श्रम सन्तुलन और आहार विहार की सुव्यवस्था बनाये रखकर शारीरिक तनाव से बचा जा सकता है। मानसिक श्रम को बदलते रहकर और प्रस्तुत कार्यों में दिलचस्पी रखते हुए उन्हें सुव्यवस्थित बनाने का कला कौशल प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति से मानसिक तनावों से बचा जा सकता है। हंसते मुस्कराते हुए हल्का-फुल्का जीवन जिया जा सकता है और सामान्य जीवन में आने वाली कठिनाइयों समस्याओं से बचा जा सकता है। सबसे कठिन और जटिल है भावनात्मक विकृतियां तथा भीरूता जन्य तनाव।
भावनात्मक विकृतियों तथा भीरुता जन्य तनावों में चिन्ता और भय प्रमुख हैं। इनमें से चिन्ता एक ऐसी भावनात्मक विकृति है जिससे अधिकांश लोग ग्रस्त रहते हैं।
अधिकांश व्यक्ति अधिकतर समय किसी न किसी चिन्ता के तनाव से व्यग्र-बेचैन रहते और तड़पते रहते हैं। चिन्ता सदा बड़ी या विशेष बातों को ही लेकर नहीं होती। कई बार तो बहुत ही मामूली, छोटी-छोटी बातों को लेकर लोग चिन्ता पालते रहते हैं। मन तो है, वैसा अभ्यास डाल दिया जाय, बेचारा वफादार नौकर की तरह वैसा ही आचरण करने लगता है। जब अपनी चिन्ता नहीं होती, तो पड़ौसियों के व्यवहार-विश्लेषण और छिद्रान्वेषण द्वारा चिन्ता के नए-नए आधार ढूंढ़ निकाले जाते हैं। या फिर समाज के बिगड़ जाने, लोगों में भ्रष्टाचार फैल जाने, खाद्य पदार्थों में मिलावट की प्रवृत्ति बढ़ने, दो लड़के-लड़कियों द्वारा अन्तर्जातीय प्रेम विवाह कर लेने, मुहल्ले की किसी बारात की व्यवस्था ठीक न होने, किसी नवविवाहित दम्पत्ति का ‘पेयर’ ठीक न होने आदि की गम्भीर चिन्ताएं, प्रसन्नता और एकाग्रता को चाट जाने के लिए पर्याप्त ही सिद्ध होती हैं। मोटर में बैठे हैं, तो चिन्ता लगी है कि कहीं मोटर के सामने से आ रहे किसी ट्रक या बस की भिड़न्त न हो जाए, अथवा चालक निद्राग्रस्त न हो जाए, वायुयान में जा रहे हैं, तो चिन्ता हो गई है कि कहीं यह विमान सहसा नीचे न गिर जाए।
धर्मपत्नी किसी से सहज सौम्य वार्तालाप कर रही है, तो पति महोदय को चिन्ता हो गई है कि कहीं यह व्यक्ति इस वार्तालाप को अपने परिचितों के बीच गलत रूप में न प्रचारित करे। यानि कहीं उससे मेरी बुराई न करती हो अकेले में। कहीं धर्मपत्नी स्वभाव से मितभाषी हुई, तो चिन्ता है कि लोग इसे मूर्ख या घमण्डी न समझ बैठें। इसी तरह पति महोदय कार्यालय से देर से आए तो पत्नी चिंतित है कि कहीं मेरे प्रति इनका प्रेम घट तो नहीं रहा। ऐसे लोग हैं, जिन्हें उनके परिचित यदि व्यस्तता में या कि अन्यत्र ध्यान दिए होने के कारण किसी दिन नमस्कार करना भूल जाएं, तो उन्हें चिन्ता होने लगती है कि कहीं मेरे प्रति इसकी भावना तो परिवर्तित नहीं हो गई।
है तो चिन्ता एक काल्पनिक उड़ान मात्र। किन्तु व्यक्ति उसे यथार्थ की तरह मानकर तनाव और भय से भर उठते हैं। यह बैठे ठाले अपने शरीर संस्थान को एक अनावश्यक श्रम में जुटा देने तथा कष्ट में फंसा देने वाली क्रिया है। इसके परिणामस्वरूप सर्वप्रथम होता है अपच। क्योंकि उदर-संस्थान स्वाभाविक गति से कार्य नहीं कर पाता। फिर अनिद्रा, सिर दर्द, सर्दी-जुकाम आदि का जो क्रम आरम्भ होता है वह हृदय रोग तक पहुंचकर दम लेता है। मनःशक्ति के अपव्यय से एकाग्रता और मनोबल का ह्रास होता है, स्मरण शक्ति शिथिल होती जाती है, और जीवन में विषाद ही छाया रहता है।
चिन्ता करने का अभ्यस्त मन सोते में देखे गए चित्र विचित्र स्वप्न दृश्यों का मुफ्त के सिनेमा के रूप में आनन्द लेना तो दूर, उनकी अजीबोगरीब व्याख्याएं ढूंढ़ता पूछता रहता और अन्धविश्वास संत्रास तथा मतिमूढ़ता की एक निराली ही दुनिया रचता रहता है वह हताश और भयभीत रहता है तथा अपनी वास्तविक क्षमता का एक बड़ा अंश अनायास ही गंवा बैठता है। विपत्तियों का सामना करने में, शत्रुओं से संघर्ष में जो शक्ति व्यय की जाने पर सफलता और आनन्द प्रदान करती, वह काल्पनिक भय के दबाव से क्षत-विक्षत होती रहती है। ऋण पटाने के लिए, किए जाने वाले पुरुषार्थ में यदि वही शक्ति नियोजित की गई होती, जो कर्ज के भार से लदे होने की चिन्ता में बहाई जा रही है, तो मस्तक ऊंचा होता और चित्त प्रफुल्ल। चोर लुटेरों की, काल्पनिक विपदाओं की चिन्ता व्यक्ति की शक्ति को लीलती रहती है। असफल रह जाने की चिन्ता भी कई लोगों को मृत्यु के समान दुःखदायी प्रतीत होती है। वे इस सामान्य तथ्य को भुला बैठते हैं कि असफलता तो सभी के जीवन में आती-जाती रहती है।
अपने दुराचरण और अपराध पर तो ग्लानि स्वाभाविक है। पर उसकी भी चिन्ता करते रहने से मनःक्षेत्र में कुण्ठा और विषाद की ही वृद्धि होगी। आवश्यक है वैसे आचरण की अपने भीतर विद्यमान जड़ों को तलाश कर उन्हें उखाड़ फेंकना तथा प्रायश्चित के रूप में समाज में सत्प्रवृत्ति के विस्तार में अपना योगदान देना कोई सृजनात्मक विधि अपनाना जिससे मन का वह भार हल्का हो सके।
एक जर्मन मनोवैज्ञानिक ने चिन्ताग्रस्त लोगों का सर्वेक्षण किया। ज्ञात हुए कि मात्र 8 प्रतिशत चिन्ताएं ऐसी थी, जिन्हें वजनदार कहा जा सकता था। 10 प्रतिशत ऐसी थीं, जो थोड़े प्रयास से सुलझ गईं। 12 प्रतिशत स्वास्थ्य सामान्य चिन्ताएं थीं, जो सामान्य उपचार से ही सुलझ गईं। 20 प्रतिशत ऐसी थीं, जो थीं तो वर्तमान से ही सम्बन्धित, पर जो साधारण सूझ-बूझ से सुलझ गईं। सर्वाधिक 40 प्रतिशत चिन्ताएं काल्पनिक समस्याओं और आशंकाओं से सम्बन्धित थीं।
भय भी स्वयं उपार्जित एवं आमन्त्रित ऐसी बीमारी है जो शारीरिक रोगों से कम नहीं अधिक ही कष्टकारक है। शारीरिक रोगों में रक्त मांस ही सूखता है पर भीरुता में शरीर भीतर ही भीतर खोखला, निस्तेज और दुर्बल होता जाता है। इसके अतिरिक्त मानसिक कमजोरी की क्षति और भी बड़ी है। बीमार शरीर को दवा-दारू तथा अच्छे आहार-विहार से जल्दी ही अच्छा कर लिया जा सकता है पर यदि मनःसंस्थान लड़खड़ाने लगे तो मनुष्य विक्षिप्त की श्रेणी में जा पहुंचता है और मस्तिष्कीय विशेषतायें खो बैठने पर पशु जैसा निरर्थक जीवन-क्रम ही शेष रह जाता है। डर की भयंकरता हमें समझनी चाहिए और उससे सर्वथा मुक्ति पाने का प्रबल प्रयत्न करना चाहिए।
डर की प्रवृत्ति मानवीय अन्तःकरण में इसलिये विद्यमान है कि वह सम्भावित खतरे की ओर से सतर्क रहें। और यदि कुछ गड़बड़ी दिखाई पड़े तो उससे बचने के उपाय सोचें। यह आत्मरक्षा की वृत्ति है। जहां तक उसका औचित्य एवं उपयोग हो वहां तक अपनाये जाना ठीक है। आग जल रही है, उससे दूर रहें, कपड़े सम्भालें हैं, उसकी चिनगारियां काई दुर्घटना पैदा न करें यह सतर्कता रखना ठीक है, वन्य प्रदेश में हिंस्र पशुओं की सम्भावना को ध्यान में रखें। छूत के रोगों से बचने के लिए आवश्यक स्वच्छता को अपनायें। अवांछनीय व्यक्तियों के सम्पर्क में अपने बच्चों को न आने दें आदि-आदि सतर्कताएं सजग रखने के लिए डर का उपयोग ठीक है पर अकारण विपत्ति की बात सोचते रहना गलत है। परीक्षा में फेल हो जायेंगे, सड़क पर चलने से दुर्घटना हो जायगी, जमा पैसे वाली बैंक फेल हो जायगी, मित्र विश्वासघात करेगा जैसी आशंकाएं डराती हैं पर समय यही बताता है कि वे सर्वथा निरर्थक और मनगढ़न्त थीं।
‘इलिनोयस इन्स्टीट्यूट आफ टेकनालोजी’ ने डरपोक और चिन्तातुर व्यक्तियों से उनकी परेशानी का कारण पूछा तो विदित हुआ कि उन्हें भविष्य में अपने दाम्पत्य जीवन के असफल हो जाने, बच्चों के आवारा निकलने व्यापार में घाटा पड़ने, बीमारी हो जाने, योजनाओं में असफलता मिलने जैसी चिन्तायें ही सवार रहती हैं। वे इन क्षेत्रों में असफल रहे व्यक्तियों के साथ अपनी तुलना करते रहते हैं। किन्हीं रोगग्रस्त दुर्घटना पीड़ित या ऐसे ही दुखी मनुष्य के साथ बीते हुए घटना क्रम के साथ संगति मिला लेते हैं और एक ऐसा चित्र गढ़ते हैं जिसमें उनकी भी वही दुर्गति चित्रित की गई होती है। यही बुरी चिन्ता आशंकाएं उन्हें निरन्तर भयभीत बनाये रहती हैं।
कई व्यक्ति बालकपन में उनके अभिभावकों द्वारा अधिक डराये या दण्डित किये जाने के कारण डरपोक बन जाते हैं। कुछ के सामने छोटी अवस्था में ऐसी भयानक दुर्घटनाएं गुजरी होती हैं और वे उनसे आतंकित होकर अपना मनोबल खो बैठे होते हैं। कुछ चिन्तन के क्षेत्र में कोई सही साथी न मिलने के कारण एकांकी अपनी कल्पना लोग गढ़ते हैं और उसमें शूल-बबूल बोकर उलझने चुभने वाले कांटे खड़े कर लेते हैं। किसी प्रियजन का विछोह, विश्वासघात, ऊंची आकांक्षा पर अप्रत्याशित आघात, अपमान, घाटा, असफलता, आतंक जैसे कारण भी मनुष्य के भय को इतना बढ़ा देता है कि उसकी स्थिति विक्षिप्त जैसी बन जाती है। बढ़ी हुई स्थिति में तो ऐसे व्यक्ति पागल खाने ही भेजने पड़ते हैं।
अन्दर की घुटन मनःस्थिति को गड़बड़ा देती है और मनुष्य पग-पग पर डरने लगता है तब डाक्टरी भाषा में ‘फेगविया’ या ‘फोविक न्यूरोसिस’ कहते हैं। मानसोपचार में भय के अनुसार निदान वर्गीकरण भी है। मृत्यु का भय—मोनो फीविया, पाप का भय—थैनिटो फीविया, रोग का भय—गाइनो फीविया, काम विकृति आतंक—पैकाटो फीविया, विपत्ति का भय—नोजो फीविया, अजनबी का भय—पैथो फीविया कहलाते हैं और भी इसके कई भेद हैं।
और यह भी मानसिक रोग
मानसिक रोगों की निदान पुस्तकों में आवसेसिव कम्पलसिक न्यूरोसिस, एग्जाइरी जैसे विश्लेषणों के साथ अनेक रूपों, लक्षणों और उदाहरणों के साथ चित्रित किया गया है। साइकोसिस, शाखा में से आर्गेनिक साइकोसिस, फैक्शनल, पैरानायड् जैसे भेद उपभेद हैं। संक्षेप में न्यूरोसिक हलकी और साइकोसिस बढ़ी हुई स्थिति को कहते हैं। हलकी स्थिति में दूसरों के समझाने में रोगी अपनी गलती और सोचने की पद्धति में त्रुटि होने की बात स्वीकार कर लेता है किन्तु बढ़ी स्थिति में नशा इतना गहरा होता है कि उसे यह अनुभव या स्वीकार ही नहीं होता कि वह कुछ गलती कर रहा है। गहरे पागलपन में यही स्थिति हो जाती है। उसे यह तनिक भी आभास नहीं होता कि वह किसी मानसिक रुग्णता का कष्ट भुगत रहा है। वह अपने को सामान्य मानता है दूसरों के द्वारा अपने प्रति किये गये असामान्य व्यवहारों को द्वेष दुर्भाव की संज्ञा देता है।
कई बार दुहरे परस्पर विरोधी विचार एक ही व्यक्ति या कार्य के संबंध में आते हैं। ज्वार में पानी बहुत ऊंचा उठता है और भाटा आने पर वह नीचा चला जाता है। नशा चढ़ने पर ताकत फूटी पड़ती है और उतरने पर शिथिलता बेतरह आ घेरती है। बच्चे के गड़बड़ करने पर क्रोध में माता कस कर चांटा जड़ देती है पर बच्चे के सुबक कर रोते ही उसकी करुणा जग पड़ती है और अपने को कोसते हुए बच्चे को वात्सल्य पूर्वक छाती से चिपटा लेती है। यह परस्पर विरोधी परिस्थितियां हुईं। कुछ मस्तिष्क में प्रिय और अप्रिय भावनाओं के ऐसे ही ज्वार-भाटे रहते हैं। आज अमुक व्यक्ति बहुत प्रिय है कल वही बहुत बुरा लगा, आज जो काम खराब लगता है कल उसी को करने के लिए आकुलता उठने लगी, आज जो निर्माण किया जा रहा है कल उसी को तोड़ डालने की योजना बन कर तैयार हो गई। इस दोगली मनोवृत्ति को ‘‘कैटे टोनिक शिजीफ्रेनिया’’ कहते हैं।
मानसिक रोगों में एक बहु प्रचलित रोग है ‘हिस्टीरिया’। यों यह स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध किसी को भी किसी भी आयु में आरंभ हो सकता है, पर उसका अधिक आक्रमण स्त्रियों पर होता है और उसके आरंभ होने की आयु किशोरावस्था अथवा उसके बाद नव यौवन में प्रवेश करते समय की होती है। मस्तिष्क का शरीर पर से कुछ समय के लिए नियंत्रण टूट जाने और अचेतन में जमी विकृतियों का नंगा नृत्य दिखाने की अवांछनीय स्थिति को हिस्टीरिया, अपस्मार, मृगी आदि नामों से पुकारते हैं।
हिस्टीरिया को एक किस्म का सामयिक एवं मानसिक पक्षाघात कह सकते हैं। साधारण लकवे में भी गड़बड़ी तो मस्तिष्क की ही होती है, पर उसमें सोचने की शक्ति का लोप नहीं होता किन्तु शरीर के हाथ-पैर, मुंह आदि अन्य अंग भी प्रभावित होते हैं। परोक्ष में स्नायु संस्थान को जो आघात लगा है उसे यंत्रों द्वारा जाना, आंका जा सकता है। हिस्टीरिया की स्थिति इससे थोड़ी भिन्न होती है। उसका दौरा कुछ ही समय के लिए आता है और बिना उपचार के अपने आप ही अच्छा हो जाता है। नाड़ी संस्थान की जांच करने पर उसमें कोई खराबी प्रतीत नहीं होती। चेतना का पूर्ण लोप अथवा आंशिक व्यवधान दो ही बातें हो सकती हैं। पूरा दौरा पड़ने पर रोगी बेहोश होकर गिर जाता है। आग में जलने या गहरी चोट लगने तक का पता नहीं चलता। दांत मिच जाते हैं, सांसें लम्बी चलती हैं, घबराहट जैसी आवाजें निकलती हैं, मुंह से झाग गिरता है, हाथ-पैरों में अकड़न तथा ऐंठन के लक्षण दीखते हैं। अधूरे दौरे में गिरने की नौबत नहीं आती। रोगी जो कर रहा था वही करता रहता है। दौरे से पूर्व हाथ जो कर रहे थे, पैर जिधर चल रहे थे उधर ही उनकी गति बनी रहती है। आंखें खुली रहने पर भी ठीक से देख नहीं पातीं। इसी प्रकार कान जीभ आदि भी मस्तिष्कीय नियंत्रण, छूट जाने से अव्यवस्थित हो जाते हैं। दौरे के समय रोगी इच्छापूर्वक किसी अंग से काम नहीं ले सकता। इच्छा शक्ति तक गायब हो जाती है। मस्तिष्क न कुछ सोच सकता है और न कुछ करने का आदेश शरीर के किसी अवयव को दे सकता है। गिर पड़ने वाली और ऐंठन, अकड़न उत्पन्न करने वाली स्थिति तो यह नहीं है फिर भी मस्तिष्क और इन्द्रियों का संबंध विच्छेद तो हो ही जाता है। इन्हीं सभी लक्षणों की न्यूनाधिक मात्रा को सामयिक पक्षाघात कहा जा सकता है।
गैलेन, फ्रायड, वैविनोर्स्क होप आदि के मन विशेषज्ञों के अपने विचार हैं वे कहते हैं असंतोष से मानसिक संतुलन बिगड़ता है उसी की एक प्रतिक्रिया ‘हिस्टीरिया’ है। उनने इसका दोष कामेच्छा एवं दूसरी इच्छाओं की अतृप्ति के सिर थोपा है। शारकोट और वैविनोस्की आदि विशेषज्ञ इसे भय की प्रतिक्रिया मानते हैं वे कहते हैं किसी घटना से अथवा कल्पना, आशंका से डरने वाला मनुष्य हिस्टेरिया का रोगी हो सकता है। शारकोट की खोजों में हिस्टेरिया ग्रसित रोगियों में दो तिहाई संख्या नव युवतियों की होती है और उनमें से अधिकांश का मानसिक संतुलन दाम्पत्य जीवन की विसंगतियों के कारण बिगड़ा होता है। वे कहते हैं स्त्रियां प्रायः मानसिक दृष्टि से बहुत भावुक और कोमल होती हैं। दाम्पत्य जीवन संतुलित रहने पर वे जहां बहुत पुलकित पाई जाती हैं वहां उस संदर्भ में छोटे-मोटे, आघात भी उन्हें तिलमिला देते हैं। यह असंतुलन कितने ही मानसिक रोगों को जन्म देता है। उन्हीं में से एक बहु प्रचलित रोग हिस्टीरिया भी है।
निद्राचार भी एक प्रकार का अपस्मार है। हिस्टीरिया के रोगी की शारीरिक क्रियाएं चलती रहती हैं, पर मन संज्ञा शून्य हो जाता है। मृगी के कुछ रोगी तो बेहोश होकर गिर पड़ते हैं, दांत मिच जाते हैं और मुंह से झाग निकलने लगता है किन्तु कुछ ऐसे भी होते हैं जो दौरा पड़ने से पहले जो काम कर रहे थे उसे ही तब तक करते रहते हैं जब तक कि पूर्ववत् होश में नहीं आ जाते। ऐसे रोगी यदि दौरा पड़ने से पूर्व चल रहे थे तो जिस दिशा में—जिस गति से वे चल रहे थे ठीक उसी तरह चाबी वाले खिलौने की तरह चलते चले जाएंगे। हाथ से यदि पेन्सिल छील रहे थे तो दौरा समाप्त होने तक पेन्सिल का वही हिस्सा छीलते रहेंगे जिसे पहले छील रहे थे। यह भी अपस्मार का एक प्रकार है। इसमें मनुष्य स्वयं तो संज्ञाशून्य रहता है, पर शरीर की अमुक गतिविधियां यथाक्रम चलते रहने से देखने वालों को साधारण स्थिति में काम करते हुए ही प्रतीत होते हैं।
इसी स्थिति का बढ़ा हुआ रूप ‘निद्राचार’ है। सोते-सोते चारपाई से उठकर चल देना और किसी अभ्यस्त क्रम से अभ्यास दिशा में पैरों का उठते जाना, इस क्रम का दौरे के अन्त तक चलते रहना, होश में आने पर अपने को विचित्र स्थिति में पाना, वापिस लौटना और फिर बिस्तर पर सो जाना यह बीमारी या आदत कई व्यक्तियों को देखी जाती है। बचपन में यह शिकायत अधिक होती है। उम्र मढ़ने पर मस्तिष्क का सचेतन भाग प्रखर होता जाता है और सचेतन को ऐसी गड़बड़ियां पैदा करने से रोग देता है। इसलिए बचपन में जिन्हें इस तरह की व्यथा होती है उनमें से अधिकांश की बड़े होने पर छूट जाती है। फिर भी बहुत से व्यक्ति ऐसे होते हैं जिन्हें सदा बनी रहती है। कइयों को यह लोग बचपन में नहीं युवा अथवा अधेड़ अवस्था में उत्पन्न होता है और बहुधा आजीवन बना रहता है।
कई बार तो इस रोग की बड़ी विचित्र स्थिति देखी जाती है जो देखने में नहीं कहने-सुनने में भी बड़ी अजीब लगती है रोगी कोई काम भले चंगों की तरह करता है, उसमें पूरी समझदारी बरतता है, सवाल जवाब करता है, गतिविधियों में हेर-फेर करना होता है तो बिलकुल भले चंगों जैसी समझदारी का परिचय देता है। किसी को सन्देह भी नहीं होता कि यह सब वह अपने सचेतन की मूलसत्ता को प्रसुप्त स्थिति में छोड़कर उसके कामचलाऊ उधार अंश के सहारे यह सारी हरकतें कर रहा है। इस सबके साथ एक विलक्षणता और भी जुड़ी होती है कि जब दौरा समाप्त होने को होता है तो अचेतन उसे चुपचाप वापिस लौटा लाता है और जिस स्थिति में दौरा आरम्भ हुआ था ठीक उसी में ले जाकर छोड़ देता है। फलस्वरूप रोगी को उस पूरे घटना-क्रम का तनिक भी स्मरण नहीं रहता जो उसने घण्टों तक पूरे समझदार आदमी की तरह चलाया था।
डा. जैने ने निद्राचार का एक और भेद बताया है—‘फ्यूग’। इस स्थिति में कुछ समय तक मनुष्य अपनी मूल स्थिति को भूलकर किसी विशिष्ट स्थिति में कल्पित कर लेता है और अपने को सचमुच ही उस स्थिति में मान लेता है। यह मान्यता दूसरे की दृष्टि में कल्पना हो सकती है, पर वह स्वयं उस दौरे की अवधि में सचमुच उस स्थिति में पहुंचा हुआ मानता है। ऐसे व्यक्ति कोई कहानी गड़ लेते हैं और उसके साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर इस तरह वर्णन करते हैं मानो वह सब कुछ निश्चित रूप से उनके साथ घटित हुआ हो और बिना किसी दल छद्म के वे किसी यथार्थता का विवरण सुना रहे हों।
ऐसे दौरे थोड़े समय के हों तो अपनी अनुभूति को भूल भी सकते हैं। कई बार उस समय की स्मृति किसी दिव्य-दर्शन की तरह चिरकाल तक स्मरण भी बनी रहती है। देवी-देवताओं के दर्शन की स्मृतियां प्रायः इसी प्रकार की भ्रमित मनःस्थिति में होती है। भूत−प्रेतों का साक्षात्कार भी बहुधा इसी प्रकार का होता है। किसी को कई तरह की आवाजें सुनाई पड़ती हैं किसी को अक्सर सर्प आदि दिखाई पड़ते हैं जबकि वस्तुतः वहां भूत, सर्प आदि का कोई अस्तित्व नहीं होता।
इस प्रकार की कितनी ही मनोव्याधियों से ग्रस्त मनुष्य अपनी मस्तिष्कीय क्षमताओं का उपयोग नहीं कर पाता और उसे व्यक्तिगत, पारिवारिक सामाजिक जीवन में असफलताओं अनेकानेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है। ऊपर केवल उन्हीं मनोव्याधियों के नाम गिनाये गये हैं जो प्रकट हैं तथा डाक्टरों की पकड़ में आ सकीं। अन्यथा अज्ञात और बहुत सूक्ष्म रीति से प्रभावित करने वाली मनोव्याधियों में से तो एक को भी नहीं पहचाना जा सका है। अन्यथा क्या कारण है कि मनुष्य अपनी मस्तिष्कीय क्षमता का केवल सात प्रतिशत हिस्सा ही उपयोग में ला सके और शेष 3 प्रतिशत भाग निष्क्रिय निरुपयोगी ही पड़ा रहे।
शरीर का कोई अंग निष्क्रिय अक्षम हो जाय तो शारीरिक रोग की निश्चित संभावना समझी जाती है। पक्षाघात जैसे रोगों की कल्पना की जाती है। शरीर स्वास्थ्य के लिए आवश्यक समझा जाता है कि उसका प्रत्येक अंग अवयव क्रियाशील रहने की स्थिति में हो। मस्तिष्क का जब तिरानवें प्रतिशत हिस्सा निष्क्रिय रहता है तो इसका अर्थ यही होना चाहिए कि कोई न कोई मनोव्याधि मस्तिष्क में डेरा जमाये बैठी है और वही मस्तिष्क को ठीक से काम नहीं करने देती। इन मनोव्याधियों से मुक्त कर मस्तिष्क को स्वस्थ संतुलित और सक्रिय बनाया जा सके तो कोई आश्चर्य नहीं कि मस्तिष्क की विलक्षण क्षमताओं से लाभ उठाने और सरल सफल स्निग्ध जीवन जिया जा सके।