लगता है विज्ञान सृजन से ऊब गया- विष्णु का कार्य आगे करते रहने का उत्साह ठण्डा पड़ गया, अब वह शिव के संहार स्वरूप में अधिक रुचि ले रहा है। सभ्यता और समृद्धि बढ़ती ही रहे इसकी क्या जरूरत है- क्यों न इनका नियन्त्रण किया जाए? जो कुछ बन चुका है उसे नष्ट क्यों न किया जाय? विनाश भी तो एक कार्य है। अमेरिका में जितना द्रुतगति से मोटरों का उत्पादन होता है- जिस उत्साह से फसलें उगाई जाती हैं, उसी आवेश में उन्हें नष्ट करने की बात सोची जाती है। कार को पूरी तरह बेकार होने की प्रतीक्षा वहाँ कोई नहीं करता। थोड़ी पुरानी होते ही उन्हें समुद्र में कचरे की तरह फेंक दिया जाता है। उसी प्रकार अतिरिक्त अन्न को वे लोग जानवरों को खिला देते हैं या जला देते हैं। यह इसलिए किया जाता है कि मोटरों के उत्पादन और खपत का क्रम यथावत चलता रहे और अनाज सस्ता न होने पाये। सरकार अनाज का पैसा किसानों को चुकाकर उसे कहीं न कहीं देश-विदेश में खपा देती है। अर्थ सन्तुलन की दृष्टि से यह बर्बादी भी वहाँ आवश्यक समझी कई है।
सम्भवतः मनुष्य जाति के बढ़ते विस्तार के अथवा प्रतिस्पर्धी देशों की सम्पत्ति के सम्बन्ध में भी यही सोचा जा रहा है कि उन्हें आगे बढ़ने न दिया जाय। इसके लिए विनाश की आवश्यकता पड़ेगी। परम्परागत अस्त्र-शस्त्रों से यह कार्य विलम्ब से होगा। जो काम करना है उसे तुर्त-फुर्त करने में विज्ञान अपनी क्षमता सिद्ध कर चुका है। फिर विनाश के लिए उसका प्रयोग क्यों न किया जाय? एटमबम-हाइड्रोजन बम जैसे विनाश साधन इसी दृष्टि से बने हैं। उनके प्रयोग से रेडियो विकिरण फैलने और प्राणियों के साथ-साथ सम्पत्ति भी नष्ट हो जाने जैसे खतरे जुड़े हुए हैं इसलिए ऐसे साधन तलाश किये गये हैं जिनसे प्रतिस्पर्धी देश की जनता का प्राणि सम्पदा का तो विनाश हो जाय किन्तु पराजित होने के उपरान्त विजेता को वहाँ की सम्पत्ति को हथियाने में किसी प्रकार की अड़चन न पड़े। इस प्रयोजन के लिए मारक गैसें एवं विषाणु (वायरस) बम अधिक उपयुक्त समझे गये हैं। उनका उत्पादन विज्ञान क्षेत्र में अग्रणी देश बड़े उत्साह से कर रहे हैं और आशा कर रहे हैं कि भावी महायुद्ध में आणविक अस्त्रों की अपेक्षा इनका प्रयोग अधिक सरल और अधिक लाभदायक सिद्ध होगा। सम्पत्ति उत्पन्न करने की अपेक्षा दूसरों की कमाई हथिया लेने का अपना मजा है विज्ञान की प्रगति का लाभ भी इस प्रयोजन के लिए क्यों न लिया जाय? इस पक्ष समर्थन का उत्साह जीवाणु बम बनाने के लिए अधिक उत्साह उत्पन्न कर रहा है।
जीवाणु अस्त्र वायुयान द्वारा किसी क्षेत्र में चुपके से गिराये जा सकते हैं। गिरने की आवाज, खटका कुछ नहीं होता। कैप्सूल फटकर हवा में अपना प्रभाव तेजी के साथ फैलाता है और वह प्रभाव उस क्षेत्र में रहने वाले मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों को बीमार करता चला जाता है। बीमारियाँ इतनी भयंकर होती हैं कि दवादारु का उन पर कोई असर नहीं होता। कुछ ही समय में वे या तो अशक्त अपंग हो जाते हैं या मौत के मुँह में चले जाते हैं। अणुबम जहाँ तुर्त-फुर्त सफाया कर देता है वहाँ यह अस्त्र रोने-कलपने और तिल-तिल मरने, सिसकने की व्यवस्था बनाते हैं। अणु के आयुध जला-गलाकर मैदान साफ कर देते हैं, पर यह जीव आयुध गन्दगी, बदबू, सड़न और कुरूपता उत्पन्न करते हैं। इतना अन्तर होते हुए भी विज्ञान ने अब जीवाणु आयुधों को ही अधिक सस्ता और सरल समझा है, उन्हीं का अभिवर्धन अधिक उत्साह के साथ करने की ठान ठानी गई है।
वायरस जीवाणु, कवक, प्रोटोजोआ जैसे अदृश्य जीव इस प्रयोजन के लिए उपयुक्त समझे गए हैं। वायरस वर्ग के विषाणु- इन्फ्लुएंजा, मक्खी-ज्वर, छोटी चेचक अच्छी तरह फैला सकते हैं। रिकेटीसई तथा वेड सोनी वर्ग से क्यूफीवर, राकी याउन्टस, स्क्रव टाइफस आदि का बैक्टीरिया वर्ग से ऐंथ्रेकान, कालेरा, प्लेग, टाइफ़ाइड आदि का-वकव वर्ग से कोक्सिडियो, माइकोसिन आदि का प्रोटोजोआ वर्ग से आँतों की एवं आमाशय की सूजन का फैलाव होता है। मौसम एवं जलवायु के अनुरूप अन्य प्रकार के ज्ञात-अज्ञात लक्षण वाले रोग फैला सकते हैं।
लगभग इसी स्तर की बीमारियाँ विषाणु आयुधों के प्रहार से कहीं भी फैलाई जा सकेंगी। सैनिक हो या नागरिक उन्हें पता भी न चल पायेगा कि कब उनके ऊपर आक्रमण हुआ। बहुसंख्यक लोग जब बिस्तरों पर पड़े कराह रहे होंगे और उनमें उठकर नित्यकर्म कर सकने जितनी शक्ति भी न रहेगी तभी पता चलेगा कि रातों-रात किसी शत्रु द्वारा उन्हें इस भयंकर त्रास वेदना की पकड़ में जकड़ लिया गया है।
100 किलोग्राम विष पाउडर से प्रायः 40 वर्ग मील को संकट पूर्ण स्थिति में फंसाया जा सकता है। हवा में वह गैस बनकर घुल जायगा और फिर उस क्षेत्र में साँस लेने वालों के लिए बच निकलने का कोई चारा न रहेगा।
सेना की छावनियाँ अस्पताल के रूप में परिणत हो जाएंगी। वे मुकाबला करने की स्थिति में ही नहीं रहेंगे। व्यापक आतंक से जनता का मनोबल टूट जायगा। शौर्य, साहस वाले देश-भक्त भी अपने को असमर्थ पाकर निराश बैठे होंगे। प्रतिरोध का जोश ही समाप्त हो जायगा। दीनता, निराशा और कायरता से ग्रसित देश अव्यवस्थाओं से घिरा होगा। सामान्य आवश्यकता के साधन भी जुटा सकना कठिन हो जायगा। बिजली, पानी, रेल, बस, दुकानें, अस्पताल सर्वत्र सन्नाटा छाया होगा। चिकित्सा साधन प्राप्त करना तो दूर मृत शरीरों की अंत्येष्टि का प्रबन्ध भी न हो सकने के कारण सड़न और बदबू की एक अतिरिक्त समस्या उत्पन्न हो जायगी।
ऐसी स्थिति में आक्राँता देश को भी सहज ही लाभ नहीं मिल जायगा। आक्रमण करके प्रति पक्षी को परास्त तो अवश्य कर दिया जायगा। पर उस क्षेत्र में प्रवेश करके आधिपत्य जमाना कठिन होगा। विषाणु तो उन पर भी आक्रमण करेंगे। हवा, पानी को शुद्ध करके-गन्दगी की सफाई करके- उस क्षेत्र में प्रवेश करने वालों को सुरक्षित बनाये रहने जैसी समस्याओं का समाधान कैसे किया जायगा इसका उत्तर अभी उनके पास भी नहीं है, जो विषाणु आक्रमण की योजना में बहुत आगे बढ़ चुके हैं और उन संहारक अस्त्रों के पहाड़ जमा कर चुके हैं।
अनुपयोगी को उपयोगी बनाकर उसका उपयोग सर्वतोमुखी सुख-शान्ति के लिए प्रयुक्त करना विज्ञान का लक्ष्य होना चाहिए। पथ-भ्रष्ट होने पर व्यक्ति हो या समाज-बुद्धि हो अथवा विज्ञान केवल संकट ही उत्पन्न करते हैं। गरिमा उपलब्धियों की नहीं सद्बुद्धि की है जिसके बिना चमत्कारी उपार्जन भी सर्वनाश का कारण बनता है जैसा कि रासायनिक अस्त्र हमारे सामने रोमाँचकारी संकट बनकर हमारे सामने खड़े हैं।