यथाहिकानकंखण्डमपद्रव्यवदग्ना। दग्धदोषंद्वितीयेनखण्डेनैन्क्यं ब्रजेन्नृप॥
नविशेषमवाप्नोततद्वद्योगाग्निनायतिः। निर्दग्धदोषस्तेनैक्यप्रयातिब्रहमाणसह॥
यथाग्निरग्नौसंक्षिप्तः समानत्वमनुव्रजेत्। तदाख्यस्तमन्योभूनोगगृहयेतविशेषतः॥
परेण ब्रहमणाद्वत्प्राप्यैक्यंदग्धकिल्बिषः। योगीयतिपृथग्भावंनकदाचिन्महीपते॥
यथाजलंलेनैक्यंनिक्षिप्तमुगच्छति। तथात्मासाम्यभ्येतियोगिनः परमात्मनि॥
- मार्कण्डेय पुराण
हे राजन् जिस प्रकार सोने को अग्नि में डालने से उसमें मिले हुए मलीन तत्त्व जल जाते हैं, उसी प्रकार योग की अग्नि में राग-द्वेष आदि दोष नष्ट हो जाते हैं।
जैसे एक अग्नि को दूसरी अग्नि में डालने से दोनों मिलकर एक हो जाती है, उसी प्रकार योग साधना से जीव और ब्रह्म की एकता हो जाती है।
जिस प्रकार जल में जल डाल देने से वे परस्पर अभेद होकर मिल जाते हैं, उसी प्रकार योगाभ्यास से आत्मा भी परमात्मा बन जाती है।