिष्क के केन्द्र संस्थानों से सम्भव होता है। ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने काम करती है। यह इन छिद्रों की क्षमता नहीं है, वरन् मस्तिष्क के विशेष केन्द्रों तक इन्द्रिय सम्वेदनाओं की सूचना पहुँचाने के उपरान्त वह अनुभूति होती है, जिसे हम इन्द्रिय चेतना के नाम से पुकारते हैं। तरह-तरह के रसास्वादन, जिह्वा, जननेन्द्रिय, नेत्र, कर्ण, नायिका आदि के होते हैं, पर वस्तुतः उस अनुभूति से मस्तिष्कीय अमुक केन्द्रों को ही सम्वेदना एवं क्षमता प्रकट हो रही होती है। मस्तिष्क स्तब्ध कर दिया जाए तो इन्द्रिय यथावत् बनी रहने पर भी किसी प्रकार की अनुभूति सम्भव न हो सकेगी। कष्ट रहित आपरेशनों के अवसर पर यह सब आसानी से देखा जा सकता है। सुँघा कर मस्तिष्क को स्तब्ध कर देने वाली अथवा नाड़ी संस्थान को सुन्न अमुक अवयवों की सूचना मस्तिष्क तक न पहुँचने देने का अवरोध उत्पन्न करके आपरेशन किये जाते रहते हैं। इससे स्पष्ट है कि इन्द्रियजन्य अनुभूतियाँ मस्तिष्क की ही करामात है।
विचारणाएँ, भावनाएँ, सम्वेदनाएँ, आस्थाएँ, आकांक्षाएँ, आदतें इन्हीं को मिलाकर व्यक्तित्व बनता है और विभिन्न प्रकार की गतिविधियाँ सम्भव होती है। यह क्रिया-कलाप मस्तिष्कीय स्थिति का ही कौतूहल है। संक्षेप में प्रकट और अप्रकट व्यक्तित्व की जैसी भी कुछ स्थिति है उसके लिए मस्तिष्क को ही श्रेय या दोष दिया जा सकता है।
मस्तिष्क ठीक काम करे दो शरीर की विपन्न परिस्थितियों में भी मनुष्य बढ़े-चढ़े काम करता रह सकता है। आद्य शंकराचार्य को लम्ब समय तक भयंकर फोड़े से पीड़ित रहना पड़ा पर वे उसी स्थिति को सहन करते हुए थोड़ी सी आयु में इतना काम कर सके जितना कि सौ वर्ष स्वस्थ रहने वाले इस मनुष्य मिलकर भी काम नहीं कर सकते। यह मानसिक स्थिरता और प्रखरता का चमत्कार था। जो शरीर की रुग्णता को तुच्छ मानते हुए भी अतिमहत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करा सकने में समर्थ हो सका। संसार के इतिहास में ऐसे अगणित उदाहरण विद्यमान है जिससे स्पष्ट है कि अष्टावक्र, सूरदास जैसे शारीरिक दृष्टि से अक्षम किन्तु मानसिक दृष्टि से समर्थ व्यक्तियों ने आश्चर्यजनक पुरुषार्थ प्रस्तुत किये हैं। इसके विपरीत ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ ही नहीं साधनों की दृष्टि से सम्पन्न होते हुए भी गया गुजरा, हेय एवं निरर्थक जीवन जीते हुए किसी प्रकार मौत के दिन पूरे कर सके।
दृष्टिकोण की विकृति मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी क्षति एवं असफलता है इस विपन्नता को यदि संभाला सुधारा जा सके तो समझना चाहिए कि मनुष्य जन्म को सफल सार्थक बनाने वाला आधार हाथ लग गया। इस कार्य में यों दूसरों से भी सहायता मिल सकती है पर प्रधानतया अपना ही साहस एवं अध्यवसाय जुटा कर आत्म-निर्माण का अभिनव प्रयत्न करना पड़ता है। अपने ऊपर अधिकार तो अन्ततः मात्र अपना ही है-दूसरे तो परामर्श दाता भर ही हो सकता है। अधिक से अधिक इतना हो सकता है कि यथा सम्भव यत्किंचित् सहायता कर दें; पर वह सहयोग तो मन समझाने और आँसू पोंछने जितना ही कारगर सिद्ध होता है अपने दृष्टिकोण और क्रिया-कलाप को सुव्यवस्थित करने के लिए काम तो अपना ही साहस एवं अपना ही प्रयत्न आता है।
मस्तिष्कीय विकृति का प्रत्यक्ष चिह्न है तनाव। देखा जाता है कि कितने ही व्यक्ति बाहर से सामान्य कार्य करते दीखने पर भी भीतर ही भीतर उद्विग्न पाये जाते हैं। खिन्न, उदास, चिन्तित, निराश, भयभीत, कातर, शोकाकुल, रोते, कलपते, लोग अपंगों, विक्षिप्तों की तरह अस्त-व्यस्त काम करते हैं। लंघन में उठे रोगी की तरह उनकी क्रिया-शक्ति अति न्यून होती हैं। तनिक सा श्रम करते ही थकान चढ़ दौड़ती है। कई व्यक्ति भीतर ही भीतर आवेशों से ग्रसित पाये जाते हैं। खीज, झुँझलाहट, क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या की आग में जलते हैं और अपने कल्पित शत्रुओं से प्रतिशोध लेने, बर्बाद करने, नीचा दिखाने के कुचक्र रचते रहते हैं। बन पड़ता है तो दूसरे को हानि पहुँचाने वाले आक्रमण करते या प्रपंच रचते हैं। उतना न बन पड़ा तो आत्म-हत्या गृह त्याग जैसे आत्म-घात पर उतारू होते हैं। यह विक्षिप्त एवं उद्विग्न मनःस्थिति के लक्षण है। यों पूर्ण विक्षिप्त तो असामाजिक और व्यवहार की दृष्टि से अव्यवस्थित हो जाते हैं; पर अर्ध विक्षिप्तों की दशा उनसे कुछ बहुत अच्छी नहीं होती। अक्सर इतना ही होता है कि विक्षिप्तों को अटपटापन देखते ही प्रकट हो जाता है किन्तु उद्विग्नों की उपहासास्पद मनःस्थिति का पता निकट सम्पर्क में रहने के उपरान्त चलता है। वे खाते, बोलते, करते, धरते, सोते जागते तो सामान्य मनुष्यों की तरह ही हैं, पर आन्तरिक खोखलापन ऐसी विचित्र स्थिति में डाले रहता है कि जिस काम में हाथ डालें उसी में असफलता हाथ लगे। लगातार संपर्क में आने वाले को इस अर्ध विक्षिप्त स्थिति का आभास मिलता रहता है; पर इतना न्याय वे भी नहीं कर पाते कि मानसिक रोगी मानकर उनसे सहृदयता एवं उदारता बरतें। होता उलटा है इस विपन्नता को अवज्ञा, उद्दंडता आदि गिन लिया जाता है और फिर विरोध विग्रह खड़ा करके क्षति पहुँचाने का प्रयास होने लगता है। इस प्रकार आन्तरिक अशान्ति बाहर से असफलताओं और दुर्व्यवहारों की दुहरी विपत्ति सिर पर ला पटकती है। फलतः विपन्नता की आग में ईंधन पड़ता जाता है और खीज घटने की अपेक्षा बढ़ती ही जाती है।
मस्तिष्क पर ज्वर आने, चोट लगने, अपच रहने जैसे कारणों से भी शिर दर्द जैसी स्थिति हो सकती है। कोई आकस्मिक विपत्ति एवं तिलमिला देने वाली घटना भी मस्तिष्क को उत्तेजित करके तनाव, अनिद्रा, शिर दर्द जैसे कष्ट खड़े कर सकती है। यह सामयिक कारण है जो आते और चले जाते हैं। यों बारह घण्टे बुखार ओर एक घण्टा उद्वेग की क्षति समान मानी गई है अस्तु सामयिक आवेश असन्तुलन भी कम क्षति नहीं पहुँचाते उनकी प्रतिक्रिया भी विघातक ही होती है। उथले अधीर व्यक्ति ही छोटे कारणों पर अत्यधिक उत्तेजित होते हैं। गम्भीर धैर्यवान व्यक्ति बड़ी कठिनाइयों को भी छोटी मानते हैं और उद्विग्न होने के स्थान पर समाधान सोचने में लगते हैं। सार्थक काम सामने होने पर निरर्थक जंजालों से स्वयं ही मन हट जाता है। प्रस्तुत समस्या का हल खोजने की मानसिक सन्तुलन की अनिवार्य आवश्यकता स्वीकार की जाए तो फिर विषम परिस्थितियों में विशेष रूप से सतर्कता बरतनी पड़ेगी और उस दूरदर्शिता का परिचय देना पड़ेगा, जिसके सहारे विवेकवान व्यक्ति घोर संकट के समय स्थिर चित्त दिखाई पड़ते हैं।
मस्तिष्क में सीमित तापमान सह सकने की सामर्थ्य है। उद्विग्नता की आग इतनी तीखी होती है कि कपाल के भीतर भरी हुई सज्जा उससे गढ़ाव में उबलते तेल की तरह खोलने लगती है। इसी असह्य तापमान को मानसिक तनाव के रूप में देखा जा सकता है। तनाव के लक्षण सर्वविदित हैं-शिर भारी रहना, चकराना, जी उचटना, किसी काम में मन न लगना, पदार्थों से रुचि हट जाना, किसी से सघन आत्मीयता की अनुभूति न होना, उदासी छाई रहना; खोपड़ी चटकने, सिर के भीतर नसें फटने जैसा लगना, नींद अल्प और अधूरी आना, स्वभाव में चिड़चिड़ापन बढ़ जाना, जैसे लक्षणों ने मनःक्षेत्र को आच्छादित कर लिया। मोटे तौर पर इसे शिर दर्द जैसी स्थानीय व्यथा के समतुल्य माना जा सकता है; पर बात ऐसी ही नहीं। तनाव का कारण जटिल है। विकृत चिन्तन जब सारे मानसिक संस्थान को आँधी, तूफान की तरह तोड़-मरोड़कर रख देने जितना प्रचण्ड होता है तो ही उससे तनाव उत्पन्न होता है। सामान्य स्थिति में तो औंधे-औंधे विचार आते-जाते रहते हैं। उनका प्रभाव न गहरा होता है और न स्थायी।
मोटे लक्षण में शिर का भारीपन, बेचैनी, उत्तेजना, घुटन, अनिद्रा जैसी कठिनाइयाँ ही सामने होती हैं, पर उनके कारण कार्य दक्षता, मनोयोग एवं अभिरुचि का तारतम्य ही गड़बड़ा जाता है, फलतः जो भी काम हाथ में होते हैं वे बेगार की तरह बन पड़ते हैं और आधे-अधूरे कुरूप असफल बन कर रह जाते हैं। स्वभाव में चिड़चिड़ापन बढ़ जाने से सम्पर्क क्षेत्र में अपेक्षा असहयोग एवं मनोमालिन्य बढ़ता जाता है। इस प्रकार तनाव की प्रतिक्रिया न केवल मानसिक उद्विग्नता तक सीमित रहती है वरन् उसका प्रभाव कार्य कुशलता एवं पारिवारिक सामाजिक जीवन पर भी पड़ता है और कठिनाइयों पर कठिनाइयाँ बढ़ती चली जाती है। इन तथ्यों पर ध्यान दिया जा सके तो प्रतीत होगा कि तनाव सामान्य जैसी व्यथा दीखते हुये भी जीवन के हर क्षेत्र में जटिलताएँ उत्पन्न करने वाला अति विघातक रोग है। इसके निवारण का यदि समय रहते उपाय न किया जाए तो वह स्वभाव का एक अंग बन जाता है और कोई वास्तविक कारण न होने पर भी अभ्यस्त आदतों की तरह अपनी जड़े जमाये बैठा रहता है। नशेबाजी, गाली देना, उँगलियाँ चटकाना जैसी आदतें आरम्भ में कारणवश होती है; पर पीछे वे आवश्यकता न रहने पर भी अनजाने ही कार्यान्वित होती रहती है। तनाव जब आदत का अंग बन जाय तब समझना चाहिए कि अब इससे पिण्ड छुड़ाना कष्ट साध्य बन गया है।
मानसिक तनाव का समूचे शरीर पर प्रभाव पड़ता है और अन्य कारण न होने पर भी मात्र अकेले इसी विग्रह के कारण शरीर के भीतरी और बाहरी अवयव अपनी स्वाभाविक क्रियाशीलता गँवाते चले जाते हैं। घड़ी के पुर्जों की तरह शरीर के अवयवों का पारस्परिक सहयोग एवं तालमेल ही जीवन रथ को अग्रगामी बनाता है। एक पुर्जा गड़बड़ी फैलाने लगे तो सारी मशीन का सन्तुलन बिगड़ जाता है और बढ़िया घड़ी भी अपना काम ठीक तरह कर सकने में असमर्थ हो जाती है। तनाव यों स्थानीय रोग दीखता है; पर उसकी जड़ें मस्तिष्क रूपी जीवन संचार केन्द्र में घुस जाती है इसलिए वहाँ की विकृति हर कल पुर्जे को प्रभावित करती है। फलतः चिकित्सक कोई कारण ढूंढ़ नहीं पाते-निदान में कोई प्रत्यक्ष संकट दृष्टिगोचर नहीं होता फिर भी शरीर गलता ही जाता है। दुर्बलता बढ़ती और बढ़ती ही चली आती है। साथ ही चित्र-विचित्र रोगों की आये दिन फुलझड़ियाँ अपने-अपने कौतूहल दिखाती हुई सामने आती रहती है।
मानसिक तनाव की शारीरिक प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में वैज्ञानिक क्षेत्रों में सुविस्तृत शोध कार्य हुआ है और उसकी बारीकियों पर आगे और भी अधिक तत्परतापूर्वक अनुसंधान चल रहा है। रीडर्स डाइजेस्ट पत्रिका में विद्वान जे0 डी0 राटल्कीपर का एक लेख कुछ वर्ष पूर्व छपा था। शीर्षक था ‘तनाव रोगों का सबसे बड़ा कारण’ उसमें उन्होंने विश्व भर में इस सन्दर्भ में हुए शोध कार्यों पर प्रकाश डाला था और बताया था कि कुछ समय पर तनाव को जुकाम, खुजली जैसा उपेक्षा योग्य रोग माना जाता था, पर गम्भीर अनुसन्धानों ने यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि यदि मस्तिष्क उद्विग्न बना रहे तो फिर शरीर के अन्य अवयवों से अपना स्वाभाविक कार्य करते रहने की अपेक्षा नहीं की जा सकती । वे लड़खड़ाने लगेंगे, तो अस्वस्थता इस या उस खिड़की से शरीर में घुस ही पड़ेगी।
जर्मनी के मौन्ट्रियल विश्व विद्यालय के रसायन प्राध्यापक डाक्टर हेन्स सैले ने अपने दीर्घकालीन अनुसंधान में तनाव को दमा, हृदय रोग, क्षय सदृश भयानक रोगों के समतुल्य हानिकारक बताया है और उसे कितने ही छोटे-बड़े रोगों का जन्म दाता कहा है। वे कहते हैं तनाव की सीधी प्रतिक्रिया हारमोन ग्रन्थियों पर होती है और उनके महत्त्वपूर्ण स्रावों में असन्तुलन आ जाने से तरह-तरह की शारीरिक अस्वाभाविकताएँ दृष्टिगोचर होने लगती है। रक्तचाप का घटना या बढ़ना प्रायः इसी असन्तुलन के कारण उत्पन्न होता है। अनिद्रा कोई सीधा रोग नहीं है। मानसिक उत्तेजना नींद में अत्यधिक बाधा पहुँचाती है। उद्विग्न रहने वाले मनुष्य आधी अधूरी नींद ही ले पाते हैं, फलतः शारीरिक क्षति पूर्ति न होने से थकान और खीज निरन्तर चढ़ी रहती है।
बुढ़ापे के कारण शारीरिक उत्पादन घट जाते हैं और उतने भर में क्षति पूर्ति सम्भव नहीं हो पाती। फलतः वृद्ध व्यक्ति रासायनिक पदार्थों से क्षुधा ग्रस्त रहता है। अवयव कड़े पड़ते जाते हैं। अक्षमता बढ़ने से बढ़ी हुई विकृतियाँ अन्ततः मृत्यु का ही रूप धारण कर लेती है।यदि क्षतिपूर्ति का सन्तुलन ठीक तरह बना रहे तो मानवी काया की प्राकृतिक संरचना इस योग्य है कि इस यन्त्र को कई सौ वर्षों तक समक्ष रखा जा सके। बुढ़ापा कब आयेगा यह ठीक से नहीं कहा जा सकता है। हो सकता है कि दाँत और केश पक जाने पर भी स्फूर्ति बनी रहे और अधिक आयु हो जाने पर भी युवावस्था जैसा उत्साह बना रहें। इसके विपरीत यौवन आरम्भ होने से पूर्व ही बुढ़ापे की छाया चन्द्र ग्रहण की तरह चढ़ती देखी जा सकती है। यह रासायनिक उत्पादनों की ही न्यूनाधिकता है जो यौवन में बुढ़ापा उत्पन्न करती है और बुढ़ापे में यौवन बनाये रहती हैं।
डा0 शैले के सुविस्तृत अनुसन्धानों का विवरण अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन के जनरल में प्रकाशित हुआ था। जिसमें उन परीक्षणों का उल्लेख था जो तनाव की भयंकर प्रतिक्रिया और उसमें होने वाली क्षति का जानकारी देते हैं। उन अनुसन्धानों के आधार पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि मस्तिष्कीय उत्तेजना बनी रहने से शरीर के भयंकर क्षति होती है। उसे न हटाया जा सका तो फिर अशक्तता बढ़ती ही जायेगी। विकृतियाँ अपना प्रभाव दिखाएँगी और अशान्त व्यक्ति तेजी से मृत्यु मुख में घुसता चला जाएगा।
एक दूसरे क्षुब्ध प्रतिष्ठ अनुसंधान कर्ता डॉ0 फ्रेडरिक वनटिंग ने चूहे, बन्दर, कुत्ते तथा अन्य प्राणियों पर यह परीक्षण किये कि मानसिक उत्तेजना बनी रहने से शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है? उनने पाया कि इसकी प्रतिक्रिया वैसी ही होती है जैसी कि शरीर को तोड़-मरोड़ कर रख देने वाले अन्य भयंकर रोगों की। लगातार दस दिन तक मस्तिष्क उत्तेजित रहें और नींद न आये जो मनुष्य का पागल हो जाना बेमौत मर जाना निश्चित हैं।
प्रश्न उठता है कि क्या तनाव कोई अपने हाथ बुलाता है? क्या उससे छुटकारा पाना अपने बस की बात है? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर हाँ में ही दिया जा सकता है। सामान्य घटनाक्रमों को अति महत्त्वपूर्ण मान बैठने की आदत बचकाने दृष्टिकोण की प्रतिक्रिया है। यदि जिन्दगी को एक मनोरंजक खेल माना भर जाय और उसमें आते रहने वाली अनुकूलता, प्रतिकूलताओं की आँखमिचौनी को एक खिलवाड़ भर माना जाय तो कोई भी अप्रिय घटना बहुत भारी प्रतीत न होगी और उतार-चढ़ावों को कौतूहल मात्र अनुभव किया जा सकेगा। इसके विपरीत यदि डरपोक अधीर प्रकृति होगी, छोटी कठिनाई को बड़ा-चढ़ा कर सोचेंगे और उसी से भयभीत होकर पैरों पर कुल्हाड़ी ही नहीं मस्तिष्क को चूरा कर देने वाली हथौड़ी भी मारेंगे।
बात को बढ़ाकर सोचना ही यदि सुखद लगता हो तो दसों दिशाओं में बिखरे हुए प्राकृतिक सौंदर्य को, इस संसार की कलात्मक संरचना को, मानव जीवन के साथ जुड़ी हुई अगणित विभूतियों को, समाज की सुव्यवस्थित संरचना को,सहयोग एवं सद्भाव के आधार पर मिलने वाले अनुदानों को, अब तक मिली सफलताओं को, उज्ज्वल भविष्य की आशा सम्भावनाओं को, विपत्तियों के ग्रहण की अस्थिरता को विचारा जाना चाहिए और उनके चित्र जितने बढ़ा-चढ़ाकर देखे जा सकते हों देखने चाहिए। हर मनुष्य के सामने कुछ अनुकूलताएँ रहती है कुछ प्रतिकूलताएँ। निश्चय ही उनमें प्रिय अधिक और अप्रिय कम होती है। अन्धकार से प्रकाश की सत्ता बढ़ी चढ़ी है। असफलताओं की तुलना में सफलताओं की गणना अधिक है। शत्रुओं से मित्रों की संख्या कई गुनी होती है। अपनी स्थिति लाखों से बुरी है तो करोड़ों से अच्छी है। यदि इस प्रकार सोचा जा सके तो मस्तिष्क को उत्तेजित करके कष्टकारक तनाव की स्थिति से सहज ही छुटकारा पाया जा सकता है। यदि परिष्कृत दृष्टिकोण विकसित किया जा सके तो तथाकथित प्रतिकूलताएँ उपेक्षणीय लगें तो उनका खट्टा-मीठा स्वाद लेते हुए सन्तुलन को यथावत बनाये रखा जा सके।
तनाव दूर होने का एक उपाय तो यह है कि मनोवाँछित परिस्थितियाँ बनी रहें। कल्पवृक्ष आँगन में लगा हो और जो चाहा जाय वही तत्काल उपस्थित होता रहे। संसार के सभी प्राणी अपने वशवर्ती और अनुचर रहें। स्वर्ग जैसे किसी तथाकथित लोक में निवास रहें और सर्वत्र अनुकूलता ही अनुकूलता पाई जाय। यदि यह दिवास्वप्न सम्भव न दीखता हो और विश्व रचना में अँधेरे-उजाले का पेंडुलम हिलना कटु सत्य समझ में आता हो तो फिर एक उपाय है कि हम प्रतिकूलताओं से डरें नहीं वरन् उन्हें विनोद के लिए आवश्यक उतार-चढ़ाव स्वीकार कर लें। ताल-मेल बिठाकर चलने वाली समझौता वादी नीति ही व्यावहारिक है। प्रतिकूलताएँ भी अनुकूलताओं की तरह श्वास, प्रवास कम की तरह बनी ही रहने वाली है यदि यह मान लिया जाय तो जूझना, सहना और हँसना इन तीनों की समन्वित रीति-नीति अपनानी पड़ेगी।
तनाव परिस्थितिवश भी हो सकता है, पर उस स्थिति में वह अस्थायी रहता है और समय प्रवाह में वह बहता हुआ अन्यत्र चला जाता है। दृष्टिकोण की विकृति ही चिरस्थायी तनाव उत्पन्न करती है और उसी से जीवन का वरदान एक अभिशाप के रूप में परिणत होता है। अध्यात्म तत्त्व-दर्शन यदि हृदयंगम किया जा सके तो न केवल तनाव जैसी व्यथा से वरन् अन्यान्य आपदाओं से बचते हुए सन्तोष, आनन्द एवं उल्लास के साथ अभावग्रस्त विपन्न समझा जाने वाला कुसमय; सुखद सौभाग्य में सहज ही परिणत हो सकता है।