एक सद्गृहस्थ था। संयम से रहता था। परिवार को सुसंस्कारी बनाने में निरत रहता। नीतिपूर्वक आजीविका कमाता। बचा हुआ समय और धन परमार्थ में नियोजित किये रहता। वह तपोवन में बसा तो नहीं, पर घर में ही तपोवन बसा दिया।
देवता इस धर्मात्मा विरक्त गृहस्थ की योग साधना से बहुत प्रसन्न हुए। इन्द्र उसके सम्मुख प्रकट हुए और घर माँगने के लिए कहा।
क्या माँगता ! जब असन्तोष ही नहीं, तो अभाव किस बात का ? हाथ पसारने में हेठी भी तो होती है। स्वाभिमान गँवा कर ही किसी से कुछ पाया जा सकता है। सो उसने ऐसा उपाय खोजा, जिसमें ऋण भार भी न लदे और देवता बुरा भी न मानें।
डसने वर माँगा। उसकी छाया जहाँ भी पड़े , वहाँ कल्याण बरसने लगे। वरदान मिल गया, परन्तु अचंभित देवता ने पूछा- हाथ रखने पर कल्याण होने पर तो आनन्द भी आता, प्रशंसा भी होती और प्रत्युपकार की संभावना रहती। छाया से कल्याण होने पर इन लाभों से वंचित रहना पड़ेगा। फिर ऐसा विचित्र वर क्यों माँगा ?
सद्गृहस्थ ने कहा- देव ! सामने वाले का कल्याण होने पर तो अपना अहंकार पनपेगा और साधना में विघ्न डालेगा। छाया किस पर पड़ी, कौन कितना लाभान्वित हुआ, इसका पता न चलना ही मेरे जैसे विनसों के लिए श्रेयस्कर है।
साधना का यही स्वरूप वरेण्य है। यह क्रमिक प्रगति के पथ पर चलते-चलते व्यक्ति को महामानव बना देता है।