यथाहिकानकंखण्डमपद्रव्यवदग्निना। दग्धदोषोंद्वतीयेखण्डेन कैयंब्रजेन्नृप ॥38
नविशेषमवाप्नोतितद्वद्योगाग्निनायतिः। निर्दग्धदोषस्तेनैक्यप्रयातिब्रह्मणासह ॥39
यथाग्निरग्नौसंक्षिप्तःसमानत्वमुनव्रजेत्। तथाख्यस्तन्मयोभूतोनगृह्ये तविशेषतः ॥40
परेणब्रह्मणातद्वत्प्राप्यैक्यंदग्धकिल्विषः। योगीयातिपृथग्भावंनकदाचिन्महीपते ॥41
यथा जलंजलेनैक्यंनिक्षिप्तमुपगच्छति। तथात्मासाम्यममभ्येतियोगिनःपरमात्मनि ॥42
हे राजन् जिस प्रकार सोने को अग्नि में डालने से उसमें मिले हुए मलीनता तत्व जल जाते हैं उसी प्रकार योग की अग्नि में राग−द्वेष आदि दोष जलकर नष्ट हो जाते हैं। जैसे एक अग्नि को दूसरी अग्नि में डालने से दोनों मिलकर एक हो जाती हैं उसी प्रकार योग साधना से जीव और ब्रह्म की एकता हो जाती है। जिस प्रकार जल में जल डाल देने से वे परस्पर मुक्त होकर मिल जाते हैं। उसी प्रकार योगाभ्यास से आत्मा भी परमात्मा बन जाता है।
−मार्कण्डेय पुराण
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ब्रह्म ज्ञान सर्ग-