बहुत बार लोग इस प्रकार की अहंकार युक्त अभिव्यक्ति कर बैठते हैं कि “हमारे पास भगवान का दिया सब कुछ है। हमें किसी पर निर्भर होने की आवश्यकता नहीं और न हमें समाज की परवाह है।”
पर कहना न होगा कि उनका यह कथन समाज के प्रीति अहंकार जन्म धृष्टता के सिवाय और कुछ नहीं है। संसार में कोई भी मनुष्य समाज के सहयोग के बिना किसी योग्य नहीं बन सकता। वह जो कुछ बनता है समाज की सहायता से बनता है। इस प्रकार का अहंकार बहुधा वही लोग दिखाया करते हैं, जिन्हें धन, जन का बल होता है। किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि उनके पास जो धन, जन की वृद्धि हुई है वह समाज की कृपा से ही हुई है।
धन जिसका कि लोगों को बड़ा जोम रहता है, समाज से ही उपलब्ध होता है। लोग धन के लिये व्यापार करते, खेती और उद्योग धंधों का अवलम्ब लेते हैं। एक व्यापारी जिन चीजों का व्यापार कर धन कमाता है, वे क्या सब उसकी उत्पन्न की हुई होती हैं? व्यापार का सारा माल मूल रूप में खेती में उत्पन्न होता है और खेती करने वाले किसान ही होते हैं, व्यापारी नहीं। इस प्रकार व्यापार के लिए व्यापारी को किसान पर निर्भर होना पड़ता है। उसे उसकी परवाह करनी होगी। किसान का असहयोग शीघ्र ही व्यापारी का पट्टा उलट सकता है।
व्यापार की बहुत-सी वस्तुएँ कारखानों में बनाई जाती हैं। उनका कच्चा माल भी अधिकतर खेतों में ही बढ़ा होता है। इस प्रकार कारखानों और कारखानेदारों को भी किसान पर निर्भर रहना पड़ता है। इतना ही क्यों? सारा कारखाना मजदूरों और कारीगरों के आधार पर चलता है। उसमें जो बिजली और मशीनरी लगी होती है, उसका निर्माण भी मजदूरों और कारीगरों द्वारा ही होता है। क्या व्यापारी और क्या कारखानेदार कोई न तो इतना आत्म-निर्भर नहीं होता जो समाज की परवाह न करने जैसी सामर्थ्य प्राप्त कर ले। उनका यह कहना कि उन्हें न समाज की परवाह है और न किसी व्यक्ति की- बिल्कुल झूँठ और कोरा दम्भ मात्र है।
इसी प्रकार खेतिहर को ले लीजिये। यदि वह सारी आवश्यक चीजें खेत में पैदा कर लेने के कारण यह कहता है कि वह बिल्कुल आत्म-निर्भर है या उसे समाज के दूसरे लोगों की अपेक्षा नहीं है, तो वह भी गलती पर है। माना वह जीवन की बहुत-सी आवश्यकताओं को पूरा करने वाली वस्तुयें अपने खेत में पैदा कर लेता है, तब भी वह पूरी तरह आत्म-निर्भर नहीं है। खेती के लिये उसे जिन बहुत से उपकरणों की आवश्यकता होती है, उनमें से कुछ भी तो वह खुद नहीं बना सकता। उनके लिए उसे बढ़ई, लुहारों, कारखानों और कारखानेदारों पर निर्भर रहना होता है। यदि यह सब लोग उसके साथ असहयोग करने लगें तो उसकी खेती का काम बन्द हो जाते देर न लगे।
यदि कभी मजदूर के मन में भी ऐसा अहंकार उत्पन्न हो जाये तो वह भी गलती पर होगा। यदि वह सोचले कि उसकी आत्म-निर्भरता का आधार तो उसका श्रम है, जो न किसी खेत में पैदा होता है और न किसी कारखाने में बनता है और न बाजार में बिकता है। वह तो उसके शरीर में रहता है, और निसर्ग द्वारा मिला होता है। यह बात सही होने पर भी पूरी तरह सही नहीं है। श्रम उसका अपना अवश्य होता है तथापि उसको काम देकर सहयोग न दिया जाये तो उसकी यह विशेषता बेकार चली जाये। जब उसे खेती, कारखानों और निर्माणों में लगाया जाता है, तभी उसका श्रम सार्थक होकर उसके काम आ पाता है। इस प्रकार मजदूर भी सर्वथा आत्म-निर्भर नहीं है, उसे भी उसी प्रकार अनेक वर्गों पर निर्भर रहना होता है, जिस प्रकार समाज के अनेक वर्ग उस पर निर्भर रहते हैं।
धन, जिसको कि मनुष्य की एक बड़ी शक्ति माना जाता है, समाज के सहयोग से ही किसी को मिल पाता है। धन पाने के लिये जब भी जो कुछ किया जायेगा, उसमें समाज के सहयोग की आवश्यकता पड़ेगी ही। पैसे के जोम में यह कहना कि मुझे न तो समाज की परवाह है और न किसी व्यक्ति की एक ऐसा झूँठा अहंकार है जिसका अर्थ समाज के प्रति धृष्टता के सिवाय और कुछ नहीं होता।
जहाँ तक जन-बल का प्रश्न है सो वह भी समाज द्वारा ही प्राप्त होता है। जन जिनका कि किसी को बल होता है समाज के ही सदस्य होते हैं। उनमें से कोई भी समाज के बाहर का व्यक्ति नहीं होता। समाज ही उनका पालन-पोषण करता है। समाज में ही वे जन्म लेते हैं और समाज की सम्पत्ति द्वारा ही उनकी वृद्धि होती है। यदि समाज ऐसे बलदायक जनों का सर्वथा बहिष्कार कर दे तो दूसरों की ताकत बनना तो दूर खुद उनका अपना अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाये। जन-बल भी किसी का अपना बल नहीं होता, वह भी समाज की ही देन होती है। समाज द्वारा पाये बल के आधार पर समाज की ही उपेक्षा करना कहाँ का न्याय माना जा सकता। व्यक्ति का अपना अस्तित्व कुछ नहीं। वह हर प्रकार से समाज पर ही निर्भर रहा करता है।
प्रत्येक समाज द्वारा ही सहायता पाकर आगे बढ़ता और ऊपर चढ़ता है। समाज का सहारा लिए बिना उसका एक कदम भी चल सकना सम्भव नहीं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक सीमित क्षमता होती है। कोई भी व्यक्ति न अपने में पूर्ण है और न सर्वथा आत्म-निर्भर। यदि एक डाक्टर चिकित्सा के क्षेत्र में योग्य होता है, तो एक इंजीनियर निर्माण के क्षेत्र में। यदि एक कलाकार अपनी रचना के क्षेत्र में माहिर होता है, तो राजनीतिज्ञ अपने क्षेत्र में। कलाकार चिकित्सा के क्षेत्र में डाक्टर पर निर्भर है, तो डाक्टर साहित्य के क्षेत्र में राजनीतिज्ञ को निर्भर बनाता है तो राजनीतिज्ञ के क्षेत्र में उसे राजनीतिज्ञ पर निर्भर होना पड़ता है। जीवन के सारे क्षेत्र आवश्यक होते हैं। पर कोई भी एक व्यक्ति स्वयं अपने आप हर क्षेत्र में अपना काम नहीं चला सकता। अपना क्षेत्र छोड़ कर उसे दूसरे क्षेत्र में किसी और पर निर्भर होना होगा।
इसके अतिरिक्त समाज पर निर्भरता के और भी रूप हैं। क्या कोई व्यक्ति जो अपने किसी विशेष क्षेत्र का समर्थज्ञानी है, योंही अपने आप ऐसा योग्य बन गया। नहीं ऐसा कदापि नहीं होता। वह अपने विषय का ज्ञान भी समाज के दूसरे लोगों से प्राप्त करता है। उदाहरण के लिये एक इंजीनियर को ही ले लीजिये। इंजीनियर बनने से पूर्व वह एक विद्यार्थी रहा होगा। वह ऐसी शिक्षण संस्थाओं में पढ़ा होगा, जिसे दूसरे लोगों ने बनवाया होगा और ऐसे लोगों ने उसे पढ़ाया होगा, जो स्वयं भी किन्हीं संस्थाओं में किन्हीं दूसरे लोगों द्वारा पढ़ाये गये होंगे। इसके अतिरिक्त किताबों तथा अन्य शिक्षा सामग्री की भी आवश्यकता पड़ी होगी। वह सब भी तो समाज के दूसरे लोगों द्वारा तैयार की जाती है। और सबसे बड़ी बात यह कि उसकी शिक्षा पर उसके अभिभावकों का जो पैसा खर्च हुआ होगा, वह भी उन्हें समाज की सहायता एवं सहयोग से ही तो मिला होगा। यही बात एक इंजीनियर पर ही नहीं कुछ हेर-फेर के साथ सभी लोगों पर घटित होती है। तब कोई भी व्यक्ति यह अहंकार कैसे कर सकता है कि उसे ने तो किसी व्यक्ति की परवाह है और न समाज की चिन्ता। और यदि वह यह सब जान कर भी अपने विचारों में सुधार नहीं करता तो कभी भी समाज द्वारा अपनी इस मिठाई का दण्ड पा सकता है।
जिस प्रकार बूँद-बूँद से सागर और ईंट-ईंट से भवन बनता है, उसी प्रकार जन-जन मिल कर विशाल समाज का निर्माण करते हैं। जिस प्रकार जल की एक प्रथम बूँद का अपना कोई अस्तित्व नहीं और जिस प्रकार दूसरों से पृथक रह कर एक अकेली ईंट, मिट्टी के एक निरर्थक ढेले से अधिक कोई महत्व नहीं रखती, उसी प्रकार समाज पृथक एक अकेले व्यक्ति का भी न तो कोई अस्तित्व है और न महत्व। अपनी विशाल राशि से अलग हुई पानी की एक अकेली बूँद को जिस प्रकार हवा का एक झोंका सुखा देता है, उसी प्रकार समाज से अलग एक अकेले व्यक्ति को समय की चपेट शीघ्र ही नष्ट कर देती है। जिस प्रकार परस्पर एक दूसरे से जुड़े रहने और एक दूसरे को सहारा दिये रहने पर प्रत्येक ईंट की भवन के रूप में सुरक्षा भी है और महत्व भी, उसी प्रकार पारस्परिक सहयोग और सहायता के आधार पर समाज के रूप में प्रत्येक व्यक्ति की रक्षा और महत्व है। समाज से पृथक रहकर न तो वह अपना अस्तित्व सुरक्षित रख सकता है और न व्यक्तित्व। अपने अकेलेपन पर अहंकार करना मनुष्य का बहुत बड़ा भोलापन है।
जो मनुष्य अहंकार भाव से प्रेरित होकर और समाज को ठेल कर आगे बढ़ना चाहते हैं वे अपने मन्तव्य में कभी सफल नहीं हो पाते। संसार के सफल एवं उन्नत व्यक्तियों की यदि जीवन गाथा देखी जाये, तो पता चलेगा कि अन्य गुणों के साथ सामाजिकता का गुण भी उनमें बहुत रहा है। वे सदैव ही समाज के प्रति विनम्र, उदार और हितैषी रहे होते हैं। उन्होंने कभी भी कोई ऐसा काम नहीं किया होता जिससे समाज की हानि और अवहेलना होती रही हो।
समाज की उपेक्षा कर चलने वाले अहंकारी व्यक्ति बहुधा अपराध कर्मों की ओर चले जाते हैं। अपराध वही लोग करते हैं, जिन्हें समाज की चिन्ता नहीं होती उसका हानि-लाभ नहीं दीखता। ऐसे लोग ही अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए समाज की मर्यादाओं को लाँघते और उसकी सर्वमान्य मान्यताओं को ठुकराते चले जाते हैं और अन्त में अपने किये को दण्ड रूप में भरते हैं। ऐसे ही समाज विरोधी लोग जल जाते हैं, निन्दित और तिरस्कृत होते हैं। समाज जब उनकी अनुचित कार्यवाही की ओर ध्यान देता है, तब उनकी रक्षा सम्भव नहीं होती। वे जहाँ भी बचाव के लिये जाते हैं, वहीं उन्हें तिरस्कार, अवहेलना और असहयोग का भाजन बनना पड़ता है। ऐसे अहंकारवादी व्यक्तियों का अन्त बड़ा ही अशांत, अयोग्य और संतापपूर्ण होता है। उनका वह मानव-जीवन बिल्कुल बेकार चला जाता है, जिसका समाज के हेतु सदुपयोग कर वे यश और प्रतिष्ठा के अधिकारी बन सकते थे। समाज की उपेक्षा अपनी ही उपेक्षा है और उसकी हानि भी अपनी ही हानि होती है। इस सत्य को कभी भी न भूलना चाहिये।
व्यक्ति और समाज दोनों का कल्याण इसी बात पर निर्भर है कि व्यक्तिवाद का अहंकार छोड़ कर समाजवाद की उदारता ग्रहण की जाय। व्यक्ति की वास्तविक शक्ति और सच्चा लाभ समाज की ही शक्ति और समाज का ही लाभ होता है। अपनी किसी व्यक्तिगत शक्ति और समृद्धि के जोश में समाज की उपेक्षा का दम भरना वैसा ही खतरनाक है, जैसा कि किसी छोटी-सी बूँद का सागर से अलग होकर अपना अस्तित्व बनाये रखने का दम्भ। समाज की उपेक्षा में नहीं व्यक्ति का मंगल समाज के रंजन में है और वही हम सबको करना चाहिये।