स्वार्थ और परमार्थ का अन्तर किसी काम का बाह्य स्वरूप देख कर नहीं वरन् कर्त्ता के दृष्टिकोण को समझ कर ही जाना जा सकता है। जो कार्य सीमित ‘स्व’ के लिए −सम्बद्ध सीमित परिवार के सीमित लाभ को ध्यान में रखकर किया जा रहा होगा−वह स्वार्थ है। जो कार्य सर्वजनीन हित की दृष्टि से किया जाय−वह परमार्थ है स्वार्थ को पाप का आधार और परमार्थ को पुण्य का कारण माना गया है। इसका कारण यह है कि स्वार्थांध व्यक्ति अपने सीमित लाभ में इतना निरत रहता है कि उसे सार्वजनिक हित की बात सूझती ही नहीं और बहुत करके निजी लाभ के लिए नीति मर्यादाओं को तोड़ने में लोकहित को चोट पहुँचाने में उसे कोई हिचक नहीं होती। इसके विपरीत परमार्थ परायण व्यक्ति सार्वजनिक हित को प्रधानता देता है और अपना निजी लाभ उसी हद तक स्वीकार करता है जितने में सामाजिक सुव्यवस्था को किसी प्रकार की हानि न होती हो। यह दृष्टिकोण का अन्तर ही है, जिसके कारण कार्य का स्तर उत्कृष्ट एवं निकृष्ट बनता है।
स्वार्थ दीखने वाले कार्य की परमार्थ जैसे पुण्य फलदायक हो सकते हैं और परमार्थ के आडम्बर में भी स्वार्थ सिद्धि की दुरभिसन्धि छिपी हो सकती है। वस्तुस्थिति क्या है इसका निर्णय कर्त्ता का दृष्टिकोण समझे बिना और किसी तरह नहीं हो सकता। स्वास्थ्य संवर्धन, शिक्षा प्राप्ति, धन उपार्जन यों देखने में स्वहित के कार्य मालूम पड़ते हैं, पर यदि वे इसलिए किये जा रहे हों कि उपलब्ध सामर्थ्य का उपयोग लोकहित के लिए किया जायगा तो फिर इन सब उपार्जनों को भी परमार्थ गिना जायगा। इसके विपरीत यदि कोई धार्मिक आडम्बर अथवा लोक सेवा का ढकोसला इसलिए रचा गया हो कि उसके कारण प्रमाणिकता की ख्याति बटोरने और उस आड़ में अधिक पैसा बटोरने का अवसर मिल जाय तो समझना चाहिए कि देखने में परमार्थ लगते हुए भी वे कार्य निकृष्ट स्तर के स्वार्थ साधन ही माने जाएंगे।
अनैतिक−अपराध वर्ग के हेय कुकर्मों को छोड़कर सामान्य कार्यों में से किसी को भला या बुरा नहीं कह सकते। परख के लिए कर्त्ता का दृष्टिकोण जानना पड़ेगा। उसी के आधार पर उस कर्म के परिणाम उत्पन्न होंगे। स्वार्थ के लिए पहलवान बनने वाला व्यक्ति कुश्ती लड़ने, दंगल जीतने, दूसरे को डराने−धमकाने अथवा अधिक उपार्जन करने जैसे कार्यों में उस बल का उपयोग करेगा। आन्तरिक संकीर्णता इससे आगे की कोई बात उसे सोचने ही न देगी। स्वार्थपरता का स्तर यदि अधिक उभरा रहा तो फिर चोरी डकैती गुण्डा−गर्दी जैसे दुष्कर्मों में उस बलिष्ठता का उपयोग होने लगेगा। इसके विपरीत यदि परमार्थ का दृष्टिकोण रख कर पहलवान बन गया है तो उस शारीरिक शक्ति से असमर्थों की सेवा−अनीति पीड़ितों की सुरक्षा−व्यायाम शिक्षा−शान्ति रक्षा की गारन्टी जैसी उपयोगी कार्यों की व्यवस्था बनती रहेगी। यही बात विद्या, धन आदि के सम्बन्ध में है। स्वार्थी विद्वान अपने ज्ञान की एक−एक बूँद बेचेगा। मुफ्त में किसी को इसका रत्ती भी लाभ न लेने देगा। बन पड़ा तो उसी चतुरता से कोई जाल खड़ा करके दूसरों को बहकाने और अपना उल्लू सीधा करने में भी हिचकेगा नहीं। विद्वान बनना अच्छा है या बुरा इसका फैसला करने से पूर्व यह देखना पड़ेगा कि विद्याध्ययन किस उद्देश्य को लेकर किया जा रहा है। प्राचीन काल में ब्राह्मण बालकों को धर्म शिक्षा प्राप्त करने के लिए धनी मानी लोग उनके खर्च के साधन जुटाते थे, क्योंकि इस ज्ञान प्राप्ति का लाभ सार्वजनिक हित साधन में होने वाला था। इसके विपरीत यदि कोई विनाशकारी साधन बनाने की शिक्षा ले रहा है तो समझना चाहिये कि अध्ययन भी दुष्कर्म के समान है।
धन उपार्जन को भला कहा जा सकता है न बुरा। यदि वह पैसा नशेबाजी, माँस व्यवसाय जैसे विनाशकारी साधन खड़े करने में लगेगा तो वह बुरा है और यदि उसी से लोकहित के श्रेष्ठ साधन खड़े किये जाने हैं, तो वह धन उपार्जन भी पुण्य है। यहाँ यही ध्यान रखने योग्य है कि कर्त्ता का दृष्टिकोण आरम्भ में ही विकसित हो जाता है−उपलब्धियों का प्रयोग तो उससे बहुत पीछे की प्रतिक्रिया मात्र है।
दृष्टिकोण जितना संकुचित होगा, उपार्जन का उपयोग उतने ही तुच्छ प्रयोजनों के लिए किया जायगा। स्वार्थी मनुष्य जो पैसा कमाता है उसे अपनी विलासिता में तथा परिवार के लोगों को ही अधिक सम्पन्न बनाने में खर्च करता है। समाज में कितनी अशिक्षा, बीमारी, बेकारी, गरीबी आदि कुप्रथाओं को कम करने में खर्च करते उससे बन नहीं पड़ेगा। किसी दबाव से, यश लिप्सा से किसी प्रकार अनखते हुए कुछ दे दिया जाय तो बात दूसरी है इसके विपरीत यदि परमार्थ प्रयोजन की दृष्टि रख कर धन कमाया गया है तो उसमें से नितान्त आवश्यक भाग परिवार निर्वाह के लिए रख कर स्वेच्छापूर्वक उस ईश्वरीय अमानत को सत्प्रयोजनों के लिए वापस लौटा देने में उत्साह उमगेगा।
परमार्थी मनुष्य सार्वजनिक हित के लिए स्वयं घाटा उठाने और कष्ट सहने को तैयार रहेगा। इसके विपरीत स्वार्थी को अपना स्वार्थ सर्वोपरि लगेगा और लोकहित की असीम क्षति होने में भी उसे कोई झिझक अनुभव न होगी। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए स्वार्थ की निन्दा और परमार्थ की प्रशंसा की जाती है।
स्वार्थी व्यक्ति अपने लिए ही सब कुछ सोचता और चाहता है। स्त्री बच्चों को ही वह स्वार्थ साधन के निमित्त देखता है और इसी से उनका भरण−पोषण करता है। पत्नी को शारीरिक सेवाओं का− संतोष से पिण्डदान अथवा कमाई का लाभ मिलने की आशा रहती है। बेटे को इसी लिए प्यार किया जाता है कि उसके विवाह में दहेज मिलेगा और बड़ा होने पर कमाई खिलायेगा। बेटी से घाटा दीखता है इसलिए हेय लगती है। स्त्री भी यदि कुरूप, रुग्ण, बन्ध्या आदि होने के कारण पसन्द न आई तो उसका त्याग करने में भी कोई संकोच न होगा। ऐसे लोग बेटी बेचने, बहिन का धन अपहरण करने जैसे कुकृत्यों में भी हिचकते नहीं। ऐसे ही लोग जीभ के स्वाद के लिए पशु−पक्षियों का नृशंस वध करते हुए खिन्न नहीं होते। अनैतिक आचरण एवं अपराध वर्ग के कुकर्म और कुछ नहीं मात्र स्वार्थपरता का उभरा हुआ रूप हैं।
संसार से महामानवों में से प्रत्येक परमार्थी रहा है उनने लोकहित को प्रधानता दी है। उसके लिए अपनी शक्तियों का अधिकाधिक भाग लगाया खपाया है। व्यक्तिगत सुख सुविधाओं को तिलांजलि देकर स्वयं कष्टसाध्य जीवन जीते हुए जिनने परमार्थ−प्रयोजनों में अपने आपको जिस मात्रा में संलग्न रखा है वे उतने ही अंशों में महामानव माने जाते रहे हैं और उनकी विरुदावली इतिहास के पृष्ठों पर अंकित की जाती रही है। साधु−ब्राह्मणों को पृथ्वी के देवता इसीलिए कहा जाता है कि वे निजी स्वार्थों को पैरों तले कुचल कर लोकहित की पुण्य प्रक्रिया अपनाये रहने का व्रत धारण करते हैं। देवमानवों की सदा से यही नीति रही है।
भारतीय धर्म की आश्रय, व्यवस्था में ब्रह्मचर्य और गृहस्थ निजी कार्यों के लिए और वानप्रस्थ, संन्यास परमार्थ प्रयोजनों के लिए है। आधा जीवन स्वार्थ के लिए, आधा परमार्थ के लिए विभक्त है निजी भाग स्वार्थ का है, वह भी संकीर्ण परिधि का नहीं है। विद्याध्ययन, माता−पिता की सेवा, लोकोपयोगी उपार्जन, गृहस्थ का परिष्कृत उद्यान के रूप में निर्माण इतने उत्तरदायित्वों से बँधा जीवन का पूर्वार्ध भी लोकोपयोगी स्वार्थ है उसमें भी उस निकृष्ट संकीर्णता के लिए कोई स्थान नहीं है जो लोभ, मोह के बन्धनों से बँधा होने के कारण भ्रष्ट परंपराओं को सृजन करता है।
स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से जितना आवश्यक है उतनी ही शरीर को सुविधा एवं सुसज्जा प्रदान की जाय। विलासिता की दृष्टि से शरीर पर किया गया खर्च भी स्वार्थ है। परिवार में सभी को सुयोग्य, सुसंस्कृत बनाने वाला वातावरण एवं प्रशिक्षण दिया है, पर उन्हें अमीर अकर्मण्य या विलासी बनने के लिए दौलत का अम्बार न छोड़ा जाय। आभूषणों की सज्जा में लगा हुआ धन यदि लोकहित के उपयोगी कामों में लग जाय तो क्या बुरा है?
उपभोग की प्रसन्नता तुच्छ स्तर के लोगों को होती है। उदात्त मनुष्य अपने साधनों को लोकहित में प्रयुक्त करते हैं। और निजी उपभोग की अपेक्षा परमार्थ प्रयोजनों में उनका सदुपयोग होते देख कर अधिक प्रसन्न एवं सन्तुष्ट होते हैं। व्यक्ति का गौरव इसी में है कि उसका दृष्टिकोण एवं क्रिया−कलाप अधिकाधिक परमार्थ परायण बने। समाज का हित इसी में है कि उसके सदस्यों में से अधिकाँश को परमार्थ रत होने का सम्मान प्राप्त हो। किसी देश, धर्म, समाज या संस्कृति की गरिमा इसी आधार पर आँकी जा सकती है कि उसके सदस्यों में परमार्थ परायणता के तत्व कितनी मात्रा में हैं और वे कितने उत्साहपूर्वक क्रियान्वित होते हैं।
समाजवाद और साम्यवाद के सिद्धान्तों में व्यक्तिवादी स्वार्थपरता की भर्त्सना की गई है और उस पर कठोर अंकुश लगाने की व्यवस्था रखी गई है। अध्यात्मवाद के सिद्धान्त भी जहाँ तक, भौतिक उपयोग से संबंध है, समाजवाद स्तर के ही हैं। जमाखोरी को समाज में पाप माना गया है और परिग्रह को अध्यात्म सिद्धान्तों के अनुसार निन्दनीय ठहराया गया है।
सौ हाथों से हम कमायें अवश्य, पर हजार हाथों से उसे बाँट देने का सत्साहस भी एकत्रित करें। दूसरों का दुःख बँटा लेने की और अपना सुख दूसरों में बाँट देने की प्रवृत्ति जिसमें जितनी प्रखर है उसे उसी स्तर का सुविकसित अध्यात्मवादी कहा जाना चाहिए। उपासना यदि उदारता से विकसित हो सके तो ही यह समझा जाना चाहिए कि रोपा गया पौधा बढ़ा, फला−फूला और अपने अस्तित्व को सार्थक बना सकने में समर्थ हुआ।