आत्मशोधन के षट् कर्म

January 1976

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आत्म शुद्धि के षट्कर्म प्रख्यात हैं। देव पूजन आरंभ करने से पूर्व इन उपचारों को सम्पन्न किया जाता है। (1) पवित्रीकरण अर्थात् काया की पवित्रता (2) तीन आचमन, मन, वचन और काया शुद्धि (3) प्राणायाम-प्राण सत्ता को प्रखर बनाना (4) न्यास-इन्द्रियों को वासना मुक्त करके ब्रह्मवर्चस् में संलग्न होने के लिए प्रस्तुतीकरण (5) शिखा बन्धन—शरीर के सर्वोच्च शिखर पर स्थापित प्रज्ञा प्रतिमा के प्रति श्रद्धा अभिव्यक्ति। किसी श्रेष्ठ सत्ता को बुलाने और बिठाने से पूर्व उसके लिए उपयुक्त स्वच्छता उत्पन्न करना आवश्यक है। गुरुजनों, महामानवों को, राजनेताओं को घर बुलाना होता है तो उनके लिए आवश्यक सफाई करानी पड़ती है और स्वच्छ उपकरण एकत्रित करने पड़ते हैं। दिवाली पर लक्ष्मी के आगमन की सम्भावना देख कर लोग सबसे अधिक ध्यान घर की सफाई पर देते हैं ताकि स्वच्छ वातावरण में उनको प्रसन्नता मिले और वह ठहर सकें। सर्वविदित है कि गन्दे स्थान में ठहरना किसी को पसन्द नहीं—गन्दे लोगों के साथ सम्बन्ध रखने-उनके पास जाने तथा बुलाने में सामान्य लोगों को भी रुचि नहीं होती, फिर देव शक्तियाँ तो उसके लिए तैयार होंगी ही क्यों ? झूठे और मैले बर्तन में बहुमूल्य भोजन परोसने से भी खाने वाले को घृणा ही उत्पन्न होती है। साधक की पवित्रता एवं पात्रता का चुम्बकत्त्व ही देव शक्तियों के अनुग्रह को अपनी ओर आकर्षित करता है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए साधना विज्ञान के ज्ञाताओं ने सर्वप्रथम आत्मशोधन की ओर ध्यान देने का विधान बनाया है। प्रस्तुत कर्मकाण्डों के सहारे जीवन में परिष्कार की ओर अधिकाधिक तत्परता बरतने के लिए उत्साह उत्पन्न किया जाता है।

(1) पवित्रीकरण —शरीरगत पवित्रता के लिए ‘पवित्रीकरण’ है। चम्मच से बायें हाथ पर जल रखा जाय। दाहिने हाथ से ढककर पवित्री करण मन्त्र पढ़ा जाय । जल को समस्त शरीर पर छिड़का जाय और यह भावना की जाय कि इस मन्त्रपूत जल के साथ विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त पवित्रता तत्त्व की हमारे ऊपर वर्षा हो रही है और फुहारे के नीचे बैठ कर स्नान करने की तरह उस अमृत वर्षण का आनन्द लिया जा रहा है। पवित्रता शरीर के भीतर प्रवेश होकर समस्त चेतना को—भाव संस्थान को—पवित्र बनाती चली जा रही है।

(2) आचमन—तीन आचमन मन्त्र पढ़ते हुए तीन बार तीन चमची जल मुख में डाला जाये। तीन आचमनों का तात्पर्य काया—विचारणा और भावना इन तीन चेतना के केन्द्रों में शान्त, शीतल, सात्विकता का समावेश करना है। प्रथम आचमन काया में सच्चरित्रता, सात्विकता और वाणी में सदाशयता की स्थापना करने के लिए है। वाणी की विशेष पवित्रता इसलिए है कि उसके द्वारा उच्चरित जप प्रार्थना भगवान तक पहुँच सके। अनीति उपार्जित अन्न खाने वाली और असत्य, विक्षोभकारी वचन बोलने वाली वाणी का तेज नष्ट हो जाता है और उसके उच्चारण मन्त्र-शक्ति उत्पन्न नहीं कर सकते। इस तथ्य को स्मृति में जमाये रहने के लिए प्रथम आचमन है।

द्वितीय आचमन विचारणा में चिन्तन की शीतल सात्विकता स्थापित करने के लिए है। अशुद्धि, अपराधी, दुष्ट, दुर्बुद्धि के कारण यदि मस्तिष्क में अशान्ति के आँधी तूफान उठते रहेंगे तो उसमें मनस्विता एवं तेजस्विता उपयुक्त न हो सकेगी, बहुमूल्य विचारशक्ति ऐसे ही अवाँछनीय छिद्रों में होकर नष्ट होती रहेगी और खोखले मन क्षेत्र में—ब्रह्मलोक में—दिव्य सत्ता का अवतरण न हो सकेगा। मानसिक पवित्रता को साधना की सफलता के लिए नितान्त आवश्यक माना जाय इस मान्यता को सुदृढ़ बनाने की बात ध्यान में बनी रहे यह उद्देश्य दूसरे आचमन का है।

तीसरा आचमन भावशुद्धि के लिए है। जीवनोद्देश्य के प्रति उच्चस्तरीय निष्ठा और चिन्तन एवं कर्तृत्व की श्रेष्ठता बनाये रहने वाली आस्था ही भाव निष्ठा है। प्रपंच, प्रलोभनों के आकर्षणों में व्यस्त निरर्थक अनर्थ भरा पतनोन्मुख जीवन जीने वाले लोग आत्मबल सम्पादित नहीं कर पाते। आकाँक्षाओं का स्तर ऊँचा रहना ही भाव शुद्धि है। यह तथ्य सदा स्मरण बना रहे इसीलिए तीसरा आचमन किया जाता है।

(3) प्राणायाम—बाँये हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ की कोहनी जमाई जाय। अंगूठे से दाहिने नथुने का छेद बन्द किया जाय। बाँये नथुने से धीरे-धीरे साँस खींची जाय। पूरी साँस फेफड़ों में भर कर कुछ समय रोकी जाये, रोकते समय अनामिका तथा तर्जनी से दोनों नथुने बन्द कर लिए जायं। इसके बाद दाहिने नथुने पर से अंगूठा हटाकर उसी छेद में होकर साँस धीरे-धीरे बाहर निकाली जाय। कुछ समय साँस को भीतर जाने से रोका जाय। यह एक प्राणायाम हुआ।

प्राणायाम के चार भाग हैं (1) साँस भीतर ले जाने की क्रिया को पूरक (2) भीतर रोकने को अन्तः कुम्भक (3) बाहर निकालने को रेचक (4) बाहर रोके रहने को बाह्य कुम्भक कहते हैं। प्राणायाम आरम्भ करने से पूर्व मन ही मन तीन बार गायत्री मन्त्र बोल लेना चाहिए। जब श्वास क्रिया आरम्भ की जाय तो साँस खींचते समय भावना करनी चाहिए कि निखिल आकाश में वायुतत्त्व के साथ घुला हुआ चेतन प्राणतत्व साँस के साथ हमारे भीतर प्रवेश करते हुए दिव्य शक्ति भर रहा है। रोकते समय भावना करनी चाहिए कि उस दिव्य शक्ति को शरीर के अवयवों, रक्तकणों एवं चेतना संस्थानों द्वारा सोखा और सदा सर्वदा के लिए भीतर धारण किया जा रहा है। साँस निकालते समय भावना करनी चाहिए कि सूक्ष्म, स्थूल और कारण शरीरों के मल, आवरण, विक्षेप, दोष, विकार बाहर निकले जा रहे हैं। बाहर साँस रोकने के समय भावना करनी चाहिए कि निकाले हुए विकारों को वापिस न लौटाने के लिए सदा सर्वदा के लिए द्वार बन्द कर दिया गया है। ऐसे-ऐसे तीन प्राणायामों की पुनरावृत्ति करनी चाहिए।

(4) न्यास—बाँये हाथ की हथेली पर एक चम्मच जल रखा जाये। दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियाँ इकट्ठी करके उन्हें उस जल में डुबाया जाय फिर गायत्री मन्त्र पढ़ते हुए उन्हें पहले बाँयी ओर फिर दाहिनी ओर क्रम से लगाया जाय (अ) मुख (आ) नासिका (इ) नेत्र (ई) कान (उ) भुजाएं (ऊ) जंघाएँ (ए) शेष जल का समस्त शरीर पर छिड़काव। जिन इन्द्रियों पर यह जल स्पर्श किया गया है वहाँ उनमें पवित्रता एवं प्रखरता भरी जा रही है। ऐसी भावना परिपक्व की जाय।

(5) शिखा बन्धन—गायत्री मन्त्र पढ़ते हुए शिखा में गाँठ लगाई जाय। यदि बाल उड़ गये हों या न रखाये गये हों तो उस स्थान पर पानी से भीगी उँगलियों का स्पर्श किया जाय। यह आध्यात्मिक झंडाभिवादान है। विवेकशीलता, आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता की देवी गायत्री माता के प्रतीक प्रतिमा शिखा को माना गया है। शरीर में इसकी सर्वोच्च शिखर पर इसलिए प्रतिष्ठापना की जाती है कि इसमें समाविष्ट त्रिविधि प्रेरणाओं को सर्वोपरि महत्व का माना और श्रद्धापूर्वक अपनाया जाय।

(6) पृथ्वी पूजन—धरती माता—मातृ भूमि— को प्रत्यक्ष देवता मानकर उसका अभिसिंचन अभिवन्दन करने की भावना से उपलब्ध अनुदानों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए जल, अक्षत, पुष्प, चन्दन से पूजन किया जाय। मातृभूमि के लिए—विश्व वसुधा के लिए —समस्त जड़ चेतन जगत द्वारा मिले लाभों के प्रत्युपकार में बढ़-चढ़ कर त्याग बलिदान करने की भावनाएँ जगाना इस ‘पृथ्वी पूजन’ प्रक्रिया का उद्देश्य है।

भारतीय धर्म के प्रायः सभी सम्प्रदायों में उपासना आरम्भ करने से पूर्व थोड़े हेर-फेर के साथ प्रायः इन्हीं विधानों का निर्देश है। इन कृत्यों के साथ कई-कई तरह के मन्त्र भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में लिखे हैं। भिन्नता को एकता की दिशा में ले जाने की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए यही उचित समझा गया है कि सभी उपासना कृत्यों में एक मात्र गायत्री मन्त्र का ही उपयोग किया जाय। इसमें उपासना क्षेत्र में सार्वभौम एकता उत्पन्न होगी, जो आगे चलकर भाषा, संस्कृति, धर्म, शासन आदि सभी क्षेत्रों में एकता उत्पन्न करने की—दिशा में जन-मानस बनाने की—भूमिका भी प्रस्तुत करेगी। अशिक्षितों, अल्प शिक्षितों एवं बालकों के लिए अनेक विधानों के लिए अनेक मन्त्र याद करना कठिन है, इसलिए एक ही गायत्री मन्त्र याद करने की सरलता सोची गई है और देव पूजन तथा आत्मशोधन के सभी कृत्य इसी मन्त्रोच्चार से पूरे करने के लिए कहा गया है।

उपासना आरम्भ करने से पूर्व (1) पूजा प्रतीक के रूप में गायत्री माता का स्थापना चित्र जो इस अंक में लगा है इसे शीशे में मढ़ा लिया जाय। (2) जल कलश की छोटी लुटिया, ढक्कन समेत (3) अगरबत्ती स्टैंड (4) पंच पात्र आचमन आदि के लिए पानी का छोटा गिलास चमची समेत (5) छोटी तश्तरियाँ एक में चावल, नैवेद्य, चन्दन, पुष्प रखने के लिए—दूसरी पूजा के समय यह वस्तुएँ छोड़ने के लिए (6) एक डिब्बा चावल, नैवेद्य, रोली, अगरबत्ती, माचिस, आदि सामान संभाल कर रखने के लिए। इतना सामान संग्रह कर लेना पर्याप्त है।

उपासना आरम्भ करने से पूर्व नित्य कर्म से निवृत्त होना-शरीर, वस्त्र और स्नान उपकरणों की अधिकाधिक स्वच्छता के लिए तत्परता बरतना—आवश्यक है। स्नान और धुले वस्त्र बदलने से मन में पवित्रता का संचार होता है। चित्त प्रफुल्ल रहता है। आलस्यवश मलीनता को लादे रहने से मन भारी रहता है और उपासना से जी उचटता है। जँभाई आती है—ऊब लगती है और अधिक बैठना भारी पड़ता है। स्थान और पूजा उपकरणों की मलीनता से मन में अरुचि उत्पन्न होती है और उत्साह घटता है। अस्तु उपासना स्थल को—पूजा के पात्र उपकरण प्रतीक आदि को—स्वच्छ कर लेने की बात को महत्व ही दिया जाना चाहिए। अधिक ठंड, बीमारी, पानी का अभाव, स्थान की असुविधा जैसी कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाने पर तो बिना स्नान के—हाथ मुँह धोकर भी पूजा पर बैठा जा सकता है, पर सामान्य स्थिति में आलस्यवश ऐसी उपेक्षा नहीं बरती जानी चाहिए। रुग्णता की अन्य विवशता की परिस्थितियों में—सफर में — मानसिक उपासना बिना कुछ क्रिया-कृत्य किये भी की जा सकती है।

पूजा की चौकी पर पीत वस्त्र बिछाया जाय और उस पर गायत्री माता का—मन्त्र का —चित्र स्थापित किया जाय। उसके आगे एक कोने पर छोटी लुटिया में ढका हुआ जल कलश और दूसरे कोने पर जलती अगरबत्ती को रखा जाय। जहाँ शुद्ध घी उपलब्ध है वहाँ घृत दीप भी जलाया जा सकता है, अन्यथा उसके अभाव में अगरबत्ती से भी काम चल सकता है।

आसन कुशाओं का या चटाई लेनी चाहिए। चौकी या पट्टा बिछाया जा सकता है। सूती या ऊनी आसन-इसी शर्त पर बिछाये जा सकते हैं कि उनके धोने या सुखाने का प्रबन्ध होता रहे। पशुओं के चमड़े आजकल वधकर्म द्वारा ही प्राप्त होते हैं इसलिए मृगचर्म आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए। पूजा स्थान में यथा सम्भव स्वच्छ वायु का आवागमन होना चाहिए। सीलन घुटन या घिच-पिच के वे स्थान जहाँ खाना-पीना, सोना, आना-जाना बना रहता है चित्त में विक्षेप उत्पन्न करते हैं। यथासम्भव एकान्त स्थान ही तलाश करना चाहिए। खुली छत पर या बरामदे में बैठना भी अच्छा है।

भारतीय धर्म में त्रिकाल संध्या का विधान है। प्रातः सूर्योदय के समय-साँय सूर्यास्त के समय—मध्याह्न 12 बजे यह मध्यवर्ती समय है। थोड़ा आगे पीछे होना हो तो वैसा भी हो सकता है। जिन्हें सुविधा हो वे त्रिकाल उपासना करें। अन्यथा प्रातः साँय दो बार से भी काम चल सकता है। अत्यन्त व्यस्त व्यक्तियों को भी प्रातःकाल नित्य कर्म से निवृत्त होकर एक बार तो उपासना करने के लिए समय निकाल ही लेना चाहिए। प्रयत्न यह करना चाहिए कि आधा घंटा से लेकर एक घंटे तक समय उपासना के लिए मिल सके। निस्सन्देह इस प्रयोजन में लगा हुआ समय हर दृष्टि से सार्थक होता है। उपासना से आत्मिक प्रगति, उसके फलस्वरूप व्यक्तित्व का समग्र विकास, उसके द्वारा सर्वतोमुखी समृद्धि की सम्भावना, यह चक्र ऐसा है, जिससे इस कृत्य में लगाया गया समय सार्थक ही सिद्ध होता है।

उपासना काल में हर घड़ी यही अनुभूति रहनी चाहिए कि हम भगवान के अति निकट बैठे हैं और साधक तथा साध्य के बीच सघन आदान-प्रदान हो रहा है। साधक अपने समग्र व्यक्तित्व को भगवान को होम रहा है और वे उसे अपने समतुल्य बनाने की अनुकम्पा प्रदान कर रहे हैं।

अस्वस्थता की दशा में, सफर में, विधिवत उपासना कृत्य करने की स्थिति न हो तो आत्म शुद्धि, देव पूजन तथा जप ध्यान आदि सारे कृत्य मानसिक उपासना के रूप में ध्यान प्रक्रिया के सहारे—उन कृत्यों को करने की कल्पना करने हुए भी किये जा सकते हैं। उपासना में नागा करने की अपेक्षा इस प्रकार की मानसिक पूजा कर लेना उत्तम है। इससे संकल्पित साधना प्रक्रिया को किसी न किसी रूप में अनवरत चलती हुई तो रखा ही जा सकता है।


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