अध्यात्म शास्त्र में सात लोकों का वर्णन है। इन्हें भू-लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, तपः लोक, महः लोक, जनः लोक और सत्य लोक कहा गया है। इन्हें किसी ग्रह नक्षत्र में अवस्थित अथवा अधर में लटका हुआ स्थान नहीं माना जाना चाहिए, वरन् स्थूलता से सूक्ष्मता की गहराई में प्रवेश करते हुए उपलब्ध होने वाली स्थिति भर माना जाना चाहिए।
मोटी दृष्टि से इस संसार में रेत, पत्थर, वृक्ष, वनस्पति, खनिज, प्राणी, जल आदि पदार्थ भरे पड़े हैं। आँख से यह भू-लोक ही दीखता है। इसके भीतर वह स्थिति है। जो आँखों से तो नहीं दीखती, पर सूक्ष्मदर्शी यन्त्र की सहायता से देखी, समझी जा सकती है, हवा में मिली हुई गैसें, जीवाणु आदि इसी श्रेणी में आते हैं। इससे भी गहरी अणु सत्ता है। उस विश्लेषण में उतरने पर इस संसार में विभिन्न प्रकार के परमाणुओं के अन्धड़ उड़ते और गुच्छक अदलते-बदलते भी दिखाई पड़े और नदी, पर्वत आदि का अस्तित्व बहुत मोटा, भोंड़ा और भ्रम-पूर्ण समझा जा सकेगा। अणु सत्ता का विश्लेषण करने पर उसके सूक्ष्म घटक कोई पदार्थ नहीं रह जाते केवल विद्युत स्फुल्लिंग पर दृष्टिगोचर होते हैं। उस स्थिति की व्याख्या की जाये तो संसार में ऊर्जा प्रवाह ही इस विश्व में एकमात्र विद्यमान सत्ता प्रतीत होगी। स्थूल से सूक्ष्म की और प्रवेश करते हुए हम कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं। फिर भी स्थान सम्बन्धी कोई परिवर्तन नहीं होता। अपने इसी स्थान में यह स्थूल से सूक्ष्म-सूक्ष्म से अति सूक्ष्म- अति सूक्ष्म से महा सूक्ष्म की स्थिति बनती चली जाती है।
सात लोकों के स्थान का पता लगाने के लिए ऊपर नीचे झाँकने की आवश्यकता नहीं। वे एक शरीर के भीतर अव्यव-अवयवों के भीतर माँसपेशियाँ-माँस-पेशियों के भीतर ज्ञान तन्तुओं के भीतर मस्तिष्कीय विद्युत यह कई परतें तो हैं। पर इनके लिए अलग-अलग स्थान निर्धारित करने की आवश्यकता नहीं है। वे एक के भीतर एक के क्रम से क्रमशः भीतर के भीतर -समाये, सजायें अनुभव किये जा सकते हैं। सात लोकों के सम्बन्ध में यही समझा जाना चाहिए कि अपने स्थूल लोक के भीतर ही उनकी सत्ता सूक्ष्मतर-सूक्ष्मतम और अति सूक्ष्म होती चली गई है। स्थान उन सबका वही है। जिनमें कि हम निवास करते हैं। ब्रह्मांड के भीतर ब्रह्मांड की सत्ता उसी प्रकार समझी जा सकती है जिस प्रकार परमाणु की मध्यवर्ती नाभिक के अन्तर्गत को खोलने पर उसके भीतर भी एक अति सूक्ष्म किन्तु अपने इस विश्वास ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करने वाला ब्रह्म बीज विद्यमान मिलता है।
जीव शरीर भी ब्रह्म शरीर का प्रतीक प्रतिनिधि है। उसके भीतर भी सात लोक हैं। इन्हें सात शरीर कहते है। मोटे तौर से इन्हें सप्त धातुएँ कहा जाता है। रस, रक्त, माँस, अस्थि, मज्जा, शुक्र धातुएँ शरीर में देखी जाती है। इनके स्थान अलग- अलग कोठों में नियत नहीं हैं, वरन् एक के भीतर एक समाये हुए हैं। चेतना शरीर भी इसी प्रकार से सात शरीरों से मिलाकर बना है। वे भी एक के भीतर एक के क्रम से अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं।
योग शास्त्र में इन्हें चक्रों का नाम दिया गया है। छह चक्र और सातवाँ सहस्रार कमल। छह चक्रों के नाम प्रसिद्ध हैं।-(1) मूलाधार चक्र (2) स्वाधिष्ठान चक्र (3) मणिपूर चक्र (4) अनाहत चक्र (5) विशुद्ध चक्र (6) आज्ञा चक्र। इनके उपरान्त सातवाँ सहस्रार चक्र। कहीं छह- कहीं सात की गणना से किसी भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। सातवाँ लोक सत्यलोक है। सत्य अर्थात् पूर्ण परमात्मा । इससे नीचे के लोक भी छह ही रह जाते हैं। शरीर में छह धातुएँ प्रसिद्ध हैं। सातवीं ओजस् तो आत्मा की ऊर्जा मात्र है। इसी प्रकार साधना में प्रयुक्त होने वाले चक्र तो छह ही हैं। सातवाँ सहस्रार कमल तो ब्रह्मलोक है। उससे तो लय होने की यह बात है। सात या छह के भेद -भाव को इस तरह समझा जा सकता है। कि अपने स्थान से अमुक देवालय सात मील है। बीच में छह मील के पत्थर और सातवाँ मील पत्थर - प्रत्यक्ष देवालय। गणना के हिसाब से छह गिने जायें या सात इससे वस्तुस्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता।
ब्रह्मांड सत्ता में विद्यमान सुविस्तृत सात लोकों की चर्चा पीछे कभी करेंगे। यहाँ हमें मनुष्य सत्ता के भीतर विद्यमान सात लोकों की -सात शरीरों की चर्चा करना ही अभीष्ट है।
मनुष्य के सात शरीरों का वर्णन तत्ववेत्ताओं ने किया है वे इस प्रकार हैं-
(1) स्थूल शरीर-फिजिकल बाड़ी (2) सूक्ष्म शरीर इथरिक बॉडी (3) कारण शरीर-एस्ट्रल बॉडी (4)मानस शरीर-मेन्टल बॉडी (5) आत्मिक शरीर-स्प्रिचुअल बॉडी (6) देव शरीर -कॉस्मिक बॉडी (7) ब्रह्म शरीर-वाडीनैस बॉडी।
सप्त धातुओं का बना भौतिक शरीर प्रत्यक्ष है। इसे देखा, छुआ और इन्द्रिय सहित अनुभव किया जा सकता है। जन्मतः प्राणी इसी कलेवर को धारण किये होता है। उनमें प्रायः इन्द्रिय चेतना ही जागृत होती है। भूख, सर्दी-गर्मी जैसी शरीरगत अनुभूतियाँ ही सक्षम रहती हैं, पशु शरीर आजीवन इसी स्थिति में बने रहते हैं, पर मनुष्य के सातों शरीर क्रमशः विकसित होते चलते हैं। दो वर्ष का होते हुए उसका सूक्ष्म शरीर जागृत होने लगता है इसे मानव शरीर कहते हैं। इच्छाओं और सम्वेदनाओं के रूप में इसका विकास का परिचय मिलता है। मानापमान अपना-पराया, राग-द्वेष, सन्तोष-असन्तोष, मिलन-वियोग जैसे अनुभव भाव शरीर को होते हैं। यही सूक्ष्म शरीर है। बीज में से पूर्व प्रथम अंकुर निकलता है। पीछे उसका विकास दो-तीन पत्तों के रूप में होता है। स्थूल शरीर को अंकुर कहा जाय तो सूक्ष्म शरीर को उसका पत्तों के रूप में विकसित होना माना जा सकता है। फिजिकल बॉडी तो यथास्थान बनी रहती है, पर उसमें नई शाखा भाव शरीर एस्ट्रल बॉडी के रूप में विकसित होने लगती है। यों सातों शरीरों का अस्तित्व आत्मा के साथ-साथ ही रहता है, पर उनका विकास आयु और परिस्थितियों के आधार पर धीमे अथवा तीव्र गति से - स्वल्प, अधिक मात्रा में होता चलता है।
तीसरा कारण शरीर विचार तक, बुद्धि से सम्बन्धित है। इसका विकास, व्यावहारिक, सभ्यता और मान्यता परक संस्कृति के आधार पर होता है। यह किशोरावस्था में प्रवेश करते-करते आरम्भ होता है। और वयस्क स्थिति तक पहुँचते-पहुँचते अपने अस्तित्व का ठीक तरह परिचय देने लगता है। बालक-मताधिकार 18 वर्ष की आयु में मिलता है। अल्प वयस्कता इसी अवधि में पहुँचने पर पूरी होती है। बारह से लेकर अठारह वर्ष की आयु के कारण शरीर का काम चलाऊ विकास हो जाता है। यौन सम्वेदनाएँ भी इसी अवधि में जागृत होती हैं। सामान्य मनुष्य इतनी ही ऊँचाई तक बढ़ पाते हैं, फिजिकल -इथरिक और एस्ट्रल बॉडी के तीन वस्त्र पहनकर ही दरिद्र लोग दिन गुजार लेते हैं। धोती कुर्ता और जूता इतने से ही गरीबों को काम चलाना पड़ता है। अधिकाँश लोगों की जिन्दगी इसी सीमा में रहकर समाप्त हो जाती है। इसलिए मोटेतौर से तीन शरीर की ही चर्चा होती है। स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीरों की व्याख्या करके बात पूरी कर ली जाती है। प्रथम शरीर में शरीरगत अनुभूतियों का सुख-दुःख -दूसरे में भाव सम्वेदनाएँ और तीसरे में लोकाचार एवं यौनाचार की प्रौढ़ता विकसित होती है। और एक काम चलाऊ मनुष्य स्तर का ढाँचा बनकर खड़ा हो जाता है।
तीन शरीरों के बाद मनुष्य की विशिष्टताएँ आरम्भ होती हैं। मनस् शरीर में कलात्मक रसानुभूति होती है। कवित्व जगता है। कोमल सम्वेदनाएँ उभरती हैं। कलाकार, कवि, सम्वेदनाओं के भाव लोक में विचरण करने वाले भक्त-जन, दार्शनिक, करुणार्द्र, उदार, देश-भक्त इसी स्तर के विकसित होने पर बना जा सकता है। यह स्तर उभरे तो पर विकृत बन चले तो व्यसन और व्याभिचार जन्य क्रीड़ा कौतुकों में रस लेने लगता है। इसी स्तर के लोग कामुक एवं रसिक पाये जाते हैं। मनस् क्षेत्र के विकसित व्यक्ति असामान्य होते हैं। उनकी पहचान रसिकता की मनःस्थिति से होती है। सूरदास, तुलसीदास जैसे सन्त अपने आरम्भिक दिनों में कामुक थे। वही पैट्रोल जब दूसरी दिशा में गाड़ी दौड़ाने लगा तो सम्वेदनाएँ कुछ से कुछ करके दिखाने लगीं। महत्वकाँक्षाएँ इसी क्षेत्र में जागृत होती हैं। दूसरे शब्दों में उसे अहंकार भी कहा जा सकता है। महत्वाकांक्षी व्यक्ति ही भौतिक जीवन में तरह-तरह के महत्वपूर्ण प्रयास करते हैं। और असाधारण लोगों में अपनी गणना कराते हैं। इसे प्रतिभाशाली भी कह सकते हैं। प्रतिभागी लोगों का मनस् तत्व प्रबल होता है। उन्हें मनस्वी भी कहा जा सकता है। बाल्मीक, अँगुलिमाल, अशोक जैसे महत्वाकांक्षी विकृत मनःस्थिति में घोर आतंकवादी रहे थे, पर जब मुड़ गये तो श्रेष्ठ मार्ग में भी उन्हें चोटी की सफलता प्राप्त करने में देर नहीं लगी। इसे मेन्टल बॉडी की प्रखरता एवं चमत्कारिता कहा जा सकता है।
पाँचवाँ शरीर-आत्मिक शरीर स्प्रिचुअल बॉडी में अतीन्द्रिय शक्तियों का निवास होता है। अचेतन मन की गहरी परतें जिनमें दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं। इसी पाँचवें शरीर से सम्बन्धित हैं। मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म, टेलीपैथी, क्लैरेहवाइंस जैसे प्रयोग इसी स्तर के विकसित होने पर होते हैं । कठोर तन्त्र साधनाएँ एवं उग्र तपश्चर्याएँ इसी शरीर को परिपुष्ट बनाने के लिए की जाती हैं। संक्षेप में इसे ‘दैत्य’ सत्ता कहा जा सकता है। सिद्धि और चमत्कारों की घटनाएँ- संकल्प शक्ति के बढ़े-चढ़े प्रयोग इसी स्तर के समर्थ होने पर सम्भव होते हैं। सामान्य सपने तो सभी देखते हैं। पर जब चेतना इस पाँचवे शरीर में जमी होती है तो किसी घटना का सन्देश देने वाले सपने भी दीख सकते हैं। उनमें भूत, भविष्य की जानकारियों तथा किन्हीं रहस्यमय तथ्यों का उद्घाटन भी होता है। भविष्यवक्ताओं, तान्त्रिकों एवं चमत्कारी सिद्धि पुरुषों की गणना पाँचवे शरीर की जागृति से ही सम्भव होती है। ऊँची मीनार पर बैठा हुआ मनुष्य जमीन पर खड़े मनुष्य की तुलना में अधिक दूर की स्थिति देख सकता है। जमीन पर खड़ा आदमी आँधी का अनुभव तब करेगा जब वह बिलकुल सामने आ जायगी। पर मीनार पर बैठा हुआ मनुष्य कई मील दूर जब आँधी होंगी तभी उसकी भविष्यवाणी कर सकता है। इतने मील दूर वर्षा हो रही है। अथवा अमुक स्थान पर इतने लोग इकट्ठे हैं। इसका वर्णन वह कर सकता जो ऊँचे पर खड़ा है और आँखों पर दूरबीन चढ़ाये है, नीचे खड़े व्यक्ति के लिए यह सिद्धि चमत्कार है, पर मीनार पर बैठे व्यक्ति के लिए यह दूरदर्शन नितान्त सरल और स्वाभाविक है।
छठे शरीर को देव शरीर कहते हैं-यही कॉस्मिक बाड़ी है। ऋषि , तपस्वी, योगी इसी स्तर पर पहुँचने पर बना जा सकता है। ब्राह्मणों और सन्तों को भू-देव-भू-सुर कहते हैं। यह नामकरण उनकी देव अन्तःस्थिति के आधार पर किया गया है। स्वर्ग और मुक्ति इसी स्थिति पर पहुँचने पर मिलने वाला मधुर फल है। सामान्य मनुष्य चर्म चक्षुओं से देखता है, पर देव शरीर में दिव्य चक्षु खुलते हैं और “सियाराम मय सब जग जानी” की -विराट ब्रह्म दर्शन की मनःस्थिति बन जाती है। कण-कण में ईश्वरीय सत्ता के दर्शन होते हैं और इस दिव्य उद्यान में सर्वत्र सुगन्ध ही महकती दिखाई पड़ती हैं। परिष्कृत दृष्टिकोण ही स्वर्ग है। स्वर्ग में देवता रहते हैं। देव शरीर में जागृत मनुष्यों के अन्दर उत्कृष्ट चिन्तन और बाहर आदर्श कर्तृत्व सक्रिय रहता है। तदनुसार भीतर शान्ति की मनःस्थिति और बाहर सुख भरी परिस्थिति भरी-पूरी दृष्टिगोचर होती है। स्वर्ग इसी स्थिति का नाम है। जो ऐसी भूमिका में निर्वाह करते हैं। उन्हें देवता कहने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। असुर मनुष्य और देव यह आकृति से तो एक जैसे ही होते हैं। अन्तर उनकी प्रकृति मात्र में होता है।
भौतिकवादी लोक मान्यताओं का ऐसे देव मानवों पर रत्ती भर भी प्रभाव नहीं पड़ता । वे निन्दा;स्तुति की, संयोग-वियोग की, हानि-लाभ की, मानापमान की लौकिक सम्वेदनाओं से बहुत ऊँचे उठ जाते हैं। लोक मान्यताओं को वे बाल-बुद्धि की दृष्टि से देखते हैं। लोभ और मोह के -वासना और तृष्णा के भव-बन्धन ही सामान्य मनुष्यों को बेतरह जकड़े रहते हैं। और इन्हीं धागों में बँधकर उन्हें कठपुतली जैसे भोंड़े नाच नाचने पड़ते हैं। छठवीं देव भूमिका में पहुंची हुई देव आत्माएँ मात्र आदर्श और कर्त्तव्य भर को पर्याप्त मानती हैं। आत्मा और परमात्मा को सन्तोष देना ही उन्हें पर्याप्त लगता है। वे अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करते समय लोक मान्यताओं पर तनिक भी ध्यान नहीं देते वरन् उच्चस्तरीय चेतना से प्रकाश ग्रहण करते हैं। इन्हें भव-बन्धनों से मुक्त-जीवन मुक्त कहा जाता है। मुक्ति या मोक्ष प्राप्त कर लेना इसी स्थिति का नाम है। यह छोटे शरीर में --देव स्थिति में कॉस्मिक बॉडी में विकसित आत्माओं को उपलब्ध होता है।
सातवाँ ब्रह्म शरीर है। इसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होता है। सभी वे शरीर झड़ जाते हैं जो किसी न किसी प्रकार भौतिक जगत से सम्बन्धित थे। उनका आदान-प्रदान प्रत्यक्ष संसार से चलता है वे उससे प्रभावित होते और प्रभावित करते हैं। ब्रह्म शरीर का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से होता है। अस्तु उसकी स्थिति लगभग ब्रह्म स्तर की हो जाती है। अवतार इसी स्तर पर पहुँची हुई आत्माएँ बनती हैं। लीला अवतरण में उनकी अपनी कोई इच्छा आकाँक्षा नहीं होती, वे ब्रह्मलोक में निवास करते हैं और जब ब्राह्मी चेतना किसी सृष्टि सन्तुलन के लिए भेजती है तो उस प्रयोजन को पूरा करके पुनः अपने लोक को वापस लौट जाते हैं। ऐसे अवतार समय-समय पर होते रहते हैं। भारत में पिछले दिनों उनकी संख्या 10 या 24 गिनी जाती है, पर वस्तुतः उनकी गणना करना कठिन है। संसार के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रयोजनों के लिए वे समय-समय पर विलक्षण व्यक्तित्व सहित उतरते हैं और अपना कार्य पूरा करके वापिस चले जाते हैं।
ऐसे ही स्तर पर पहुँचने की स्थिति ‘अहम् ब्रह्मोसि’ सच्चिदानन्दोऽहम्, शिवोऽहम् सोऽहम्, कहने की होती है। उस चरम लक्ष्य स्थल पर पहुँचने की स्थिति को चेतना क्षेत्र में बिजली की तरह कोंधाने के लिए इन वेदान्त मन्त्रों का जप, उच्चारण एवं चिन्तन, मनन किया जाता है।
पाँचवें शरीर तक स्त्री-पुरुष की मान्ताएँ रहती हैं और उन्हीं मान्यताओं के कारण विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण तथा अगले जन्म में उसी लिंग का शरीर बनने की प्रक्रिया चलती रहती है। उससे आगे के छठे और सातवें शरीर में विकसित होने पर यह भेदभाव चला जाता है। तब मात्र एक आत्मा की अनुभूति होती है। स्त्री और पुरुष का आकर्षण-विकर्षण समाप्त हो जाता है। सर्वत्र एक ही आत्मा की अनुभूति होती है। अपने आपकी अन्तः स्थिति लिंग भेद से ऊपर उठी होती है यद्यपि ज्ञानेन्द्रिय के चिन्ह शरीर में अपने स्थान पर यथावत् बने रहते हैं। यही बात साँसारिक स्थिति बदलने के कारण मन पर पड़ने वाली भली-बुरी प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में भी होती है। समुद्र में लहरें उठती, गिरती रहती हैं। नाविक उनके लिए हर्ष, शोक नहीं करता- मात्र समुद्री हलचलों का आनन्द लेता है। छठे शरीर में विकसित देवात्माएँ इस स्थिति से ऊपर उठ जाती हैं उनका चेतना स्तर गीता में कहे गये स्थिति प्रज्ञ की ज्ञानी की और उपनिषदों में वर्णित तत्वदर्शी की बन जाती है। उसके आत्म सुख से संसार के किसी परिवर्तन में विक्षेप नहीं पड़ता। लोकाचार के लिए उपयुक्त लीला प्रदर्शन भर के लिए उसका व्यवहार चलता रहता है। यह भी छठे शरीर तक की ही बात है। सातवें शरीर वाले भगवान संज्ञा से विभूषित होते हैं। उन्हें अवतारी भी कह सकते हैं। इन्हीं के लिए ब्रह्मात्मा, ब्रह्म पुरुष-शब्द प्रयुक्त होते हैं। उन्हें ब्रह्म साक्षात्कार-ब्रह्म निर्वाण प्राप्त भी कहा जा सकता है।
छठे शरीर में स्थित देव मानव स्थितिवश शाप और वरदान देते हैं, पर सातवें शरीर वाले के पास शुभेच्छा के अतिरिक्त और कुछ बचता ही नहीं। उनके लिए पराया एवं बैरी कोई रहता ही नहीं। दोष, अपराधों को वे बाल बुद्धि मानते हैं और द्वेष दण्ड के स्थान पर करुणा और सुधार की बात भर सोचते हैं।