प्रसन्न यों रहा जा सकता है

August 1968

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यह एक सनातन एवं सर्वमान्य सत्य है कि संसार के प्राणी मात्र प्रसन्नता- एक चिरस्थायी प्रसन्नता चाहते हैं, और उसे पाने के लिये प्रयत्नशील भी रहते हैं। मनुष्य को जागने से लेकर सोने तक और काम करने से लेकर मनोरंजन करने तक की सारी क्रियायें, सारे कार्य-कलाप एक मात्र प्रसन्नता की उपलब्धि के लिये ही होते हैं। मनुष्य का एक काम भी ऐसा नहीं होता, जो प्रसन्नता के सुख का लक्ष्य करके न किया जाता हो।

यदि मनुष्य का सारा जीवन एक स्थायी प्रसन्नता पाने के लिये क्रियाशील रहता है तो इसके लिये उसे कोई दोष नहीं दिया जा सकता। उसे ऐसा करना ही चाहिये। प्रसन्नता की प्राप्ति उसका कर्तव्य और अधिकार दोनों ही हैं। मनुष्य जीवन की सार्थकता की प्रसनृनता पर निर्भर है। जो दुःखी, अप्रसन्न, क्षुब्ध अथवा अशाँत है, उसका जीवन निरर्थक एवं निःसार ही माना जायेगा। अप्रसन्नता असफलता का सबसे प्रमुख प्रतीक तथा चिन्ह है। दुःखी व्यक्ति न तो स्वयं का ही कुछ भला कर सकता है और न समाज का। जब मनुष्य मानसिक रूप से पुष्ट-तुष्ट एवं प्रसन्न होता है तभी उसमें वह सामर्थ्य प्रबुद्ध होती है, जिसे कल्याण कर्मों की जननी कहा जा सकता है। रो-झीक कर जीवन बिताना, मनुष्यता का अनादर तथा जीवन का अमाँगलिक विनाश है।

हँसते-खेलते हुए एक सुविकसित फूल की तरह प्रफुल्ल जीवन-यापन करना ही बुद्धिमत्ता है, पुण्य तथा पुरुषार्थ है। मनुष्य परमात्मा का अंश है, उसका ही एक स्वरूप एवं प्रतिबिम्ब है। इसलिये अपने अंशी की तरह ही उसका भी सत्य स्वरूप सत्-चित् आनन्द ही है। अपने इस स्वरूप को पाने का अधिकार ही नहीं है, अपितु परम पुनीत कर्तव्य है। जिसे पूरा करना ही चाहिये।

मनुष्य प्रसन्नता चाहता है और उसके लिये सतत् प्रयत्नशील भी है। किन्तु यह देख कर कम आश्चर्य नहीं होता कि वह उसे पा नहीं रहा है। इसके विपरीत अधिकाँश लोग रोते, झींकते हुए दुःखी तथा चिन्तित ही दिखाई देते हैं। संसार में ऐसे कितने व्यक्ति होंगे, जो वास्तविक रूप में जिन्हें प्रसन्न कहा जा सकता है?

प्रसन्नता के प्रति मानव प्रयत्नों की इस असफलता को देख कर यह विचार आये बिना नहीं रहता कि निश्चय ही या तो मनुष्य प्रसन्नता का सही अर्थ तथा स्वरूप ही नहीं समझता है अथवा उसके प्रयत्नों की दिशा ही गलत है।

इस उद्भूत विचार पर गहराई से मनन करने पर विदित होता है कि भ्रमवश मनुष्य की यह धारणा विश्वास के रूप में बदल गई है कि प्रसन्नता का सुख, साधनों की उपलब्धि एवं अनुकूलता पर निर्भर है। बाह्य साधनों का संपर्क अथवा उनका उपभोग मनुष्य की आत्मा में प्रसन्नता को जन्म देता है। यदि साधन-सुविधायें नहीं हैं तो उसको प्रसन्नता की ओर से निराश ही रहना होगा।

मनुष्य की यह धारणा भ्रान्त एवं असफलताजनक है। प्रमाण रूप में उन हजारों साधन सम्पन्न व्यक्तियों को देखा जा सकता है, जो जल के बीच प्यासी मछली की तरह तड़पते रहते हैं। आधुनिकतम उपलब्धियों से सजे भवन में रहते हुये, सुधा-स्वाद व्यंजनों की थाली के सम्मुख बैठे हुए और चमचमाती हुई मोटर गाड़ियों में चलते हुए भी वे अपने अंदर एक अभाव, एक रिक्तता, कसक और उद्विग्नता का अनुभव करते रहते हैं, रहने को वे इन्द्र की तरह रहते हैं, खाने को बहुमूल्य पदार्थों का भोग लगाते हैं, पहनने को रेशम तथा कंचन पहनते हैं किंतु अंदर से एक कंगाल की तरह दीन-हीन एक दुखिया की तरह निरीह और एक सजे हुए निर्जीव शरीर की तरह अनुभव करते रहते हैं। अपनी आन्तरिक निर्धनता को वे भले ही अपने बाह्य साधनों के द्वारा दूसरों से छिपाये रखें किंतु स्वयं अपने से तो छिपा ही नहीं सकते। इस प्रकार एक निर्जीव मशीन की तरह वे अपनी गलत धारणा के आधार पर प्रसन्नता के लिये बाह्य साधनों के संचय में ही अपना सारा जीवन लगा कर अन्त में एक असफल तथा अप्रसन्न मौत मर कर दुनिया से खाली हाथ चले जाते हैं। प्रसन्नता के प्रकाश की आधी किरण भी न पा पाते और इस प्रकार एक दिन अपने अज्ञान के अन्धकार में विलीन हो जाते हैं।

साधन सम्पन्न व्यक्तियों की यह असफलता प्रकट करती है कि प्रसन्नता का निवास बाह्य पदार्थों में नहीं मनुष्य के आन्तरिक आवास में है। प्रसन्नता वास्तव में एक ऐसी अनुमति है, जो बिना किसी बाह्य साधनों के स्वतः उद्भूत एवं अनुभव होती है। तन, मन से स्वस्थ एवं सुचारु व्यक्ति के मुख पर प्रसन्नता की झलक यों ही बिना किसी हेतु के बनी रहती है। उनका अन्तर बिना किसी सहायता के यों ही प्रसन्न एवं प्रकाशित रहता है। सुविधाओं में ही नहीं बड़ी-बड़ी असुविधाओं में भी उनका यह अमर प्रकाश मन्द नहीं होने पाता। साधारण संकटों की तो बात ही क्या जीवन पर संकट आ जाने पर भी वे हंसते और मुसकाते रहते हैं।

ईसा, सुकरात, बुद्ध, दयानन्द तथा गाँधी जैसे महात्मा, गुरु अर्जुन देव, गोविन्द सिंह, बन्दा वैरागी जैसे धर्मवीर तथा बिस्मिल, आजाद, भगत सिंह आदि देश-भक्त इस सत्य के जीते जागते उदाहरण हैं। जीवन भर देश-धर्म तथा मनुष्यता की सेवा में तिल-तिल मिटते तथा असुविधा एवं अभावपूर्ण परिस्थितियों में रहते हुए भी यह सब सदा प्रसन्न रहे और अन्त में हंसते-हंसते ही मृत्यु का आलिंगन कर अपना बलिदान पूरा कर दिया। प्रसन्नता एक आन्तरिक वैभव है उसको बाह्य साधनों के अधीन मानने की धारणा गलत है। अपनी इस भ्रान्त धारणा में सुधार न करने वाले ही साधनों के पीछे दौड़ते हुये अपने लक्ष्य-मार्ग से भटक कर दुःखों के गर्त में गिर जाया करते हैं।

यह बात सत्य है कि सन्तों, महात्माओं तथा बलिदानी वीरों का मानसिक स्तर, सामान्य लोगों से कुछ भिन्न होता है। वे सर्वथा अभाव की स्थिति में केवल अपने मानसिक बल पर प्रसन्न रह सकते हैं। केवल बाह्य साधनों में प्रसन्नता की खोज करना बालू से तेल निकालने और मरुमरीचिका के पीछे दौड़ने के बराबर है, जन-साधारण एवं सामान्य व्यक्तियों को प्रसन्नता के लिये साधनों के साथ अपने मानसिक सुधार की भी आवश्यकता होगी।

लक्ष्य के प्रति जिसकी धारणा गलत है, निश्चय ही उसकी प्राप्ति के लिये किये जाने वाले साधन भी सही नहीं हो सकते। सामान्यतः देखने में आता है कि जहां। किसी धनवान का ऊँचा और सजा हुआ मकान देखा, किसी का लम्बा-चौड़ा व्यापार देखा और अनुमान लगाया कि विश्वास बना बैठा कि यह मनुष्य आवश्यक ही प्रसन्न एवं सुखी होगा। इस प्रकार वह भी लक्ष्य प्राप्ति के लिये, धन के लिये अपने सारे जीवन और समग्र प्रयत्नों के केन्द्रीभूत कर देता है। किन्तु धनवान बन जाने के बाद भी व देखता है कि वह प्रसन्नता पाने के उद्देश्य में असफल ही रहा है। वह आज भी वैसा ही असंतुष्ट एवं अप्रसन्न है जैसा कि अधीनता की स्थिति मैं था। धनाढ्यता उसके प्रसन्नता-शून्य मानस की रिक्तता को नहीं भर सकी है। कहना न होगा कि यदि वह व्यक्ति अपने प्रयत्नों के प्रवाह को दो भागों में विभाजित कर साधन और मानसिक उत्थान दोनों की ओर उन्मुख करता है तो वह केवल धनता की अपेक्षा कहीं अधिक सुखी एवं प्रसन्न होता है।

धन की तरह बन, बुद्धि, विद्या, मान-सम्मान, आदर, प्रतिष्ठा आदि अन्य ऐश्वर्य भी स्वयं अपने आप किसी को भी प्रसन्नता प्रदान नहीं कर सकते। मनुष्य को प्रसन्नता तब ही मिल सकती है, जब वह अपने साधन और ऐश्वर्यों का उपभोग अपने आन्तरिक सुधार और उत्थान में लगाये।

धारणा और प्रयत्न की गलती के साथ-साथ प्रसन्नता प्राप्त न होने का एक कारण यह भी है कि हम उसे पाने के लिये उसके पीछे बुरी तरह दौड़ते फिर रहे हैं। हमारा यह दौड़ना उसी प्रकार का निरर्थक और हास्यास्पद प्रयास है, जैसे किसी हिरन का मरीचिका के पीछे और किसी अबोध बालक का अपनी आगे पड़ी छाया को पकड़ने के लिये दौड़ना। भ्रांति के कारण बाह्य पदार्थों में दिखने वाली प्रसन्नता एक छलावा है, धोखा है, जिसे प्राप्त करने का प्रयत्न अबोधता के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता। प्रसन्नता का निवास आपके अन्तर में, आपकी अन्तरात्मा में है। उसे वही खोजिये आपका प्रयास सफल और आपका जीवन सार्थक होगा, अपने लक्ष्य को पाकर आप कृतकृत्य हो जायेंगे।

इसी समाधान के साथ अब यह प्रश्न उठ सकता है, अन्तर में निवास करने वाली प्रसन्नता को कैसे खोजा और किस प्रकार प्राप्त किया जाये? इसके उत्तर में समझ लेना चाहिये कि प्रसन्नता एक निराकार अनुभूति मात्र है। वह कोई ठोस पदार्थ अथवा द्रव्य नहीं है, जिसको हाथ बढ़ा कर उठाया और पाया जा सकता है। प्रसन्नता को जगाने और उसकी पुलक प्राप्त करने के लिये कुछ ऐसे निराकार, साकार, भावात्मक प्रयत्न करने होंगे, जिन्हें यदि देना चाहें तो धर्म, परमार्थ, पुण्य अथवा अव्यापक की संज्ञा दी जा सकती है। प्रसन्नता प्राप्ति का रहस्य इन्हीं यज्ञीय अथवा मानवीय कृत्यों में अन्तर्भूत हुआ रहता है।

ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, स्वार्थ एवं असंतोष आदिक विरोधी भावों को यदि हृदय से दूर कर दिया जाये तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य जीवन से प्रसन्नता का अभाव दूर न हो जाये। मानसिक पवित्रता का दूसरा नाम प्रसन्नता ही है। जब कोई हृदय दुर्भावों से मुक्त होकर पवित्र हो जाता है, उसके विरोधी अथवा विपरीत भावों का विरोध हो जाता है तो उसमें प्रसन्नता की अनुभूति स्वयं जागृत हो जाती है।

ईर्ष्या-द्वेष, छल-कपट आदि का समाधान हो जाने पर मनुष्य के हृदय में श्रद्धा, प्रेम, सहानुभूति, उदारता और सौहार्द के भावों का समावेश हो जाना स्वाभाविक ही है, क्योंकि यह गुण उन दुर्गुणों के स्थानापन्न भाव हैं। दुर्गुणों के नष्ट होने पर यह गुण ठीक उसी प्रकार स्वयं आ जाते हैं, जिस प्रकार मद के उतर जाने से चेतना प्रबुद्ध हो उठती है।

यह सही है कि मानसिक मलों को सहज रूप से यों ही नष्ट नहीं किया जा सकता। इसके लिये साधना करनी ही होगी। और कहा जा सकता है असाधारण के पास इतनी शक्ति एवं समय कहाँ कि वह अपना मनोमालिन्य दूर करने के लिये साधन संलग्न हो सके। उसके पास परिवार और परिस्थितियों-जन्य इतनी समस्यायें होती हैं कि उनका हल खोजते-खोजते ही सारा जीवन निकल जाता है। इस प्रकार का कथन निराशा एवं निष्क्रिय भावना की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। प्रसन्नता प्राप्त करने के लिये, साधना करने के लिये अलग से शक्ति अथवा समय की आवश्यकता नहीं है। उसका अभ्यास तो नित्य प्रति के कामों एवं व्यवहारों से ही किया जा सकता है।

सबको अपने समान ही ईश्वर का अंश समझ कर समानता एवं सम्मानपूर्ण व्यवहार करना दूसरों के दुख-सुख को अपना दुख-सुख समझना, यथाशक्ति किसी का उपकार करना और प्राणी-मात्र में बन्धुत्व का भाव रख कर दया, उदारता और सहानुभूति का व्यवहार करना कोई ऐसी बड़ी तपस्या नहीं है, जिसके लिये विशेष शक्ति और समय की आवश्यकता पड़े।

कभी भी अनुभव किया जा सकता है कि जब हम किसी की उन्नति, सफलता अथवा उपलब्धि को ईर्ष्या-द्वेष से परे होकर देखते हैं तो हमें एक अहेतुक तथा आत्मीय प्रसन्नता का अनुभव होता है। जिस दिन भी हमारा एक कार्य अथवा एक कथन किसी दूसरे को प्रसन्न कर देता है, वह दिन हमारे लिये बड़ा प्रसन्न दिन होता है। जब हम किसी के लिये कुछ त्याग करते हैं, तब हमारे हृदय में एक अनिवर्चनीय संतोष की पुलक उत्पन्न हो जाती है। जब हम किसी दुखी के साथ सहानुभूति प्रकट करते हैं, तो हमारे स्वयं आँसू निकल आते हैं, जिनमें एक आध्यात्मिक सुख की छाया तक होती है। इस प्रकार कहना न होगा कि जब हम दूसरे की प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता का एकीकरण कर देते हैं तो हमारे लिये संसार में किसी ओर और किसी भी परिस्थिति में अप्रसन्नता का कोई भी अवसर एवं अवकाश नहीं रह जाता।

निश्चय ही हमें प्रसन्नता प्राप्त करने के लिये सौहार्द, सहानुभूति और सौजन्य के व्यवहार को अपने जीवन में स्थायी स्थान देना ही चाहिये। और यदि हम जीवन के परम लक्ष्य प्रसन्नता जैसी महान उपलब्धि के लिये इतना छोटा तप, इतना साधारण प्रयत्न भी नहीं कर सकते तो हमें कोई अधिकार नहीं है कि हम उस आनन्द के लिये लालायित हों। हमें दुखी रहना ही चाहिये और उसकी शिकायत करने की अनधिकार चेष्टा से विरत होना चाहिये।


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