उद्धत काम कौतुक की विनाश लीला

December 1976

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प्रकृति-पर्यवेक्षण से पता चलता है कि अल्पजीवी प्राणी अधिक कामुक होते हैं तथा वे सहवास भी अधिक करते हैं जबकि दीर्घजीवी प्राणियों में सहवास की आवृत्ति में एक बड़ा अन्तराल रहता है। वे वर्ष में एक निश्चित अवधि में ही यौन-जीवन जीते हैं। शेष समय में दाम्पत्य प्रेम तो उनमें गहरा रहता है पर यौन-क्षुधा नहीं होती। इसी तरह दुर्बल जीवों में अधिक सन्तति होती है, जबकि सशक्त प्राणियों में कम सन्तानें होती है।

छोटी छोटी मछलियाँ लाखों, करोड़ों की संख्या में अण्डे देती हैं। काड मछली चार लाख अंडों का प्रजनन करती है तो सनफिश तीन करोड़। जबकि विशालकाय ह्वेल तथा डाल्फिन अण्डे नहीं देती, उनके सीमित जीवित बच्चे पैदा होते हैं। शार्क मछली अपने ही पेट में अण्डे देती और फिर शिशु को जन्म देती है। मक्खियाँ भी बहुत अण्डे देती हैं और एक मक्खी की कुल उम्र 30 दिन होती है। मादा चमगादड़ वर्ष में सिर्फ एक बच्चा देती है।

वनराज सिंह व सिंहनी वर्ष में मात्र एक बार सहवास करते हैं, जबकि वे सदा साथ रहते हैं। एक प्रसव में सिंहनी कभी एक ही बच्चे को जन्म देती है। कभी 3-4, वह भी प्रति वर्ष नहीं। सामान्यतः दो वर्ष में एक बार।

हाथी भी वर्ष में एक बार ही समागम करता है और कई हाथी तो लम्बे अरसे तक सहवास नहीं कर पाते क्योंकि किसी भी समूह की कभी हथनियों का स्वामी सरदार हाथी ही होता है। हाथी की सन्तान भी कम होती हैं।

गाय, बैल, भैंस, घोड़े आदि सभी सशक्त प्राणियों में सन्तति-क्रम सीमित है। कम सन्तान जनने वाले हाथी और ह्वेल सौ-सौ वर्ष जीते हैं। शेर चालीस वर्ष, घोड़ा तीस, गाय पच्चीस, कुत्ता पन्द्रह, बकरे-बकरी पन्द्रह वर्ष जीते हैं। जबकि छोटी मछलियाँ और छोटे पशु अल्प अवधि तक जीते हैं। जो प्राणी जितने अधिक और जितनी जल्दी बच्चे उत्पन्न करता हो तो समझना चाहिए कि वह उतनी ही कम आयु प्राप्त कर सकेगा और उतना ही दुर्बल बनकर रहेगा।

नर-नारी प्रेम तथा एकनिष्ठता की प्रवृत्ति कई पशु-पक्षियों में देखी जाती है।

‘स्क्विड’ नामक एक रेंगने वाला कीड़ा सैकड़ों मादाओं में भी अपनी प्रियतमा को पहचान लेता है। दूसरों की ओर वह कभी भी नहीं देखता।

बत्तखों का दाम्पत्य-प्रेम अत्यन्त प्रखर होता है। थोड़े से क्षणों का भी विद्रोह वे सह नहीं पाते। साथी आँख से ओझल हुआ कि व्याकुलता से उसे खोजने लगते हैं।

योरोप में गोहों की कुछ जातियाँ हैं, जो जीवन में एक ही बार हम सफर चुनती हैं। विधवा या विधुर गोह, दूसरे गोह को देखकर उस पर आक्रमण कर बैठती है। प्यार कभी दुबारा नहीं करती।

कबूतर कट्टर पतिव्रती एवं पत्नीव्रती होते हैं।

कुछ मछलियाँ भी प्रेम-प्रसंग के बाद ही विवाह करती हैं। ऐसी मछलियाँ झीलों या शान्त गति वाली नदियों में ही पायी जाती हैं। ये मछलियाँ सदैव एकनिष्ठ होती हैं।

दाम्पत्ति जीवन का अर्थ है- स्नेह, सद्भावपूर्वक सहचरत्व का निर्वाह किया जाय। सद्भाव सम्पन्न प्राणियों में प्रायः यही प्रवृत्ति पाई जाती है। इस आधार को अपनाने पर उनका दाम्पत्ति-जीवन सुखी, सन्तुष्ट रहता है। किन्तु जहाँ काम लोलुपता ही प्रधान है वहाँ सघन-निष्ठा का अन्त हो जाता है और कुचक्र का दौर चल पड़ता है। बहुपत्नी प्रथा या बहुपति प्रथा दोनों ही समान रूप से अनावश्यक एवं अवांछनीय हैं। जहाँ कहीं यह दौर चल रहा होगा वहाँ कलह, संघर्ष एवं संकटग्रस्त वातावरण बना रहेगा। प्राणि जगत में इस बहुवादी लोलुपता की प्रतिक्रिया कुत्तों में, हिरनों में, हाथी, सील आदि में देखी जा सकती है।

बहु-पत्नीवाद का सर्वाधिक दुष्परिणाम ‘सील’ नामक मछली में देखने को मिलता है। ये उत्तरी ध्रुव के हिमानी क्षेत्र में होते हैं।

प्रजनन-ऋतु आने पर नर-सील मादाओं के लिए लड़ने लगते हैं। एक सशक्त नर सील 40-50 तक मादाओं का मालिक होता है पर उसकी विक्षुब्ध वासना अपरिमित होती है। नई मादाएँ देखकर वह मचल उठता है तथा पड़ौसी सील-समूह पर आक्रमण कर बैठता है। उस समूह के नर से उसे प्रचण्ड संघर्ष करना पड़ता है। मान लें कि वह इस संघर्ष में विजयी ही हो जाता है और अपनी पसन्द की मादा को लेकर थका, आहत, गर्वोद्धत अपने समूह में लौटता है तो उसे प्रायः निश्चय ही यही दृश्य दीखेगा कि उसके समूह की एक या दो-चार मादाएँ, कोई दूसरा नर-सील खींचे लिए जा रहा है। अब या तो मन मानकर अपहरण का यह आघात झेले अथवा उसी थकी माँदी दशा में द्वन्द्व-युद्ध के लिए ललकारें और तब परिणाम पता नहीं क्या हो?

इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप अधिकाँश नर-सील तीन माह की यह प्रजनन-ऋतु बीतने तक श्लथ, क्षत−विक्षत हो चुकते हैं और आहार जुटा पाने योग्य शक्ति भी उनमें शेष नहीं रहती। इसका कारण मादा के प्रति नर-पशु की निरन्तर यौन-जागरुकता की प्रवृत्ति है। इससे विपरीत सामूहिक सह-जीवन की प्रवृत्ति वाले पशुओं में तो मादा के प्रति कोई अनावश्यक आकर्षण नर रखते ही नहीं। मात्र प्रजनन-ऋतु में ही मादा विशेष के प्रति आकर्षित होते हैं। शेष समय वे मानो लिंगातीत साहचर्य की स्थिति में रहते हैं।

हाथी की शक्ति एवं बुद्धिमता सुविदित है। किन्तु इस विषमतावादी प्रवृत्ति से हाथियों के मुखिया को भी अपनी शक्ति व समय का अधिकाँश भाग अनावश्यक संघर्षों में खर्च करना होता है।

हाथी समूह में रहते हैं। समूह-नायक ही अपने समूह की सभी हथनियों का स्वामी होता है। समूह के अन्य किसी सदस्य द्वारा किसी भी हथिनी से तनिक-सी भी काम चेष्टा या प्रेम-प्रदर्शन करने पर, मुखिया यह देखते ही उस पर आक्रमण कर या तो भगा देता है या परास्त कर प्रताड़ित, अपमानित करता है।

कोई युवा शक्तिशाली हाथी कभी भी ऐसी उद्यत चेष्टा कर मुखिया को उत्तेजित कर देता है और युद्ध में उसे यदि परास्त कर देता है, तो फिर वही टोली की सभी हथनियों का स्वामी तथा टोली नायक बनता है। पराजित नायक बहुधा विक्षिप्त हो जाता है और खतरनाक भी हो उठता है।

“मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दु धारणम्” सूत्र में कामुकता के अमर्यादित चरणों को मरण का प्रतीक माना गया है। उसमें सर्वनाश ही सन्निहित है। यह विचार सर्वथा असत्य है कि अति कामुकता बरतने वालों से उनकी सहधर्मिणी प्रभावित होती है वरन् सच तो यह है कि वह उलटी घृणा करने लगती है। ऐसी घृणा जहाँ पनपेगी वहाँ सद्भाव कहाँ रहेगा? जब मादा देखती है कि नर अपनी तृप्ति के लिए उसके शरीर का अनावश्यक दुरुपयोग किये जा रहा है तो वह पति-भक्ति अपनाने के स्थान पर उलटे आक्रमण कर बैठती है। ऐसे आक्रमणों से नर की दुर्गति ही होती है और ‘मरणं’ बिन्दुपातेन’ सूत्र के अनुसार उद्धत कामविकार मृत्यु का दूत बनकर सामने आ खड़ा होता है।

नर-बिच्छू अपनी प्रेयसी के साथ-साथ नृत्य करता है। घंटों। कभी तेजी से दोनों आगे बढ़ते हैं, कभी पीछे हटते हैं। थककर शिथिल होने पर दोनों साथ-साथ ही विश्राम करते हैं। लेकिन मादा बिच्छू कई बार उत्तेजना में नर को खा भी जाती है।

‘फ्राग-फिश’ का यौनाचरण भी ऐसा ही प्राणात्मक है। मादा फ्राग-फिश घूमती रहती है। श्रीमान नर अधिकाँश पुरुषों की ही तरह लम्पट और अधीर होते हैं। मादा के पास पहुँचते ही वे उत्तेजित हो उठते हैं, जबकि मादा को ऐसा कुछ भी नहीं होता। उत्तेजित नर मादा के मदक दिख रहे शरीर मास में तेजी से दाँत गड़ाता है। बस, फिर यह दाँत गड़ा ही रह जाता है। क्योंकि उस माँस से यह दाँत कभी निकल नहीं पाता। किसी केलि करते हैं नशा उतर जाने के बाद दाँत छुड़ाने की पूरी कोशिश करते हैं।-बार-बार। पर विफल मनोरथ ही रहते हैं। खाना-पीना बन्द। कितने दिन जीएंगे? अन्त में दम टूट जाता है।

प्राणि जगत में जिधर भी दृष्टि दौड़ाकर देखा जाय संयम का लाभ और वासनात्मक अतिक्रमण के कारण उत्पन्न होने वाले विनाश को भली प्रकार देखा जा सकता है। अच्छा होता मनुष्य भी इस विनाशलीला पर विचार करता और संयमशीलता अपनाने के लिए सहमत होता।


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