अपनों से अपनी बात

March 1976

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आत्मोत्कर्ष की साधना के लिए अभीष्ट वातावरण

अखण्ड−ज्योति के गत अंक में ‘अपनों से अपनी बात’ स्तम्भ में यह आकाँक्षा व्यक्ति की गई थी कि परिवार के सभी परिजन क्रमशः सान्निध्य सम्पर्क का उभय−पक्षीय आदान−प्रदान का पथ प्रशस्त करें। साधना के लिए उपयुक्त वातावरण की भी अपेक्षा रहती है। साधक की आन्तरिक मनःस्थिति एवं बाह्य परिस्थिति का अपना प्रभाव होता है, उससे वातावरण बनता है और प्रवाह प्रभाव उत्पन्न होता है। आत्मोत्कर्ष के लिए की जाने वाली साधनाओं में तो उपयुक्त वातावरण की अत्यधिक आवश्यकता रहती है। वैज्ञानिक, साहित्यकार, कवि, कलाकार, शोधकर्त्ता, विद्यार्थी आदि बुद्धि कर्मियों के लिए एकाग्रता पूर्वक अपने काम करने पड़ते हैं इसके लिए उन्हें विक्षोभ रहित एकान्त चाहिए। ठीक इसी स्तर का अति महत्वपूर्ण कार्य आत्म−निर्माण एवं आत्म−परिष्कार का भी है। इसके लिए वातावरण की अनुकूलता चाहिए। विक्षोभकारी वातावरण में कर्मकाण्ड तो हो सकते हैं। एक निष्ठा नहीं निभ पाती। क्षण−क्षण में सामने आने वाली समस्याएँ, आवश्यकताएं एवं हलचलें एकाग्रता में विक्षेप उत्पन्न करती हैं और आधे−अधूरे मन से किये हुए साधनाकृत अभीष्ट प्रतिफल उत्पन्न कर सकने में सफल हो नहीं पाते। अस्तु यह आवश्यकता सदा से अनुभव की जाती रही है कि आत्मोत्कर्ष की− साधनाओं की क्रिया−प्रक्रिया पूर्ण करने के लिए उपयुक्त वातावरण भी तलाश किया जाय।

सफल साधकों ने जहाँ उपयोगी विधि−विधान अपनायें हैं− उपयुक्त मार्ग−दर्शन प्राप्त किये हैं वहाँ उनने इसके लिए उपयुक्त वातावरण भी तलाश किया है। साधना विज्ञान के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो पता चलता है कि सफल साधकों में से अधिकाँश ने हिमालय में डेरा डाला और वहाँ अपना निर्माण कार्य सम्पन्न किया है। इसके कितने ही कारण रहे हैं। सामान्य धरातल से ऊँचे स्थानों का वायुमण्डल शीतल रहता है सर्वविदित है कि नीचे स्थानों में गर्मी भी अधिक रहती है और ऊपर से गिरने वाले अवाँछनीय रज−कण भी अधिक जमते हैं। इस धूलि के साथ धुँआ जैसे प्रदूषण और विक्षोभकारी विचार भी उतरते बरसते हैं। गर्मी में फैलाव की शक्ति रहती है। उसके सम्पर्क में जो भी आवेगा फैलेगा। नीचे और गरम स्थानों की अपेक्षा ऊँचे और शीतल स्थान न केवल स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए उपयुक्त माने जाते हैं वरन् उनमें मानसिक स्वास्थ्य सन्तुलन बढ़ाने की क्षमता भी रहती है। गर्मी के दिनों साधन सम्पन्न लोग ऐसे लाभ पाने के लिए नैनीताल, मंसूरी, काश्मीर आदि स्थानों में अपने रहने की व्यवस्था बनाते हैं।

साधना के लिए भी ऐसे स्थान तलाश किये जाते हैं। आत्मिक स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए भी उपयोगी वातावरण मिल सके तो उसका विशेष लाभ होता है। तपस्वी अपने लिए अमीरों जैसी व्यवस्था तो नहीं बना पाते, पर पर्वतों की गुफाओं में निवास करने, कंदमूल जुटाने, वल्कल वस्त्र पहनने जैसे निर्वाह के साधन ढूँढ़ लेते हैं। धूनी जलाकर शीत निवारण की−लौकी, नारियल आदि के बर्तनों की−घास की चटाई बनाने की जैसी सुविधाएँ वहाँ भी मिल जाती है। तप−साधना के इतिहास में हिमालय की ऊँचाई और गंगातट की पवित्रता का लाभ उठाने वाले साधकों की संख्या अत्यधिक है। ऐतिहासिक तीर्थ तो अन्यत्र भी हैं, पर आत्म−साधना के तीर्थों की संख्या जितनी इस क्षेत्र में है उतनी अन्यत्र कहीं नहीं।

जहाँ जिस स्तर के व्यक्ति रहते हैं− जहाँ जिस प्रकार की हलचलें होती रहती हैं वहाँ के सूक्ष्म संस्कार भी वैसे ही बन जाते हैं और वे बहुत समय तक अपना प्रभाव बनाये रहते हैं। तपस्वियों का प्राण उनके निवास स्थान के इर्द−गिर्द छाया रहता है। सिंह और गाय एक साथ ऋषि आश्रमों में प्रेमपूर्वक पालतू बन जाते थे। ऐसे वातावरण में सहज ही मानसिक विक्षोभ शान्त होते हैं और साधना के उपयुक्त मनःस्थिति स्वतः बन जाती है।

आज प्राचीन काल जैसे तपस्वी नहीं रहे और वह क्षेत्र भी उस स्तर का नहीं रहा। यहाँ भी औद्योगिक प्रवृत्तियाँ तेजी से बढ़ रही हैं तो भी वातावरण में वैसी भावनात्मक विशेषता अभी भी मिल सकती है जैसी अन्यत्र कदाचित ही कहीं देखने को मिले। अभी भी हिमालय के क्षेत्र में अपराधों की संख्या तुलनात्मक दृष्टि से नगण्य है। लोग बिना ताला बन्द किये मात्र साँकल लगा कर चले जाते हैं और कई−कई दिन बाद आने पर भी अपना सामान जहाँ का तहाँ पाते हैं। तीर्थ यात्रियों का बोझ ढोने वाले पहाड़ी कुली मीलों आगे चले जाते हैं, पर कभी किसी को अपना सामान कम होने की शिकायत नहीं करनी पड़ती। ठण्डा प्रदेश होने और नस्ल की विशेषता से इस क्षेत्र के नर−नारियों का रंग−रूप अन्यत्र की अपेक्षा आकर्षक है। मनचले परदेशी भी इस क्षेत्र में बहुत आते है। गरीबी भी बहुत हैं। इतना होते हुए भी व्यभिचार की घटनाएँ सुनने में नहीं आतीं। शान्त−शालीन कठोर, श्रम साध्य और सन्तोषी जीवन−क्रम का अद्भुत समन्वय यहाँ देखा जाता है। एक आश्चर्यजनक प्रथा इस क्षेत्र में पाई जाती है कि कई भाइयों की सम्मिलित एक पत्नी होती है किन्तु इस प्रसंग को लेकर कभी उनमें ईर्ष्या−द्वेष उत्पन्न नहीं होता। सहकारी दाम्पत्य−जीवन भी प्रेमपूर्वक निभ सकता है। इसका प्रमाण हिमालय के जौन सार बावर आदि क्षेत्रों में भ्रमण करके कोई भी देख सकता है। निर्धन और अशिक्षित सामान्य जन−जीवन में इतनी उत्कृष्टता अभी भी सन् 76 में भी देखी जा सकती है तो वहाँ प्राचीन काल में कितनी ऊँची स्थिति रही होगी और कभी भी इस क्षेत्र में उच्च स्तरीय लोगों का स्तर क्या हो सकता है? इसका अनुमान लगा सकना कुछ कठिन नहीं होना चाहिए, वातावरण की इस प्राकृतिक विशेषता और तपस्वियों की आत्मिक ऊर्जा से भरे वातावरण को देखते हुए यह स्थल यदि साधना के लिए उपयुक्त माना जाता रहा है तो यह मान्यता उचित ही थी।

पाण्डवों ने अपना अन्तिम काल इसी क्षेत्र में पूरा किया था। कृष्ण बद्रीनाथ में बारह वर्ष तप करते रहे थे। राम ने देव प्रयाग में, लक्ष्मण ने लक्ष्मण झूला में, भरत ने ऋषिकेश में और शत्रुघन ने मुनि की रेती में अपने तप कुटीर बनाये थे और जीवन का अन्तिम समय इसी क्षेत्र में पूर्ण किया था। सातों ऋषियों के आश्रम इसी क्षेत्र में थे। भागीरथ तप यही पूर्ण हुआ था। अब से इस वर्ष पूर्व अखण्ड−ज्योति में एक विवेचनात्मक लेख लिखा गया था जिसमें इन्द्र आदि देवताओं का निवास एवं स्वर्ग प्रदेश इसी क्षेत्र में होना सिद्ध किया गया था। कैलाश एवं सुमेरु पर्वत देवताओं के निवास स्थल थे। नन्दन बन इधर ही है। स्वर्ग चर्चा से सम्बन्धित अनेक प्रमाण इधर मिलते हैं। मध्य एशिया से आर्यों का भारत प्रवेश हिमालय मार्ग से होना और उनका तिब्बत से नीचे उतरकर डेरा डालना प्रायः इतिहासवेत्ताओं द्वारा कहा जाता है। यह मान्यता भी देव−मानवों की राजधानी इस क्षेत्र में होने की संगति बनती है। जो हो, यहाँ कहना इतना भर है कि प्राचीन काल में देवताओं, ऋषियों, तत्ववेत्ताओं और तपस्वी साधकों का यह स्थान कर्मक्षेत्र रहा है। उनके सूक्ष्म संस्कार अभी भी इस क्षेत्र में अतिरिक्त रूप से पाये जाते हैं और साधना के लिए अन्यत्र की अपेक्षा यहाँ अधिक अनुकूलता रहती है।

शान्ति−कुञ्ज के लिए हरिद्वार का सप्त सरोवर स्थान बहुत ही समझ−बूझकर चुना गया था। हरिद्वार हिमालय का प्रवेश द्वार है। शिव शान्ति सती का अवसान−पार्वती का जन्म और तप यहीं सम्पन्न हुआ था। सप्तपुरी प्रसिद्ध है। उनमें से एक मायापुरी−हरिद्वार भी है। गंगा की सात धाराओं के पुण्य क्षेत्र के बारे में इतिहास यह है कि सप्तऋषि यहाँ तप करते थे। गंगा अवतरित हुई तो उन्होंने ऋषि आश्रमों को बिना किसी प्रकार की क्षति पहुँचाये अपना रास्ता बना लिया और सात भागों में विभक्त होकर इस क्षेत्र से आगे चली गई। अभी भी धाराओं के विभाजन का अद्भुत दृश्य यहाँ विद्यमान है। शान्ति−कुञ्ज की भूमि जहाँ है वहाँ अब से एक सौ वर्ष पूर्व गंगा की धार बहती थी। भूमि को बचाने के लिए सरकारी बाँध बना, धारा का विस्तार सीमित हुआ और जिस भूमि पर शान्ति−कुञ्ज बना है वह क्षेत्र कृषि योग्य बना दिया गया प्रकारान्तर से इसी बात को यों भी कहा जा सकता है कि गंगावतरण के सतयुग काल से लेकर अब से सौ वर्ष पूर्व तक शान्ति−कुञ्ज की भूमि पर गंगा की धारा प्रवाहित होती रही है। अब भी यहाँ के कुँओं का पानी गंगा के पानी बढ़ने, उतरने के क्रम से नीचा−ऊँचा होता रहता है। बालू की एक हलकी−सी परत ही गंगा की कूल धारा और इस भूमि में थोड़ा−सा दृश्य अन्तर प्रस्तुत करती हैं। जलधारा तो सर्वथा एक ही है। गंगा की बालू और गोल पत्थरों से ही यह भूमि पटी पड़ी है। मूल धारा भी मात्र दो फर्लांग की दूरी पर है और आश्रम की भूमि से उसके दर्शन भली प्रकार किये जा सकते हैं। प्रवेश दिशा को छोड़कर तीनों ओर हिमालय के दिव्य दर्शन होते हैं। थोड़ा ऊंचे चढ़कर दूरबीन से देखा जाय तो हिमाच्छादित चोटियाँ आसानी से देखी जा सकती हैं।

गंगा का गर्भ, हिमालय का छत्र और सप्तऋषियों का तप−इन तीनों के समन्वय से यह स्थान अपने आप में श्रेष्ठ परम्पराओं से परिपूर्ण है। साधना की दृष्टि से जीवन्त एवं प्राणवान कहा जा सकता है। अपने प्रयत्न से भी यहाँ के वातावरण में कुछ और प्रखरता लाने का प्रयत्न किया गया है। पचास वर्ष से निरन्तर चलती आ रही अखण्ड−ज्योति की घृत दीप शिखा यहीं प्रतिष्ठापित है। गायत्री मन्दिर के निकट चलते रहने वाले जप, अनुष्ठानों का क्रम अनवरत है। नित्य गायत्री यज्ञ भी सुसंचालित है। यह तीनों ही कार्य इस वातावरण में दिव्यता की सूक्ष्म चेतना का संचार करते हैं। हम भी कुछ न कुछ अपना तप−साधना का क्रम चलाकर आश्रम के वातावरण में ऐसी विशेषता उत्पन्न करने का प्रयत्न करते हैं जिससे यहाँ के रहने वालों में अनायास ही प्रखरता उत्पन्न हो सके।

आत्मोत्कर्ष की साधना सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए अपना श्रम करना तो आवश्यक है ही− वातावरण का उपयुक्त होना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। जन−कल्याण के लिए किये जाने वाले अपने प्रयासों के साथ हिमालय के अधिक एकान्त एवं गहन प्रदेश में विशेष तप−साधना का जुड़ा होना भी सर्वविदित है। इसका कारण विधि−विधान की भिन्नता नहीं, अधिक उपयोगी वातावरण का−अधिक प्रखर सान्निध्य का लाभ लेना ही था। उचित समझा गया कि अखण्ड−ज्योति के वे परिजन जो लेखों का पढ़ लेना ही पर्याप्त नहीं समझते एवं साधना क्षेत्र में कुछ साहस भरे विशिष्ट कदम बढ़ाना चाहते हैं उनके लिए अन्य आधार अपनाने की तरह यह भी आवश्यक है कि वातावरण एवं सान्निध्य की प्रखरता का लाभ उठाते हुए अपनी साधन प्रक्रिया सम्पन्न करें।

शांति−कुंज में हर वर्ष पाँच साधना सत्रों की व्यवस्था की गई है। उनको 24 हजार गायत्री अनुष्ठान द्वारा संपन्न किया जाता है। साथ ही विचार−पद्धति एवं जीवन−प्रक्रिया में काया−कल्प प्रस्तुत करने वाली प्रेरणाएँ भी उपलब्ध की जाती हैं। साधकों की अपनी तपश्चर्या का सत्परिणाम तो हर जगह मिल सकता है, पर यहाँ वातावरण और सान्निध्य के दो अतिरिक्त लाभ और भी हैं और जिससे सत्परिणामों में तीन गुनी वृद्धि हो सकती है। हिमालय क्षेत्र और गंगा तट की अपनी विशेषता है। शांति−कुंज के आश्रम में छाई रहने वाली अतिरिक्त प्राण ऊर्जा का सान्निध्य भी एक अतिरिक्त प्रभाव तेजस् से युक्त है। उसका महत्व भी कम नहीं माना जा सकता है। प्रभावी सान्निध्य और प्रत्यक्ष मार्गदर्शन का कोई लाभ न हो ऐसी बात नहीं है।

दस−दस दिवसीय सत्रों को विशेष पत्रों के साथ सम्बद्ध करके रखा गया है−? बसन्त पर्व भगवती सरस्वती के अवतरण का−हमारी गतिविधियों के शुभारम्भ का−−परा और अपरा प्रकृति के उल्लास का अवसर है। 2. चैत्र की नवरात्रि, नवीन सम्वत्सर, भगवान राम की जन्म जयंती। 3. जेष्ठ की गायत्री जयन्ती, भगवती गंगा का−− माता गायत्री का जन्म दिन है। 4. आश्विन की नवरात्रि, भगवती दुर्गा की जन्म जयन्ती तथा असुरता की लंका पर भगवान राम की विजय का पर्व है। 5. मार्गशीर्ष की गीता जयन्ती की भगवान कृष्ण का कर्मयोग सन्देश इस विश्व में गुँजित हुआ था। स्थान की दृष्टि से जो महत्व तीर्थ स्थानों का है वही महत्व काल की दृष्टि से पुण्य पर्वों का है। पाँचों साधना सत्रों को ऐसे समय पर रखा है जिससे काम चक्र के अनुसार सूक्ष्म जगत से अनायास ही दिव्य तत्वों की अनवरत वर्षा होती है। सत्रों का समय निर्धारित करते समय इस तथ्य को भी ध्यान में रखा गया है।

विशिष्ट साधकों को वर्ष में एकबार आने की भी सुविधा मिल सकती है। ऐसे लोग अपना स्थान अमुक सत्र में सुरक्षित करा सकते हैं। जेष्ठ की गायत्री जयन्ती पर किसी का स्थान सुरक्षित नहीं किया जायगा। गर्मी की छुट्टियों से कई नये लोगों को उस समय ही आने की सुविधा मिलती है। अस्तु उसे खुला रखा गया है। इसके अतिरिक्त सामान्य साधक अपनी पारी की प्रतीक्षा करेंगे जब स्थान खाली होता रहेगा क्रमशः उन्हें बुलाया जाता रहेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118