था जिसे दर्द, वह दीप जलता रह, दर्द जिसको न था, दीप वह बुझ गया। वह जला है, जहाँ स्नेह रिसता रहा, बुझ गया वह, जहाँ स्नेह ही चुक गया।
था जिसे दर्द यह ‘तुम मिटाकर रहूँ , स्नेह के स्रोत को वह उबलता रहा। देह अपनी जलाता रहा रात-दिन-और तम के इरादे निगलता रहा
बस उसी दीप की ज्योति को देखकर, तम उसी के चरण के तले झुक गया। दर्द जिसको न था, स्नेह से हीन वह-दीप बुझकर तिमिर का सगा हो गया।
और जलते हुए दीपकों को, वही-लक्ष्य से पूर्व ही तो दगा दे गया। वह जलन को नहीं सह सका अब अधिक, और जलते हुए एक दम रुक गया।
आज चारों तरफ है अंधेरे बहुत, दीप का दर्द लेकर, चलो ! हम चलें। है मनुजता कि आशा लगाये हुए, बीच में बुझ, न विश्वास उसका छलें।
मुक्ति तम से मनुज को वही दे सका-स्नेह-रिसते हुए, प्राण जो फूँक गया।
-मंगल विजय
सम्पादक- भगवती देवी शर्मा, प्रकाशक व मुद्रक-मृत्युञ्जय शर्मा, अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा द्वारा जन-जागरण प्रेस, मथुरा 281003 में मुद्रित।
*समाप्त*