सेवा का मानव-जीवन में बहुत महत्व है। सेवा और सहयोग के आधार पर ही संसार का विकास और प्रगति हुई है और उसी आधार पर वह टिका हुआ है। यदि मानव-समाज से सेवा और सहयोग की प्रवृत्तियाँ सर्वथा समाप्त हो जांय, तो संसार की गतिविधि ही सहसा रुक जाये। एक अव्यवस्था और अराजकता जैसी स्थिति पैदा हो जाये।
मानव-समाज में जब-जब और जहाँ-जहाँ पारस्परिक सेवा, सद्भावना और सहयोग का ह्रास होता है, वहाँ उसका स्थान स्वार्थ और शोषण ले लेता है, जिसके परिणाम स्वरूप संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है। लड़ाई, झगड़े और युद्ध शुरू हो जाते हैं। जब तक वह अवाँछनीय स्थिति बनी रहती है, मनुष्य की सामाजिक, आर्थिक, मानसिक और आत्मिक प्रगति रुकी रहती है। वह प्रस्तुत संघर्ष में ही एकाग्र होकर लगा रहता है। इस स्थिति से मानव-समाज की अपार क्षति होती है। ऐसी क्षति कि प्रायः जिसकी पूर्ति ही नहीं हो पाती।
युद्ध के समय बहुत से लोग मारे जाते हैं। कौन कह सकता है कि उन मरने वालों में बहुत से ऐसे लोग नहीं मर जाते होंगे, जो यदि उनको जीने का अवसर मिलता तो वैज्ञानिक, कलाकार, कवि, विद्वान, समाज-सेवी, सन्त और महात्मा होते। हजारों लाखों विधवाओं, अनाथों और बेसहारों की संख्या बढ़ जाती है। अभाव और अपूर्ति का भयंकर नर्तन होने लगता है, जिसमें पीढ़ियाँ, परिवार, राष्ट्र और समाज तक पिसने लगते हैं। ऐसे संघर्षों ने पृथ्वी पर से न जाने ऐसे कितने देश, कितने समाज और कितने राष्ट्र नाम शेष कर दिए, जिनका एक अस्तित्व था और अपना महत्व भी। किंतु यह सब होता कब है, जब संसार में सेवा और सहयोग की प्रवृत्तियाँ नष्ट होने लगती हैं। मानव-जीवन में सेवा का बहुत बड़ा महत्व है। जहाँ तक सम्भव हो इसको बनाये और बढ़ाये रखने का यथासाध्य प्रयत्न करते ही रहना चाहिये।
वह समाज अधिक समाज तक जीवित नहीं रह सकता, जिसके सदस्यों के बीच परस्पर सेवा, सहयोग की परमार्थ-परक प्रवृत्तियाँ न चलती रहें। परमार्थ परक सेवा ही मानव-जाति की सुरक्षा, विकास और शाँति का साधन है। सेवा-भावना के वरदान से व्यक्ति के अन्तःकरण से अहंजन्य ‘मैं’ का स्वार्थ-भाव निकल जाता है और व्यक्ति भी संकीर्ण परिधि से निकल कर व्यष्टि की व्यापकता में आ जाता है। उसका अपने प्रति सम्बोधन ‘मैं’ के स्थान पर ‘हम’ हो जाता है।
समाज में ऐसे सदस्यों की संख्या भी कम नहीं होती, जो रोगी, अपंग, अपाहिज, वृद्ध और वे सहारा होते हैं। उनमें अपने निर्वाह की शक्ति नहीं होती। दूसरों की सेवा सहायता की उन्हें अपेक्षा होती है। समाज के ऐसे दयनीय सदस्यों का गुजारा दूसरों के सहारे ही होता है। यदि समाज में पर-सेवा की भावना का सर्वथा अभाव हो तो ऐसे असमर्थ लोगों की क्या दशा हो जाये, इसकी कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ऐसे असहाय व्यक्ति बेचारे स्थान-स्थान पर रोते, कलपते पड़े रहें, एक ग्रास भोजन और थोड़े से वस्त्र के अभाव में अकाल में ही काल के गाल में पहुँचते रहें और जब तक जीवित रहें अपनी स्थिति को समाज के लिए अभिशाप बना दें।
ऐसे अपंग और अपाहिज व्यक्ति समाज में जो कुछ सुखी-दुःख जीवन काट पाते हैं, वह केवल दयावान सज्जनों की सेवा प्रवृत्ति के सहारे ही काट पाते हैं। ऐसे अनाथ और असहायों की आत्मा को नारकीय मौत से बचाने वालों का बड़ा दूरगामी पुण्य होता है। इसलिये दया को धर्म का मूल और अहंकार अर्थात् संकीर्ण ‘स्व’ को पाप का मूल घोषित किया गया है।
परमार्थवादी समाज में कोई व्यक्ति अपना पृथक अस्तित्व नहीं मानता। वह अपने को समाज का ही एक अंग मानता है, उसी आधार पर सोचता और काम करता है। परमार्थवादी समाज की एक विशेषता यह होती है कि उसका हर सदस्य हर काम को समाज-सेवा की भावना से करता है और उसके लिये अपनी शक्ति, योग्यता और क्षमता का कोई अंश बचा नहीं रहता। जिस समाज के सदस्य इस भावना और प्रेरणा वाले होंगे, उस समाज की दिन-प्रति-दिन उन्नति होना स्वाभाविक ही है। जिन समाजों को उन्नति और विकास की दिशा में प्रगति करते देखा जाये, उनके विषय में निर्विवाद रूप से यह घोषित किया जा सकता है कि उक्त समाज का जीवन दर्शन कुछ भी हो पर वह व्यवहारतः एक परमार्थवादी समाज है। उसके सदस्य सेवा और सहयोग के महत्व को केवल जानते ही नहीं बल्कि अपने जीवन में उस पुण्य परमार्थ को चरितार्थ भी करते हैं।
समाज की प्रगति का अर्थ केवल समाज की प्रगति ही नहीं होता है। समाज की प्रगति में व्यक्ति की प्रगति का भाव तो स्वभावतः अन्तर्हित ही रहता है। व्यक्ति की प्रगति समाज की प्रगति और समाज की प्रगति व्यक्ति की प्रगति होती है। यह बात ठीक हे कि यदि व्यक्ति-व्यक्ति अपनी प्रगति और उन्नति करता चले तो समाज की प्रगति तो आपसे आप ही होती चलेगी। किन्तु इसमें व्यक्ति के स्वार्थ परायण हो जाने की आशंका बनी रहती है, इसीलिये समाज की प्रगति के माध्यम से व्यक्ति की प्रगति को महत्वपूर्ण माना गया है। व्यक्ति समाज-सेवा की भावना से सब काम करता चले तो उसकी प्रगति भी आपसे आप ही होती जायेगी।
समाज-सेवा की भावना से काम करने वाले लोगों का मानसिक विकास बड़ी तीव्रता से होता है। ऐसा सेवाभावी व्यक्ति समाज के प्रति अपना उत्तरदायित्व अनुभव करता है और तब उसी के अनुसार अपना महत्व भी समझने लगता है। उसे अपना उत्तरादयित्व और कर्तव्य भार को वहन करने में बड़ी प्रसन्नता तथा उत्साह भी होता है। उसे इस भाव से बड़ा आत्मिक सुख और सन्तोष होता है कि वह समाज की सुरक्षा, विकास और शाँति व्यवस्था में हाथ बटाने का गौरवशाली काम कर रहा है। समाज-सेवा में आत्म-कल्याण की बड़ी सुनिश्चित सम्भावनायें निहित रहती हैं।
मानव-जीवन के लिए सेवा का बहुत महत्व है। यह बात ठीक है। किन्तु किस सेवा का महत्व है यह भी समझ लेना बहुत आवश्यक है। महत्व उन्हीं सेवाओं का है जो सर्वथा निःस्वार्थ तथा परमार्थपरक हों। कार, रोजगार, नौकरी, परिश्रम आदि जो कि मात्र जीविका और जीवन निर्वाह के लिये किया जाता है, वह पारमार्थिक सेवा नहीं है। जिनका मानव-जीवन के लिये अलग से महत्व हो, वे सेवायें निश्चित रूप से वही होती हैं, जो निज की आवश्यकताओं से अलग निःस्वार्थ भाव से बिना किसी लोभ, लाभ तथा आशा रखे की जाती है। और जिनमें केवल पर हित और परोपकार का भाव निहित रहता है। ऐसी सेवाओं का मूलाधार, दया, सहानुभूति, सम्वेदना, सहयोग, सामाजिकता आदि सद्गुण ही होते हैं।
केवल स्थूल लाभ ही नहीं, जिन सेवाओं के साथ बड़प्पन, प्रतिष्ठा और श्रेय का भाव भी जोड़ दिया जायेगा। वे भी अपने पारमार्थिक स्तर से गिर जायेंगी, फिर चाहे मनुष्य ने उसके लिये कितना ही अलाभ कर त्याग किया हो, कष्ट उठाया हो और विनम्रता का प्रदर्शन किया हो। पद प्रतिष्ठा तथा श्रेय की आकाँक्षा भी स्थूल लाभ के लोभ के समान सेवा के परमार्थ तत्व को दूषित कर देती है। मानव-जीवन में जिस सेवा के महत्व का प्रतिपादन किया गया है, वह न केवल स्वार्थ से ही मुक्त हो अपितु स्पृहा से भी रहित होनी चाहिये।
जन-सेवा तथा पद प्रतिष्ठा की भावना में परस्पर विपरीतता होती है। एक, एक छोर की वार्ता है, तो दूसरी दूसरे छोर की। इनमें परस्पर न तो कोई संगति है और न यह दोनों बातें समानान्तर गति से साथ-साथ चल सकती है। समाज-सेवा का पारमार्थिक सुख चाहने वाले को समझ लेना चाहिये कि सेवक का स्थान संसार में सबसे नीचा होता है। उसका स्थान जनता-जनार्दन के पैरों के नीचे है। जन-सेवक को पद प्रतिष्ठा, प्रशंसा और अहंकार की सारी स्पृहाओं तथा भावनाओं को त्यागना होगा, तभी वह अपनी सेवाओं से उस आत्मिक संतोष की अपेक्षा कर सकता है, जो कि मानव-जीवन का अभीष्ट लक्ष्य है। सेवा के साथ प्रशंसा तथा प्रदर्शन की कोई संगति नहीं- इस तथ्य का समर्थन महात्मा गाँधी के एक इस छोटे से संस्मरण से पूरी तरह हो जाता है-
“एक बार एक संन्यासी बापू के पास आया। बापू ने पूछा- ‘‘अपने यहाँ आने का कष्ट किस मन्तव्य से किया है।” संन्यासी बोले- ‘‘जन-सेवा करने के लिये।” बापू ने कहा- ‘‘यदि आपको जनता की सेवा करनी है, तो अपने ये गेरुये वस्त्र उतार दो नहीं तो लोग महात्मा समझ कर उल्टी आपकी सेवा करने लगेंगे।”
जन-सेवा में जिसका हृदय जितना अधिक, निःस्वार्थ, निस्पृह, निरहंकार, दयालु और संवेदनशील होगा, वह उतना ही बड़ा और सफल लोक-सेवक होगा। इन गुणों के अभाव में कोई क्यों न अपनी पूरी जिन्दगी ही सामाजिक मंच पर बिता दे, लोक-सेवा का न तो श्रेय पा सकता है और न सुख। उसका सारा जीवन यों ही प्रदर्शन और अपना पद खोजने में निकल जायेगा। निहित स्वार्थ के साथ लोक-सेवा में समय बरबाद करने वालों को न तो निर्दोष अर्थ प्राप्त हो पाता है और न परमार्थ। उनका जीवन रीता और अन्तःकरण कुण्ठित बना रहता है। ऐसे निहित स्वार्थ वाले जन-सेवी इस संसार से सुख और शाँति के साथ नहीं ग्लानि और पश्चाताप के साथ विदा होते हैं।
मानव-जीवन में जन-सेवा का एक विशेष महत्व है। उससे व्यक्ति और समष्टि दोनों का कल्याण होता है। किन्तु ऐसी सेवा जीवन निर्वाह के कार्यों से दया, सहानुभूति, संवेदना और सामाजिक भावना पर ही निर्भर होती है और फिर उसमें भी निःस्वार्थ, निस्पृहता एवं निरहंकार की भावना का होना नितान्त आवश्यक है। ऐसी सेवा ही वह पारमार्थिक सेवा है, जिसको मनुष्य को अपने जीवन में स्थान देना ही चाहिये। ऐसी सेवा से उसके लोक और परलोक दोनों बनते और सफल होते हैं।