कर्मकांड प्रदीप

पुंसवन संस्कार

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संस्कार प्रयोजन- गर्भ सुनिश्चित हो जाने पर या तीन माह पूरे हो जाने तक पुंसवन संस्कार कर देना चाहिए। विलम्ब से भी किया जाय, तो दोष नहीं, किन्तु समय पर कर देने का लाभ विशेष होता है। तीसरे माह से गर्भ में आकार और संस्कार दोनों अपना स्वरूप पकड़ने लगते हैं। अस्तु, उनके लिए आध्यात्मिक उपचार समय पर ही कर दिया जाना चाहिए। इस संस्कार के नीचे लिखे प्रयोजनों को ध्यान में रखा जाए। 

गर्भ का महत्त्व समझें, वह विकासशील शिशु, माता- पिता, कुल- परिवार तथा समाज के लिए विडम्बना न बने, सौभाग्य और गौरव का कारण  बने। गर्भस्थ शिशु के शारीरिक, बौद्धिक तथा भावनात्मक विकास के लिए क्या किया जाना चाहिए, इन बातों को समझा- समझाया जाए। 

गर्भिणी के लिए अनुकूल वातावरण खान- पान, आचार- विचार आदि का निर्धारण किया जाए। गर्भ के माध्यम से अवतरित होने वाले जीव के पहले वाले कुसंस्कारों के निवारण तथा सुसंस्कारों के विकास के लिए, नये सुसंस्कारों की स्थापना के लिए अपने सङ्कल्प, पुरुषार्थ एवं देव- अनुग्रह के संयोग का प्रयास किया जाए। 

विशेष व्यवस्था- 
(*) औषधि अवघ्राण के लिए वट वृक्ष की जटाओं के मुलायम सिरों का छोटा टुकड़ा, गिलोय, पीपल की कोंपल (मुलायम पत्ते) लाकर रखे जाएँ। सबका थोड़ा- थोड़ा अंश पानी के साथ सिल पर पीसकर एक कटोरी में उसका घोल तैयार रखा जाए। 
(*) साबूदाने या चावल की खीर तैयार रखी जाए। जहाँ तक सम्भव हो, इसके लिए गाय का दूध प्रयोग करें। खीर गाढ़ी हो। 
तैयार हो जाने पर निर्धारित क्रम में मङ्गलाचरण, षट्कर्म, सङ्कल्प, यज्ञोपवीत परिवर्तन, कलावा- तिलक एवं रक्षाविधान तक का यज्ञीय क्रम पूरा करके नीचे लिखे क्रम से पुंसवन संस्कार के विशेष कर्मकाण्ड कराएँ। 

॥ औषधि अवघ्राण॥ 
वट वृक्ष- विशालता और दृढ़ता का प्रतीक है। धीरे- धीरे बढ़ना धैर्य का सूचक है। इसकी जटाएँ भी जड़ और तने बन जाती हैं, यह विकास- विस्तार के साथ पुष्टि की व्यवस्था है, वृद्धावस्था को युवावस्था में बदलने का प्रयास है। 

गिलोय
गिलोय- में ऊपर चढ़ने की प्रवृत्ति है। यह हानिकारक कीटाणुओं की नाशक है, शरीर में रोगाणुओं, अन्तःकरण के कुविचारों- दुर्भावों, परिवार और समाज में व्याप्त दुष्टता- मूढ़ता आदि के निवारण की प्रेरणा देती है। शरीर को पुष्ट कर, प्राण ऊर्जा की अभिवृद्धि कर सत्प्रवृत्तियों  के पोषण की सामर्थ्य पैदा करती है। 
पीपल- देव योनि का वृक्ष माना जाता है। देवत्व के परमार्थ के संस्कार इसमें सन्निहित हैं। उनका वरण, धारण और विकास किया जाए।

सूँघने और पान करने का तात्पर्य श्रेष्ठ संस्कारों का वरण करने, उन्हें आत्मसात् करने की व्यवस्था बनाना है। ऐसे आहार तथा दिनचर्या का निर्धारण किया जाए। श्रेष्ठ ग्रंथों, महापुरुषों की जीवनी आदि के अध्ययन, श्रवण, चिन्तन द्वारा गर्भिणी अपने में, अपने गर्भ में श्रेष्ठ संस्कार पहुँचाए। इस कार्य में परिजन उसका सहयोग करें। 

क्रिया भावना- ओषधि की कटोरी गर्भिणी के हाथ में दी जाए। वह दोनों हाथों में उसे पकड़े। मन्त्र बोला जाए, गर्भिणी नासिका के पास ओषधि  को ले जाकर धीरे- धीरे श्वास के साथ उसकी गन्ध धारण करे। भावना की जाए कि ओषधियों के श्रेष्ठ गुण और संस्कार खींचे जा रहे हैं। वेद मन्त्रों तथा दिव्य वातावरण द्वारा इस उद्देश्य की पूर्ति में सहयोग मिल रहा है। गर्भिणी सूत्र दुहरायें- 
(*) ॐ दिव्यचेतनां स्वात्मीयां करोमि। 
(हम दिव्य चेतना को आत्मसात् कर रहे हैं।) 
(*) ॐ भूयो भूयो विधास्यामि।

(यह क्रम आगे भी बनायें रखेंगे।) गर्भिणी औषधि को निम्न मन्त्र के साथ सूँघे।

ॐ अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्त्तताग्रे। 
तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तन्मर्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे॥ -३१.१७ 
  
॥ गर्भ पूजन॥ 
क्रिया और भावना-

गर्भ- पूजन के लिए गर्भिणी के घर परिवार के सभी वयस्क परिजनों के हाथ में अक्षत, पुष्प आदि दिये जाएँ। मन्त्र बोला जाए। मन्त्र समाप्ति पर एक तश्तरी में एकत्रित करके गर्भिणी को दिया जाए। वह उसे पेट से स्पर्श करके रख दे। भावना की जाए, गर्भस्थ शिशु को सद्भाव और देव- अनुग्रह का लाभ देने के लिए पूजन किया जा रहा है। गर्भिणी उसे स्वीकार करके गर्भ को वह लाभ पहुँचाने में सहयोग कर रही है।
सूत्र दुहरायें- 
ॐ सुसंस्काराय यत्नं करिष्ये। (नवागन्तुक को सुसंस्कृत और समुन्नत बनायेंगे।) 
मन्त्र- 
ॐ सुपर्णोसि गरुत्माँस्त्रिवृत्ते शिरो गायत्रं चक्षुर्बृह द्रथन्तरे पक्षौ। स्तोमऽ आत्मा छन्दा* स्यङ्गानि यजू*षि नाम। 
साम ते तनूर्वामदेव्यं यज्ञायज्ञियं पुच्छं धिष्ण्याः शफाः। सुपर्णोसि गरुत्मान् दिवं गच्छ स्वःपत॥ -१२.४ 
  
॥ आश्वास्तना॥ 
क्रिया और भावना-

गर्भिणी अपना दाहिना हाथ पेट पर रखे। पति सहित परिवार के सभी परिजन अपना हाथ गर्भिणी की तरफ आश्वासन की मुद्रा में उठाएँ। मन्त्र  पाठ तक वही स्थिति रहे। भावना की जाए कि गर्भिणी गर्भस्थ शिशु तथा दैवी सत्ता को आश्वस्त कर रही है। सभी परिजन उसके इस प्रयास में भरपूर सहयोग देने की शपथ ले रहे हैं। इस शुभ सङ्कल्प में दैवी शक्तियाँ सहयोग दे रही हैं। इस श्रेष्ठ सङ्कल्प- पूर्ति की क्षमता दे रही हैं।

परिवार के सभी सदस्य एवं पति सूत्र दुहरायें- 
(क) ॐ स्वस्थां प्रसन्नां कर्तुं यतिष्ये। 
(गर्भिणी को स्वस्थ और प्रसन्न रखने के लिए प्रयत्न करेंगे।) 
(ख) ॐ मनोमालिन्यं नो जनयिष्यामि। 
(परिवार में कलह और मनोमालिन्य न उभरने देंगे।) 
(ग) ॐ स्वाचरणं 
अनुकरणीयं विधास्यामि।
 
(अपना आचरण- व्यवहार अनुकरणीय बनायेंगे।) परिवार के सभी सदस्य निम्न मन्त्र के साथ गर्भिणी के सिर पर हाथ रखें।

ॐ यत्ते सुशीमे हृदये 
हितमन्तः प्रजापतौ। 
मन्येऽहं मां तद्विद्वांसमाहं पौत्रमघन्नियाम्॥ -- आश्व०गृ०सू० १.१३

आश्वास्तना के बाद अग्नि स्थापन से लेकर गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी करने का क्रम चलाएँ। उसके बाद विशेष आहुतियाँ प्रदान करें। 

॥ विशेष आहुति॥
 
क्रिया और भावना- गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ हो जाने के बाद खीर की पाँच आहुतियाँ विशेष मन्त्र से की जाएँ। 
भावना की जाय कि दिव्य मन्त्र- शक्ति के संयोग से गर्भस्थ शिशु और सभी परिजनों के लिए अभीष्ट मङ्गलमय वातावरण बन रहा है।

ॐ धातादधातु दाशुषे प्राचीं जीवातुमक्षिताम्। 
वयं देवस्य धीमहि सुमतिं 
वाजिनीवतः स्वाहा॥ 
इदं धात्रे इदं न मम।- आश्व०गृ०सू० १.१४, अथर्ववेद ७.१८.२ 
  
॥ चरु प्रदान॥ 
क्रिया और भावना- विशेष आहुतियों के बाद शेष बची खीर प्रसाद रूप में एक कटोरी में गर्भिणी को दी जाए। वह उसे लेकर मस्तक से लगाकर रख ले। सारा कृत्य पूरा होने पर पहले उसी का सेवन करे। भावना करे कि यह यज्ञ का प्रसाद दिव्य शक्तिसम्पन्न है। इसके प्रभाव से देवात्माएँ पैदा होती हैं, ऐसे संयोग की कामना की जा रही है।

ॐ पयः पृथिव्यां पय ऽ ओषधीषु पयो 
  दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्॥- १८.३६

॥ आशीर्वचन॥ 
अब स्विष्टकृत् होम से लेकर विसर्जन तक के कृत्य पूरे करें। विसर्जन के पूर्व आशीर्वाद दिया जाए। आचार्य गर्भिणी को शुभ मन्त्र बोलते हुए फल- फूल आदि दें। गर्भिणी साड़ी के आँचल में ले। अन्य बुजुर्ग भी आशीर्वाद दें। सभी लोग पुष्प वृष्टि करें। गर्भिणी एवं उसका पति बड़ों के चरण स्पर्श करें, सबको नमस्कार करें। विसर्जन और जयघोष करके आयोजन समाप्त किया जाए।
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