प्रतिकूलताएं प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में आती है। इस जीवन-समर में कोई भी व्यक्ति सदा अपने साथ अनुकूलताएँ बनी रहने का वरदान लेकर नहीं आया। बच्चा जब जन्म लेता है, माँ के गर्भ से बाहर आते ही उसे अनगिनत अवरोधों का सामना करना पड़ता है। जो सम्बन्ध गर्भ-रज्जु के माध्यम से विगत नौ माह से माँ के साथ बना हुआ था, वह एकाएक तोड़ दिया जाता है। गर्भ रज्जु के कटते ही बच्चे में अपने बलबूते जीवन जीने का, संघर्ष करने की स्थिति आ जाती है। वह छटपटाता है, चिल्लाता है वह इसी क्रिया में उसके फेफड़े खुल जाते हैं, रक्त परिवहन सारे शरीर में सुनियोजित ढंग से होने लगता है। प्रकृति का यह पाठ बच्चे के लिए है कि, उसे स्वतन्त्र होकर कैसे जीना चाहिए? यह न कोई दण्ड है, न कोई कर्म का भाग्य-विधान।
इस धरती पर आने वाले हर व्यक्ति को एक नहीं अनेकानेक अवरोधों से गुजरना पड़ता है। पर यहां की यह एक सुनियोजित व्यवस्था है और यह हर किसी के लिये हैं, कोई भी अपवाद नहीं। व्याधियां, मानसिक संताप, रोग, शोक, आर्थिक हानि, रिश्तेदारों का बिछोह, विभिन्न रूपों में असफलताएँ मनुष्य की परीक्षा लेने के लिए आने वाले अवरोध मात्र हैं। इन बाधाओं को हँसकर पार कर लेना, दुःखों-कष्टों को तप बना कर जीना ही मनुष्य के लिये उचित है। जो ऐसा करता है, वह जीवन समर को हँसते-हँसते पार कर जाता है। जो रोते कलपते, देवी, देवताओं को दोष देते, अपने भाग्य को दोष देते, किसी तरह घिसट-घिसट कर अपनी जीवन-यात्रा पूरी करता है, वह न केवल एक असफल व्यक्ति सिद्ध होता है, वरन् वह मनोरोगों-मनोविकारों से ग्रस्त होकर अल्पकाल में ही इस सुरदुर्लभ मानव तन को गँवा बैठता है। कई व्यक्ति तो निराश होकर आत्महत्या एक कर बैठते हैं। यह मानवीय काया रूपी देवालय की अवमानना है एवं उस स्रष्टा के अस्तित्व को नकारना भी।
अच्छा हो हम इस जीवन को एक कलाकार की तरह जियें। हँसती-हँसती, हल्की-फुल्की जिन्दगी जीते हुए औरों को अधिकाधिक सुख बांटते चलें। दुःखों, कष्टों को तप मानकर चलें और अपना एक सौभाग्य भी। यही जीवन जीने की सही रीति-नीति हैं।