अपनों से अपनी बात

September 1976

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साधना स्वर्ण-जयन्ती वर्ष की उपलब्धियों पर जितनी गहराई से विचार किया जाता है उतनी ही उसकी गरिमा स्पष्ट होती और निखरती चली जाती है। लगता है कि इस अवसर पर उत्पन्न हुआ उत्साह अति महत्वपूर्ण सृजनात्मक प्रयोजनों में लगा है और उसका समस्त विश्व को प्रभावित करने वाला सत्परिणाम उभर कर ऊपर आया है।

भौतिक पुरुषार्थों की तरह साधना भी आत्मिक प्रगति के लिए एक महत्वपूर्ण आधार है अधीर और अस्थिर मन हथेली पर सरसों जमाने के लिए आतुर रहता है और तुर्त-फुर्त मनोकामनाएं पूरी होते न देखकर निराश हो बैठता है। यदि इस दोष का परिमार्जन हो सके-श्रद्धा की परतें अन्तःकरण की गहराई तक प्रवेश पा सकें तो प्रतीत होगा कि किसी भी लाभदायक व्यवसाय की तुलना में साधना प्रयोजनों में लगने वाली शक्ति कम नहीं अधिक ही सत्परिणाम उत्पन्न करती है। अधीरता और अनास्था के वातावरण में स्वर्ण-जयन्ती साधन शृंखला ने नये उत्साह और नये विश्वास का संचार किया है। अपेक्षा की जानी चाहिए कि इससे आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता की शक्तियाँ सुदृढ़ होंगी और उनके पल्लवित होने एवं फल-फूलों से लदने का सुखद अवसर प्राप्त होगा।

भौतिक सम्पत्ति द्वारा मिलने वाले सुविधा साधनों से सभी परिचित हैं अस्तु उसके उपार्जन में सहज ही सबकी रुचि रहती है कदाचित ऐसा ही परिचय आत्मिक विभूतियों से भी रहा होता और उनके द्वारा मिलने वाले सत्परिणामों को समझा गया होता तो प्रतीत होता कि इस प्रयोजन के लिए किया गया श्रम कितना अधिक उपयोगी है। इस प्रयास से व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास की जो पृष्ठभूमि बनती है, उसे भूतकालीन सच्चे आध्यात्मवादियों की उपलब्धियों का पर्यवेक्षण करने वाला सहज ही समझ सकता है। अनादिकाल से चले आ रहे प्रकृति के मौलिक सिद्धान्त अनन्तकाल तक चलते रहते हैं। साधना और सिद्धि का समन्वय भी एक ऐसा ही अकाट्य सिद्धान्त है। उसकी सच्चाई समझने का साधन-शृंखला के सदस्यों को अवसर मिलेगा, ऐसी आशा करने में कोई अतिवाद नहीं है।

साधन शृंखला के सदस्यों की सीमित संख्या सोची गई थी, पर पूरी हो गई और अब नये सदस्यों का पंजीकरण बन्द कर दिया गया है। बसन्त पर्व से लेकर गायत्री जयन्ती तक की अवधि के चार महीने साधकों के नामाँकन और उनके मार्ग-दर्शन एवं शंका समाधान के लिए नियत थे। वह समय पूरा होते-होते सभी साधनों में स्थिरता आ गई है और वे अपनी साधन प्रक्रिया में निष्ठापूर्वक संलग्न हो गये हैं। नये अनुसाधक भी बन रहे हैं, पर उनका उत्तरदायित्व एवं मार्गदर्शन पंजीकृत साधकों के ऊपर छोड़ दिया गया है। इस प्रकार दीपक से दीपक जलाने का यह क्रम चिरकाल तक चलता रहेगा। यों एक वर्ष का संकल्पित अनुष्ठान तो आगामी बसन्त पंचमी को ही पूर्ण हो जायगा। आँखों से यह प्रयास किसी प्रत्यक्ष आयोजन उत्सव के रूप में नहीं देखा जा सकता तो भी उसकी परोक्ष सम्भावनाओं को किसी विशाल प्रदर्शन की तुलना में कम नहीं अधिक ही माना जाना चाहिए।

ऊपर की पंक्तियों में साधन शृंखला के प्रथम चरण की चर्चा हुई जिसे अब तक एक प्रकार से पूरा हुआ ही समझा जा सकता है। दूसरा चरण यह है कि साधकों, अनुसाधकों तथा उपासना क्षेत्र में उत्साह रखने वाले परिजनों से प्रत्यक्ष सम्पर्क की व्यवस्था करना और यह देखना कि उनकी प्रगति किस क्रम से चल रही है। उन्हें किसी अवरोध का सामना तो नहीं करना पड़ रहा है, वे कहीं भटक तो नहीं रहे हैं। यह बातें यों पत्र-व्यवहार से भी किसी कदर हल हो सकती हैं, पर अधिक उपयुक्त यही है कि परस्पर विचार-विनियम एवं प्रत्यक्ष सम्पर्क से वस्तुस्थिति को समझा जाय और स्थिति के अनुरूप समाधान प्रस्तुत किया जाय। अगले चार महीने इसी प्रयोजन के लिए नियत निर्धारित किये गये है।

व्यवस्था यह की गई है कि जहाँ भी साधना-परक उत्साह है वहां अपने प्रतिनिधि भेजे जायं। उनका कार्यक्रम एक केन्द्र पर दो दिन का हो। अच्छा तो यह है कि सभी साधक एक जगह रहने और पूरे दो दिन की सामूहिक साधना प्रक्रिया अपनायें। जहाँ ऐसा न हो सके वहां इतना तो होना ही चाहिए-प्रातः 6 से 9 तक सभी साधक-अनुसाधक तथा दूसरे आस्थावान व्यक्ति एकत्रित होकर सामूहिक जप एवं हवन करें और पहुँचे हुए प्रतिनिधि के साथ विचार-विनियम करते हुए अपनी साधना को अधिक प्रखर बनाने का प्रयत्न करें।

प्रातः के तीन घंटे विशुद्ध रूप से साधकों के सामूहिक सम्मिलन के लिए सुरक्षित रहेंगे। तीसरे प्रहर भेजे गये प्रतिनिधि लोगों के घरों पर उनसे सम्पर्क के लिए जाने अथवा सबको एकत्रित करके व्यक्तिगत परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त करने एवं भावनात्मक नव-निर्माण की पुण्य प्रक्रिया को अग्रगामी बनाने के सन्दर्भ में विचार-विनिमय का क्रम चलायेंगे। इसे विचार गोष्ठी अथवा सम्पर्क मिलन कहा जा सकता है। रात्रि को सार्वजनिक आयोजन किया जायगा। जिसमें अध्यात्म तत्वज्ञान के स्वरूप क्रियान्वयन प्रयोग एवं परिणामों के सम्बन्ध में प्रकाश डाला जायगा। तीसरे प्रहर का जन-सम्पर्क और रात्रि का सार्वजनिक आयोजन किस स्थान पर रखा जाय और उसका समय क्या हो यह निर्धारण करना स्थानीय सुविधा देखते हुए स्थानीय लोगों का ही काम है।

प्रयत्न यह किया जा रहा है कि जहाँ भी साधना प्रयोजनों में समुचित उत्साह है और जहाँ कई निष्ठावान साधक हैं उन सभी स्थानों पर प्रतिनिधि भेजे जायं और वहाँ उपरोक्त प्रकार के दो दिवसीय आयोजन सम्पन्न हों। फिर भी प्रतिनिधियों की कमी और यातायात की कठिनाइयों को देखते हुए कुछ स्थान छूट भी सकते हैं। प्रयत्न यही रहेगा कि यथासम्भव अधिकाधिक स्थानों में इस प्रकार के छोटे सम्मेलन आयोजन सम्भव हो सके।

प्रतिनिधि अपने प्रवास एवं कार्यक्रम का एक निर्धारित सर्किल बनाकर निकलेंगे और एक के बाद दूसरे सम्मेलन का प्रबन्ध करते हुए प्रायः दो महीने में वापिस लौटेंगे। वे एक जगह प्रायः दो दिन रह सकेंगे। आधा दिन यात्रा में लग जाया करेगा। एक जगह का कार्यक्रम पूरा करके यहाँ से प्रातःकाल चल पड़ना और शाम तक नई जगह जा पहुँचना। रात्रि को उस नये स्थान के कार्यकर्त्ताओं से मिलना तथा निर्धारित कार्य-प्रक्रिया से परिचित करना उनका प्रथम प्रयास होगा। साधक उस दिन एक स्थान पर एकत्रित होंगे, परस्पर परिचय प्राप्त करेंगे और आयोजन की पूर्व निर्धारित कार्य-पद्धति के सम्बन्ध में परामर्श करेंगे। बस उस रात्रि को इतना ही कार्यक्रम रहेगा। प्रतिनिधि पूरे दो दिन ठहरेंगे और प्रातः साधक सम्मेलन-तीसरे प्रहर के सम्पर्क विचार-विनिमय एवं रात्रि का सार्वजनिक आयोजन सम्पन्न करेंगे। यही कार्यक्रम सभी स्थानों पर रहेगा।

इन्हीं दिनों उन स्थानों की सूची तैयार की जा रही है और यात्रा चक्र बनाये जा रहे हैं जहाँ होते हुए प्रतिनिधिगण अपने-अपने प्रवास कम को पूरा करते हुए आगे बढ़ते रह सकेंगे। सम्भवतः 15 सितम्बर से यह क्रम चल पड़ेगा और 15 जनवरी तक यह क्रम जारी रहेगा। चार महीनों की अवधि में कितने सम्मेलन सम्भव हैं, कितने प्रतिनिधि भेजे जाने योग्य हैं, किन स्थानों पर इस प्रयास के ठीक तरह सम्पन्न हो सकने की सम्भावना है-यह रूप-रेखा अगस्त के महीने में बन जायगी। जिन्हें अपने यहाँ इस प्रकार की व्यवस्था करनी अभीष्ट है, वे पत्र द्वारा सूचित करेंगे अन्यथा केन्द्र की ओर से ही उन्हें सूचना दे दी जायेगी कि किन तिथियों में उनके यहाँ आयोजन रखा गया है इस सूचना आदान-प्रदान के आधार पर इन छोटे आयोजनों की व्यवस्था हर जगह बन जायगी और वह पूरी तरह सफल होगी, ऐसी सम्भावना है।

इन छोटे आयोजनों के लिए मानसिक उत्साह एवं परस्पर मिल-जुलकर एकीकरण एवं आदान-प्रदान की सुखद सम्भावना साकार हो सके, ऐसी तैयारी की जानी चाहिए। प्रत्यक्षतः यह छोटे आयोजन हैं। दो दिन के सभा सम्मेलन का प्रचार करने में ऐलान, पर्चे, पोस्टर, निमन्त्रण, सम्पर्क जैसे प्रयास तो करने ही होंगे अन्यथा जनता को पता ही नहीं चलेगा और इकट्ठे होने की बात बन ही नहीं सकेगी। सभा स्थल, मंच, पंचाल, बिछावन, रोशनी, लाउडस्पीकर जैसे प्रबन्ध भी करने ही होंगे। आरम्भ में थोड़ी संगीत व्यवस्था बनाने के लिए गायकों को अपने विषय के गाने देने होंगे और वाद्य यंत्रों को बजाने वाले ढूंढ़ने पड़ेंगे। जिन्हें आयोजनों का अभ्यास है वे इस प्रकार का प्रबन्ध आसानी से कर लेते हैं तो भी किफायत बरतते-बरतते कुछ पैसा तो खर्च हो ही जाता है। सौ रुपये तो बात की बात में उठ जाते हैं। प्रातःकाल में साधक सम्मेलन में दो दिन का हवन तो महंगा नहीं पड़ता, पर साधन तो उसके लिए भी जुटाने ही पड़ते हैं।

आगामी बसन्त पर्व 24 जनवरी सन् 77 चन्द्रवार का हैं उस दिन साधना मंडली द्वारा अपने-अपने स्थान पर इस युग साधना की पूर्णाहुति अधिक उत्साहपूर्वक यथासम्भव बड़े रूप में सम्पन्न की जाय। यों बसन्त पर्व अपने परिवार का सबसे बड़ा पर्व है और उसे हम लोग पूरे उत्साह के साथ मनाते एवं नये-नये संकल्प लेकर आत्मिक प्रगति के मार्ग पर क्रमशः भाव भरे कदम उठाते रहे हैं। इस बार उसमें स्वर्ण-जयन्ती की विशेषता जुड़ गई है। इसलिए उसके लिए उत्साह भी तदनुरूप ही प्रदर्शित किया जाना चाहिए। सन् 77 का बसन्त पर्व कहाँ किस प्रकार किस तैयारी के साथ मनाया जाय ? इसकी तैयारी अभी से की जानी चाहिए। वक्ता तपोभूमि से सर्वत्र नहीं भेजे जा सकेंगे, इसलिए उनकी पूर्ति अपने-अपने क्षेत्रों से ही करनी पड़ेगी। गायन और प्रवचन किसे किस विषय पर करना है इसके लिए सामग्री समय से पहले ही दी जा सके तो फिर अपने मंच से अप्रासंगिक बकवास चल पड़ने की आशंका नहीं रह जायगी। आरम्भ से ही यह प्रसंग ध्यान में रखा जाय तो बसन्त पर्व आयोजन के सुनियोजित और सुसम्बद्ध रहने में किसी प्रकार की कठिनाई न रहेगी।

यह साधना प्रक्रिया और सम्मेलन की व्यवस्था हुई। आगे की बात आत्म निर्माण और समाज निर्माण के मूल प्रसंग की है जिसके लिए अपने मिशन को बनाया और चलाया गया है। अपने व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी विकास करके ही हम अध्यात्म परायणता को सार्थक सिद्ध कर सकते हैं। अपने गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार करने के साथ आत्मिक प्रगति के सारे सूत्र जुड़े हुए हैं उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व ही धर्म धारणा का एकमात्र प्रमाण है। चरित्रनिष्ठा और समाज-निष्ठा किसमें कितनी परिपक्व हुई इसी कसौटी पर कस के किसी की आत्मबल-वृद्धि एवं आत्मिक प्रगति का परिचय प्राप्त किया जा सकता है। आस्तिकवाद का लक्ष्य यह है कि व्यक्ति अधिकाधिक प्रामाणिक सज्जन, कर्त्तव्य परायण एवं लोकसेवी बनता चला जाय और ईश्वर के समतुल्य भावना क्षेत्र में उदात्त एवं परिष्कृत सिद्ध हो सके।

यह वर्ष हम सब के कठोर आत्म निरीक्षण का है। अपने क्रिया-कलाप को, विचार संस्थान को, भावना केन्द्र अन्तःकरण को कठोर समीक्षा पूर्वक परखें और जहाँ जो छिद्र दिखाई पड़े उन्हें साहसपूर्वक रोकने के लिए जूट जायं। सज्जनता की सभी विशेषताओं को अपने में उत्पन्न करते और बढ़ाते चले जायं। संकीर्ण स्वार्थपरता के भव बन्धनों को काटें और उदार परमार्थ परायणता की दिशा में चलते हुए अपने आप में देवत्व का अवतरण कर दिखायें। लोक-सेवा हमारा व्रत है-जन-कल्याण के लिए किये गये प्रयत्नों में जीवन की सार्थकता अनुभव करें। देश, धर्म, समाज और संस्कृति को अधिकाधिक समुन्नत बनाने के लिए हमारी उमंगें समुद्र की लहरों से प्रतिस्पर्धा करती दिखाई पड़ें। बड़ा आदमी नहीं महामानव बनने में हमारी आकाँक्षा अभिलाषा केन्द्रित बन सके, ऐसी रीति-नीति अपनाते हुए भावी जीवन की रूपरेखा विनिर्मित की जानी चाहिए।

साधना स्वर्ण जयन्ती की सार्थकता इसी में है कि अपने परिवार का हर सदस्य आत्म-विकास की दिशा में अधिक कारगर कदम उठाये और अब की अपेक्षा अगले दिनों अधिक आदर्शवादी, अधिक उत्कृष्ट एवं अधिक कर्त्तव्यनिष्ठ हो सके। आत्मोन्नति एक प्रकार की योग साधना है इसके लिए लोक-सेवा का व्रत लेकर चलना पड़ता है। स्वार्थों की उपेक्षा करते हुए परमार्थ में जो जितना उत्साह प्रदर्शित कर सके समझना चाहिए उसे उतना ही ईश्वरीय अनुग्रह उपलब्ध हो गया। इस सम्बन्ध में हम में से प्रत्येक को एक दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए। स्वयं बढ़ते हुए अपने साथ अन्य साथियों को घसीट ले चलें–पीठ पर लाद ले चलने का साहस जुटाना चाहिए। इस दिशा में जो जितना अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए जो जितना प्रयत्न कर रहा होगा समझना चाहिए कि साधना स्वर्ण जयन्ती की अन्तरात्मा को पहचानने में उसने उतनी ही सफलता प्राप्त कर ली। हम इसी कसौटी पर इस साधना वर्ष की सफलता का मूल्याँकन करेंगे। अस्तु हर परिजन को आत्म- निर्माण एवं समाज-निर्माण की दिशा में अपने प्रयासों को तीव्रतम बनाने के लिए पूरी तत्परता के साथ अपनी गति-विधियों को अग्रसर करना चाहिए।

समूचे परिवार को आत्मिक प्रगति की दिशा में झकझोरने-मोह निद्रा से विरत करने-जीवन लक्ष्य की दिशा में तेजी से बढ़ चलने की प्रेरणा देने के लिए- स्वर्ण-जयन्ती का पर्व उपयोगी हो सके यही उद्देश्य सामने रख कर इस साधनात्मक आयोजन का कार्यक्रम सोचा, सँजोया गया है। अभीष्ट उद्देश्य को समझा जा सके और उसे पूरा किया जा सके तो ही उसकी सार्थकता है अन्यथा आये दिन खड़े रहने वाले विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों में से ही एक अपना यह प्रयोग भी गिना जायगा और थोड़ी ही चर्चा एवं हलचल दृष्टिगोचर होने के बाद इसकी भी पानी के बबूले जैसी दुर्गति होगी।

सम्पर्क आयोजनों का उद्देश्य यह है कि सार्वजनिक रूप से घोषित उपासना एवं साधना पद्धति के अतिरिक्त परिजनों की व्यक्तिगत मनःस्थिति एवं परिस्थिति के अनुरूप उनका मार्गदर्शन किया जा सके और सिद्धान्तों को व्यवहार में उतारने का उपाय बताया जाय। उपरोक्त सम्पर्क आयोजनों की चार महीने तक चलने वाली सम्पर्क योजना का उद्देश्य यही है। प्रतिनिधि सभी शाखा केन्द्रों में इसी प्रयोजन के लिए भेजे जा रहे हैं कि साधकों के व्यक्तित्व का परिष्कार और नव-निर्माण के लिए रचनात्मक प्रवृत्तियों का अभिवर्धन जहाँ जिस प्रकार सम्भव हो सकता हो वहाँ उसके लिए विचार-विनिमय द्वारा रास्ता खोज निकाला जाय।

अब तक शांतिकुंज में चलती रही सत्र शृंखला हर दृष्टि से बहुत सफल रही है। मात्र पाँच वर्षों में 10 हजार से अधिक परिजनों ने आत्म-निर्माण और समाज-निर्माण की व्यवहारिक शिक्षा प्राप्त की है। इस दिशा में परिजनों का उत्साह बढ़ता ही गया है। एक को देख कर दूसरे ने उसकी उपयोगिता समझी है और इन शिविरों में सम्मिलित होकर लाभान्वित होने की उत्सुकता प्रकट की है। शिक्षार्थियों की संख्या हर वर्ष निरन्तर बढ़ी है, पर अब एक नई कठिनाई यह सामने आई है कि महिला जागृति अभियान के सन्दर्भ में शिक्षण प्राप्त करने वाली कन्याओं और महिलाओं की संख्या द्रुतगति से बढ़ रही है। उनके उमड़ते हुए उत्साह को देखकर शांतिकुंज में उनके लिए अधिक स्थान देना पड़ा है। फलतः पुरुष शिविरार्थियों के लिए अब मात्र 100 की गुंजाइश रह गई है। जबकि पिछले दिनों उनकी संख्या प्रायः 500 तक रहती रही है। अब एक नया शांति−कुंज बनाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रहा। वर्तमान इमारत को नारी प्रशिक्षण के लिए सुरक्षित करना पड़ेगा और पुरुष शिविरार्थियों के लिए दूसरे आश्रम का निर्माण होगा। इस निर्माण को साधना स्वर्ण जयन्ती वर्ष का चिरस्थायी स्मारक कहा जा सकेगा। इसमें एक-एक कुटिया अपनी और से बनवा देने के लिए समर्थ परिजनों से आग्रह किया गया है। एक छोटी कुटिया प्रायः दो -ढाई हजार और बड़ी कुटियामय बरामदा, रसोई, स्नानघर, स्टोर सहित चार हजार की बनेगी। अपने परिवार में ऐसे सौ भावनाशील व्यक्ति निकल सकते हैं। जो यह छोटा-छोटा अनुदान देकर नये आश्रम के निर्माण में हमारा हाथ बढ़ा लें। उतनी उदार सहायता मिल गई तो आशा है कि अगले वर्ष की गायत्री जयन्ती या गुरु पूर्णिमा से नये आश्रम में नये उत्साह के साथ पुरुषों की शिविर शृंखला चल पड़े और वर्तमान आश्रम में कन्याओं और महिलाओं की ड्यौढ़ी संख्या प्रशिक्षण का लाभ उठाने लग सके। गत वर्ष 75 छात्राएँ थीं इस वर्ष 150 हैं। अगले वर्ष 250 तक यह संख्या हो सकती है। कहना न होगा कि इस प्रशिक्षण के फलस्वरूप महिला जागरण अभियान की आँधी तूफान जितनी प्रगति सम्भव हो सकेगी। इस विस्तार को स्वर्ण जयन्ती वर्ष की एक चिरस्थायी उपलब्धि कहा जा सकेगा।

गत वर्ष महिला सम्मेलनों की माँगें बीच-बीच में आती रहीं और नये आग्रहों की पूर्ति पूर्व निर्धारित कार्य-क्रमों में से काट-छाँट करके पूरी की जाती रही। इस बार आरम्भ में ही पूरे वर्ष के कार्यक्रम निर्धारित कर देने का निश्चय किया गया है। देवकन्याओं के जत्थे गतवर्ष जहाँ गये हैं। वहां के महिला सम्मेलन हर दृष्टि से अतीव सफल रहे हैं। उपस्थित जनता ने उनसे भारी प्रेरणा ग्रहण की है। इस वर्ष उनके लिए स्वभावतः अधिक माँग और अधिक आग्रह होगा। बीच-बीच में काट-छांट न करनी पड़े इसलिए जिन्हें अपने यहाँ महिला सम्मेलन करने हैं और देवकन्याओं के जत्थे बुलाने हैं उन्हें शीघ्र से शीघ्र ही अपनी माँगे भेज देनी चाहियें । हाल में ही पूरे वर्ष में कार्यक्रम निर्धारित हो जायेंगे और सितम्बर से देवकन्याओं के जत्थे निर्धारित प्रोग्राम पूरे करने के लिए निकल पड़ेंगे। स्वर्ण जयन्ती वर्ष में नया सन्देश नया प्रकाश लेकर देव कन्याओं के जत्थे प्रायः 500 सम्मेलनों में उद्बोधन करेंगे। इनमें उपस्थित आचार्यों का जनसमूह अति महत्वपूर्ण प्रेरणा प्राप्त कर सकेगा। आशा की जानी चाहिए कि इस आधार पर उत्पन्न हुई नव जागृति की लहर भी साधना वर्ष का लक्ष्य पूरा करने में उत्साहवर्धक भूमिका सम्पन्न करेगी।

साधना स्वर्ण जयन्ती वर्ष के लगभग छह महीने इस अंक के पाठकों के हाथ में पहुँचने के समय तक पूरे हो चुकेंगे। लगभग इतना ही समय और शेष है। इस अवधि में वह भावभरा उत्साह दिन-दिन बढ़ता रहना चाहिए जिसे उभारने के लिए इस महान अध्यात्म अनुष्ठान का आयोजन किया गया है। मनुष्य में देवत्व का अवतरण करने वाली सद्भावनाएँ और सत्प्रवृत्तियां मात्र चिन्तन तक सीमित न रह जायं वरन् उन्हें प्रस्फुटित होने का समुचित अवसर मिले हम सब के यही प्रयास तत्परतापूर्वक होने चाहिएं। इस संदर्भ में क्या किया जाना है इसकी संक्षिप्त सी न्यूनतम रूपरेखा ऊपर दी गई है। इसमें अधिकाधिक जिनसे जो कुछ आदर्शवादी गतिविधियाँ अपना सकना बन पड़े उन्हें उसके लिए बढ़-चढ़ कर साहस संजोना चाहिए। इस विशेष पर्व की सार्थकता और सफलता इसी में है।


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