मस्तिष्क प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष

​​​अलौकिक कलाकार की अद्भुत संरचना

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मस्तिष्कीय गतिविधियों की प्रत्यक्ष जानकारी को देखते हुए उसे किसी अलौकिक कलाकार की अद्भुत संरचना कहा जा सकता है। वैसा कुछ बना सकने की बात सोचने का साहस ही कौन करेगा, अभी तो उसकी गतिविधियों को समझ सकने में ही बुद्धि हतप्रभ रह जाती है। अनुमान है कि विदित मस्तिष्कीय गतिविधियां बहुत स्वल्प हैं। समूची मानसिक क्षमता का प्रायः सात प्रतिशत ही क्रियाशील पाया जाता है। शेष तो अभी अविदित अर्ध मूर्छित स्थिति में ही सील बन्द स्टोर की तरह सुरक्षित पड़े हैं। जो क्रियाशील हैं वे उस प्रयोजन में काम आते हैं जिसमें सामान्य जीवन की निर्वाह व्यवस्था का संचालन होता है। निर्वाह प्रयोजन तो समग्र जीवन सत्ता का एक छोटा सा अंश है। इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ सोचने और करने को बच जाता है। कभी किसी को उस अविज्ञान को जानने की, निष्क्रिय को क्रियाशील बनाने की और प्रसुप्त को जागृत करने की आवश्यकता पड़े तो उसे इन सील बन्द स्टोरों को खोलना पड़ेगा जो अपने भीतर बढ़ी-चढ़ी दिव्य क्षमताएं छिपाये हुए हैं।

इतने पर भी विभिन्न मानसिक क्रियाकलापों के लिए छोटे बड़े विभिन्न क्षेत्र निर्धारित हैं और अपने-अपने जिम्मे के काम निपटाने में लाखों करोड़ों कोशाएं, चींटियों, दीमकों एवं मधुमक्खियों की तरह एक जुट होकर काम करती देखी जा सकती हैं। इनकी क्रियाशीलता न केवल वर्तमान जन्म के द्वारा संग्रहीत अनुभवों पर निर्भर है वरन् उसमें वंश परम्परागत अनुभवों और अभ्यास का भी भण्डार भरा रहता है। पशु पक्षियों तथा दूसरे जीव जन्तुओं के मस्तिष्क तो प्रायः इन अनुवंश की उपलब्धियों के सहारे ही अपना सारा क्रियाकलाप चलाते हैं।

मस्तिष्क यों शारीरिक अवयव माना जाता है पर जीव चेतना का केन्द्र संस्थान वही है। जड़ और चेतन का संगम इसी को माना जाता है शरीर न रहने पर भी मस्तिष्क का सार-तत्व जीव चेतना के साथ लिपटा रहता है। मरणोत्तर काल में भी उसकी सत्ता बनी रहती है। भूत−प्रेतों को परित्यक्त शरीर के साथ सम्बन्धित घटनाएं स्मरण बनी रहती है और वे उस भूत चिन्तन के आधार पर ही अपना समय गुजारते हैं। वर्तमान और भविष्य के लिए उपयुक्त साधन उनके पास उस स्थिति में नहीं होते अस्तु भूत कालीन स्मृतियों का दबाव ही उन पर छाया रहता है। सम्भवतः मृतात्माओं का नामकरण ‘भूत’ इसी आधार पर किया गया हो। पुनर्जन्म में कइयों को कितनी ही घटनाएं पिछले जीवन की याद बनी रहती हैं और ऐसे कथन बहुत बार आश्चर्यजनक रीति से सत्य पाये जाते हैं। इतनी तो हर किसी को होती है कि भूतकाल के अनुभव एवं संस्कार जन्म-जन्मान्तरों तक चले जाते हैं। जन्म जात विशेषताओं का ऐसा परिचय भी बहुत बार मिलता है जिनकी अनुवंश की तथा पारिवारिक परिस्थितियों के साथ कुछ भी तालमेल नहीं बैठता। पूर्व जन्मों की संग्रहीत पूंजी मस्तिष्क के बहीखाते में जमा रहती है और अपने अस्तित्व के प्रभाव का परिचय नये जन्म में भी देनी रहती है। मस्तिष्क के यों विभिन्न क्रियाकलाप हैं। पर सबकी कार्य पद्धति और प्रणाली अद्भुत-विलक्षण। उन सबका न तो अभी पूर्णतया अध्ययन किया जा सका है और न ही उनके बारे में जाना जा सका है। उदाहरण के लिए स्मरणशक्ति को ही लें, अभी तक ऐसा कोई अन्तिम उदाहरण देखने को नहीं मिला है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि मनुष्य अधिक से अधिक इतना स्मरण रख सकता है। स्मरण शक्ति की प्रखरता से मनुष्य अधिक विचारशील समझा जाता है और उसके ज्ञान की परिधि अधिक बड़ी होती है। जबकि भुलक्कड़ लोग महत्वपूर्ण ज्ञान संचय से तो वंचित रहते ही हैं साथ ही दैनिक काम-काल में भी जो आवश्यक था उसे भी भूल जाते हैं और समय-समय पर घाटा उठाते तथा ठोकरें खाते हैं।

किसी-किसी को स्मृति की प्रखरता जन्म-जात रूप से भी मिलती है और वह इतनी पैनी तथा व्यापक होती है कि दूसरे लोग चमत्कृत होते और अवाक् रहते देखे जाते हैं। इङ्ग्लैंड निवासी एक अन्धे व्यक्ति फिडिग को दस हजार व्यक्तियों के नाम याद थे। इतना ही नहीं वह आवाज सुनकर उस व्यक्ति का नाम बता देता था। इसी प्रकार की विलक्षणता एक और माण्टुगुनस नामक अंग्रेज में थी। वह जन्मान्ध था। पच्चीस वर्ष तक उसने पोस्टमैन का काम किया। घर-घर जाकर चिट्ठी बांटता था। उसके बांटने में कभी गलती नहीं पकड़ी गई। वह पत्रों को सिलसिले से लगाता था और बांटने से पहले दूसरों की सहायता से नाम और क्रम मालूम कर लेता था। इतने भर से हर दिनों सैकड़ों चिट्ठियां बांटने में उसकी स्मरण शक्ति सही काम दे जाती थी।

जर्मन इतिहास में स्मरण शक्ति की प्रखरता के लिए विद्वान नेबूर प्रसिद्ध है। यह ख्याति उन्हें सबसे प्रथम तब मिली जब वे एक दफ्तर में क्लर्क थे। कागजों में संयोग वश आग लग गई। इस पर नेबूर ने सारे रजिस्टर और जरूरी कागज पर मात्र स्मरण शक्ति के आधार पर ज्यों के त्यों बना दिये। इसके बाद वे अपनी स्मृति की विलक्षणता के एक से एक बड़े प्रमाण देते चले गये और उस देश के प्रख्यात लोगों में गिने गये।

जर्मनी में ही म्यूनिख की नेशनल लाइब्रेरी के डायरेक्टर जोनफ वर्नहर्ड डोकन की भी ऐसी ही ख्याति है। उन्हें आती तो कितनी ही भाषाएं थीं, पर 9 भाषाओं पर उनका पूरा अधिकार था। उन्हें पत्र-व्यवहार बहुत करना पड़ता था। इसके लिए उनके पास नौ विभिन्न भाषाओं के नौ अलग-अलग सेक्रेटरी थे। वे सबको एक साथ बिठा लेते थे और सभी को पत्र लिखाते जाते थे। इतना ही नहीं उन्हें पूरी बाइबिल अक्षरशः कण्ठस्थ थी। प्रसंग के अनुसार वे कहीं से भी सुना सकते थे।

मिश्र के बादशाह नासर के पास 20 हजार गुलाम थे। उसे उनके नाम ही नहीं जनम-स्थान, जाति, उम्र और पकड़े जाने का स्थान भी जबानी याद रहता था। कब कौन-सा गुलाम कितने दाम का खरीदा बेचा गया था यह भी उन्हें बिना भूल चूक के याद था।

राजा भोज के दरबारी एक श्रुतिवर नामक विद्वान का उल्लेख मिलता है जो एक घड़ी (24 मिनट) तक सुने हुए प्रसंग को तत्काल ज्यों का त्यों सुना देते थे। इतने पर भी यह नहीं समझा जाना चाहिए कि स्मरण रखने की विशिष्ट क्षमता कोई दैवी वरदान या जन्मजात सौभाग्य ही होता है। वह अन्य शारीरिक क्षमताओं की तरह एक सामान्य सामर्थ्य ही है जिसे प्रयत्नपूर्वक आसानी से बढ़ाया जा सकता है।

मस्तिष्क वित्ता विशारद डा. विल्डर पेनफील्ड ने मस्तिष्क के भीतर एक ऐसी पट्टी का पता लगाया है जो स्मरण शक्ति का मूलभूत आधार है। देखे, सुने और सोचे हुए सभी विचार जो मस्तिष्क में प्रवेश करते हैं उन्हें उस पट्टी में होकर ही गुजरना पड़ता है अस्तु वे स्मृतियां अति सूक्ष्म फिल्मों की तरह अथवा टेप रिकॉर्डर में भरी आवाज की तरह जम जाती हैं और एक कोने में पड़ी रहती हैं। साधारणतया वे स्मृति पटल पर नहीं आतीं पर यदि विशेष प्रयत्न किया जाय तो उन्हें उभारा जा सकता है और कितनी ही पुरानी देखी, सुनी या सोची हुई बात फिर से उसी स्पष्टता के साथ सजग की जा सकती हैं।

स्मरण प्रक्रिया संभालने वाली यह काले रंग की दो पट्टियां हैं जो लम्बाई में लगभग 25 वर्ग इंच और मोटाई में एक इंच के दसवें भाग के बराबर हैं। मस्तिष्क के भीतर यह चारों ओर लिपटी हुई हैं। कनपटियों से नीचे इन्होंने एक से सारे मस्तिष्क का घेरा ही डाला हुआ है। इन्हें ‘टेम्पेरियल कोर टैक्स’ कहते हैं।

डॉक्टर पेनफील्ड ने विद्युत धारा का स्पर्श कराके इस पट्टी के विभिन्न स्थल सजग किये तो वह उन स्थानों में अंकित पुरानी घटनायें और बातें ज्यों की त्यों स्मरण हो आईं। किन्तु जैसे ही वह विद्युत स्पर्श हटाया गया वैसे ही वे बातें पुनः विस्मृत हो गईं। ऐसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत करके उपरोक्त वैज्ञानिक ने सिद्ध किया है कि मनुष्य के पास उसके सारे स्मरण यथा स्थान सुरक्षित रिकार्डों की तरह संग्रहीत रहते हैं। हां वे हर समय स्मरण नहीं आते। प्रयत्न पूर्वक उन्हें उभारा जा सकता है और किसी भी विस्मृत बात को स्मृति पटल पर लाया जा सकता है।

मस्तिष्क 25 वर्ग इंच की देखने में एक छोटी सी पुस्तक है, जिसकी 20 कोशिकायें उसके बीस हजार पृष्ठ हैं। इनमें से प्रत्येक पृष्ठ पर ग्रामोफोन रिकार्डों की रेखाओं की तरह अगणित सचिव स्मृतियां और ध्वनियां ऐसी अमिट स्याही से लिखी गई हैं कि उन्हें आवश्यकतानुसार कभी भी पढ़ा, सुना या देखा जा सकता है। आंखें औसतन 50 लाख चित्र हर दिन उतारती हैं। इसके साथ-साथ ध्वनियों, गन्धों, स्पर्शों, स्वादों एवं विचारों का समुद्र हर घड़ी लहराता रहता है। यह सारा तूफान मस्तिष्क में टकराता है, वह उसे समझता और निष्कर्ष निकालता है। इसके बाद भी उस निरर्थक समझ कर हटा नहीं देता वरन् संभाल संजोकर अपने रिकार्ड दफ्तर में जमा कर देता है ताकि आवश्यकतानुसार उन अनुभूतियों को फिर कभी प्रयुक्त किया जा सके।

यों पुरानी बातें हम भूल जाते हैं। इतनी बातें याद कर सकना सम्भव भी नहीं। इसलिए स्मरण—विस्मरण का क्रम साधारणतया चलता रहता है किन्तु साथ ही यह भी होता रहता है कि दैनिक जीवन में काम आने वाले समस्त घटना क्रम की एक अति सूक्ष्म साउण्ड फिल्म बनती रहती है, जिसे आवश्यकतानुसार कभी भी प्रोजेक्ट किया जा सके।

दैनिक अनुभूतियों में कुछ बहुत ही कटु और सामान्यक्रम के विपरीत होती हैं। वे दूसरों के ऊपर या अपने ऊपर क्रोध व्यक्त करती हुई पैर में गहराई तक चुभे हुए कांटे की तरह दर्द करती रहती हैं। किसी ने अपने साथ दुर्व्यवहार किया है तो यह विक्षोभ दूसरे के प्रति घृणा, द्वेष को क्रोध प्रतिरोध के रूप में उभारता है और यदि स्वयं कोई पाप, अपराध, छल या अनैतिक कार्य किया है तो उसकी क्षुब्ध प्रतिक्रिया आत्म-धिक्कार के रूप में अपने ही ऊपर बरसती रहेगी, दोनों ही परिस्थितियों में ज्वालामुखी की तरह रह रहकर फूटते रहने वाला उद्वेग मनःस्थिति को अशान्त किये रहता है और ज्वरग्रस्त शरीर की तरह उद्वेगग्रस्त मस्तिष्क भी दीन-दुर्बल होता जाता है।

स्मृतियों का भण्डार हर मनुष्य के भीतर सुरक्षित रहता है। पर उन्हें ढूंढ़ने और सामने लाने वाले यन्त्र कुण्ठित हो जाते हैं। इसलिए वे अपने ही दफ्तर की फाइल को आप ढूंढ़ निकालने में असमर्थ हो जाते हैं, यही विस्मृति है। यदि ढूंढ़ निकालने वाले पुर्जों को तेज रखा जाय और उस कार्य में दिलचस्पी एवं फुर्ती बनी रहे तो स्मरण शक्ति तीव्र रखी जा सकती है। कई व्यक्तियों में तीव्र स्मरण की विशेषता जन्मजात होती है पर यह हर किसी के लिए सम्भव हो सकता है कि प्रयत्न पूर्वक उसे अधिक तीव्र और सक्षम बनाले। स्मरण शक्ति के धनी कितने ही व्यक्तियों ने ऐसा ही किया है उनमें यह विशेषता जन्मजात नहीं थी। अभ्यास और मनोयोग के समन्वय से उनने उसे बढ़ाया और आश्चर्य की तरह देखे जाने वाले स्मृति के धनियों में अपना नाम लिखाया।

जापान निवासी हनावा होकाइशी सन् 1722 में जन्मा और पूरे 101 वर्ष जीकर 1823 में मरा। वह सात वर्ष की आयु में अन्धा हो गया था। पर इससे क्या उसने बिना नेत्रों के ही दूसरों से सुनकर अपने ज्ञान वृद्धि आरम्भ कर दी। जो सुना—उसे पूरे मनोयोग के साथ सुना और ध्यान में रखा, फलस्वरूप इसके ज्ञान का कोश इतना बढ़ गया कि उसे एक अद्भुत आश्चर्य माना जाता है। हनावा होकाइशी द्वारा नोट कराये गये ज्ञान भण्डार को जापान में 2820 खण्डों के एक अनुपम विशाल ग्रन्थ के रूप में छापा गया है। यह अब तक का संसार का सबसे बड़ा ग्रन्थ है।

लिथवानियां निवासी कैवी ऐलिजा ने दो हजार से अधिक पुस्तकें याद कर रखी थीं, पूछने पर वह उनका कोई भी पृष्ठ बिना पुस्तक देखे सुना देता था। फ्रेंच राजनीतिज्ञ लिआन गैम्बटा भी इसी श्रेणी में आते हैं। उनकी तुलना ऐलिजा से की जाती थी उन्होंने हजारों पृष्ठ विभिन्न पुस्तकों के याद कर रखे थे। ग्रीक विद्वान रिचाड़े पोरसन को भी चलता फिरता विश्वकोश कहा जाता था उनकी स्मरण शक्ति भी अद्भुत थी।

नेलसन पिल्सवरी को शतरंज का जादूगर कहा जाता था। वह एक साथ बीस शतरंजों को बिछाकर बीस खिलाड़ियों के साथ चालें चलता था और सभी पर उसका पूरा ध्यान रहता था। कई बार तो वह शतरंजों के साथ-साथ कई खिलाड़ियों के साथ ताश खेलना भी आरम्भ कर देता था।

प्रसा (जर्मनी) का पुस्तकाध्यक्ष मैथरिन बेसिरे एक बार जो शब्द सुन लेता था उसे ज्यों का त्यों याद रखता था। एक बार बारह राजदूतों ने उसकी परीक्षा ली। उनकी भाषाओं से मैथरिन सर्वथा अपरिचित थी। एक-एक करके बारहों ने अपनी-अपनी भाषा में बारह वाक्य कहे। उन्हें सुनने के बाद उसने उन शब्दों को क्रमशः ज्यों का त्यों दुहरा दिया। अन्तर तनिक भी नहीं पाया गया।

वरमांट निवासी आठ वर्षीय बालक जेराकोलवर्न के बिना गणित का क्रमबद्ध अध्ययन किये—और बिना कागज कलम की सहायता के दिमागी आधार पर कठिन प्रश्नों के उत्तर देने की जो क्षमता दिखाई उससे बड़े-बड़े गणितज्ञ चकित रह गये। जिन कठिन सवालों को केवल अच्छे गणित ज्ञाता ही काफी समय लगाकर हल कर सकते थे उसने उन्हें बिना हिचके आनन-फानन में कैसे हल कर दिया इसे देखकर सब दंग रह जाते थे। आश्चर्य यह था कि पुस्तकीय आधार पर उसे गणित के सामान्य नियम भी ज्ञात न थे। गणित शास्त्री जेडिडिया वाक्सटन बहुत समय से एक गणित समस्या में उलझे हुए थे, हल निकल नहीं रहा था, एक दिन उनकी भेंट स्मरण शक्ति के धनी जान मार्टिन डेस से हुई। उसने उनका हल मिनटों में बता दिया। गणित सम्बन्धी उलझनों को सुलझाने के लिए डेस अपने समय में दूर-दूर तक प्रख्यात था।

सर जान फील्डिंग इंग्लैण्ड के जज थे। वे अन्धे थे। पर उनके कान इतने सक्षम थे कि अपने जीवन काम में जिन 3000 अपराधियों से उन्हें वास्ता पड़ा था उन सब की आवाज वे ठीक तरह पहचान सकते थे और उसका नाम बता सकते थे। मुकदमों के बाद मुद्दतों बाद वे लोग कभी उनसे मिलने आते तो नेत्र न रहने पर भी केवल स्मरण शक्ति के आधार पर उसका नाम और मुकदमें का सन्दर्भ बता देते थे। उनकी यह अद्भुत स्मरण शक्ति चिरकाल तक चर्चा का विषय बनी रही।

फ्रान्सिस्को मैरिया ग्रापाल्डे नामक एक प्रसिद्ध कवि चौदहवीं शताब्दी के अन्त में हुआ है। वह परमा इटली का निवासी था। उसकी विलक्षण प्रतिभा यह थी कि दोनों हाथों से दो कवितायें एक साथ लिखता जाता था। इनमें एक लैटिन भाषा में होती थी और दूसरी पुरातन भाषा में। कैन्टरवरी के प्रधान पादरी टामस क्रेकर ने तीन महीने में पूरी बाइबिल जबानी याद कर डालने का एक अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया।

सन् 1724 में जन्मा और 1812 में मरा स्काटलैण्ड हुए का प्रख्यात डंकन मैक इन्टायर उन दिनों अपनी कविताओं के लिए अपने देश ही नहीं सारे योरोप में प्रसिद्ध था। पर वह न पढ़ना जानता था न लिखना, अपनी सारी प्रतिभा उसने सुन समझ कर ही विकसित की थी।

ग्रीक पोरसन नामक व्यक्ति को मिल्टन की प्रायः सभी रचनायें याद थीं और वह उन्हें सीधी ही नहीं उलटी करके भी सुना सकता था।

लाक्रोज ने अपनी स्मरण शक्ति का एक अनोखा प्रदर्शन करके दर्शकों को चकित कर दिया। उसने अपरिचित 12 भाषाओं की 12 कवितायें सुनीं और दूसरे ही क्षण उसने उन्हें ज्यों का त्यों दुहरा दिया।

विक्टर ह्यूगो की रचनायें अति प्रिय लगने और उन्हें बार-बार मनोयोग पूर्वक पढ़ने रहने के कारण गमवेशरुथ ने ज्यों का त्यों याद कर लिया था और पूछे जाने पर वह पुस्तक के किसी भी पृष्ठ को आरम्भ करके कितने ही पन्ने सुना देता था।

म्युनिख की राष्ट्रीय लायब्रेरी के संचालक जोसेफ वर्न हार्ड डंकन अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न थे। उन्होंने 9 भाषायें सीखी ही नहीं थीं उनमें पारंगत भी बने थे। इसके अतिरिक्त उनकी उस विशेषता को देखकर दंग रह जाना पड़ता था जबकि वे 9 भाषाओं के अपने स्टेनोग्राफरों को एक साथ बिठाकर उन सभी को उन्हीं भाषा में लेख नोट कराते थे। इतना मस्तिष्कीय संतुलन, अथाह ज्ञान और विकसित स्मरण शक्ति का प्रमाण कदाचित ही कहीं देखने को मिलता है।

स्मृति का धनी होना न कोई जादू है और न वरदान। यह किसी कार्य में गहरी अभिरुचि रखने, सावधानी के साथ समझने और मनोयोग पूर्वक उसे मस्तिष्क में संभाल कर रखने की पद्धति भर है। ढूंढ़ निकालने का अभ्यास भी कुछ अधिक मुश्किल नहीं है। सरकस में काम करने वालों को जितना परिश्रम अपने शरीर और जानवर साधने में करना पड़ता है उतना ही प्रयत्न यदि मस्तिष्क को साधने में किया जाय तो कोई मन्द बुद्धि भी कवि कालिदास की तरह बौद्धिक प्रतिभा का धनी हो सकता है।

पोर्सन ग्रीक भाषा का अद्वितीय पण्डित था, उसने ग्रीक भाषा को सभी पुस्तकें और शेक्सपियर के नाटक मुख जबानी याद कर लिये थे। ब्रिटिश संग्रहालय के सहायक अधीक्षक रिचर्ड गार्नैट बारह वर्ष तक एक संग्रहालय के मुद्रित पुस्तक विभाग के अध्यक्ष थे, इस संग्रहालय में पुस्तकों की हजारों अलमारियां और उनमें करोड़ों की संख्या में पुस्तकें थी। श्री गार्नेट अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे न केवल पुस्तक का ठिकाना बना देते थे, वरन् पुस्तक की भीतरी जानकारी भी देते थे।

समझा जाता है कि बचपन में स्मरण शक्ति तीव्र होती है और पीछे आयु बढ़ने के साथ-साथ मन्द होती जाती है, पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं। छोटी आयु में मस्तिष्क के ऊपर बोझ कम रहता है विचारणीय प्रश्न कम रहते हैं, घटनाएं, सम्वेदनाएं और समस्याएं भी उन दिनों थोड़ी ही रहती हैं। फलतः बोझ कम रहता है और जो सोचना याद रखना है वह आसानी से निपट जाता है। किन्तु बड़े होने के साथ-साथ कार्य क्षेत्र बढ़ता जाता है, साथ ही स्मरण रखने, निष्कर्ष निकालने एवं निर्णय करने का भार भी। ऐसी दशा में बहुत काम करते रहने पर भी कुछ में अधूरापन रह जाना अप्रत्याशित नहीं। जो कुछ सही रीति से पूरा हो गया उसकी ओर तो ध्यान दिया नहीं गया, पर जो कभी रह गई उसी को मस्तिष्क की कमजोरी या स्मरण शक्ति की कमी मान लिया गया। ऐसे ही प्रसंगों को लेकर दिमागी शक्ति घट जाने की बात सोच ली जाती है और चिन्ता होने लगती है, जबकि वस्तुतः वैसा कुछ होता नहीं।

ईंधन न मिलने पर चूल्हा ठंडा हो जाता है। मस्तिष्कीय कोशिकाओं को भी अपना काम सही रीति से करते रहने के लिए ऑक्सीजन का ईंधन चाहिए। बचपन में नई मशीन यह ईंधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध और वितरण करती है। तब मस्तिष्क को भी यह खुराक पर्याप्त मात्रा में मिलती है और बच्चों की स्मरण शक्ति तीव्र रहती है। वे अपने पाठ आसानी से याद कर लेते हैं। जैसे-जैसे आयु बढ़ती है, वैसे-वैसे कोमलता घटती है और कठोरता बढ़ती है। फलतः ऑक्सीजन का उत्पादन-वितरण घटता जाता है अवयवों में जो कोमलता बचपन अथवा किशोरावस्था में होती है वह आयु बढ़ने के साथ घटती जाती है। ऑक्सीजन प्रवाह के मस्तिष्कीय कोशाओं तक पूरी तरह पहुंचने में भी व्यवधान उत्पन्न होता है। फलतः आयु के साथ स्मरण शक्ति घटती है। बुद्धिमत्ता समस्त स्मृतियों के मन्थन का निष्कर्ष है। अस्तु उसकी मात्रा तो बढ़ती है पर स्मरण शक्ति के सन्दर्भ में बच्चों की स्थिति की अपेक्षा बड़ी आयु वाले कमजोर ही पड़ते हैं। वृद्धावस्था में रक्त वाहनियां कठोर पड़ जाती हैं। फलतः बूढ़े लोगों की स्मृति दिन-दिन क्षीण होती जाती है प्रायः वे अपने दैनिक उपयोग की वस्तुएं तक जहां-तहां भूलने लगते हैं। परिचितों के नाम तक याद नहीं रहते।

वैज्ञानिक स्मृति संस्थान के घटकों की तुलना किसी प्रशिक्षित और घनिष्ठ सहयोग अनुशासन अपना कर चलने वाली सेना से करते हैं। मस्तिष्कीय साम्राज्य को सुसंचालित रखने के लिए कुशल कर्मचारियों की एक कुशल सेना नियुक्त है। सैनिकों अथवा इंजीनियरों का नाम है—नर्व सेल्स—तन्त्रिका कोशिकाएं। इनकी संख्या प्रायः दस अरब कूती गई है। इनकी लघुता देखते ही बनती है। कार्य की महत्ता और आकार की लघुता को देखते हुए ईश्वर की महिमा वर्णन में कही जाने वाली उक्ति ‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ मस्तिष्क तन्त्र पर भी पूरी तरह लागू की जा सकती है। तन्त्रिकाएं कोशिका का आकार एक इंच के हजारवें भाग से भी कम होता है और वजन की दृष्टि से वह एक ओंस का छह खरब वां हिस्सा मात्र होती हैं।

सेना के सभी सदस्यों को यों प्रथक काम करना पड़ता है, पर उसकी वास्तविक शक्ति सैनिकों के परस्पर मिलकर काम करने में और एक-दूसरे के लिए आवश्यक साधन जुटाते रहने में सन्निहित रहती है। ठीक यही पद्धति तन्त्रिका कोशिकाओं में काम करती है। उन्हें परस्पर जोड़े रहने का कार्य नर्व फाइवर—तन्त्रिका तन्तु करते हैं। इनके इन्सुलेशन पूरी तरह इस संस्थान पर छाये हुए हैं। और उनमें बिजली के—इपल्स दौड़ते रहते हैं। यों प्रत्येक कोशा और तन्तु अपने आप में महत्वपूर्ण और अपनी भौतिक विशेषता से सम्पन्न हैं तो भी उन्हें मिल-जुलकर ही अपना काम सम्पन्न करना पड़ता है। उनकी संयुक्त शक्ति से ही विभिन्न मानसिक प्रयास बनते और चलते हैं। इन्द्रिय संस्थान से जो कोई सूचनाएं मस्तिष्क में पहुंचती हैं उनका क्या उपयोग किया जाय इसका मुकदमा मस्तिष्क मजिस्ट्रेट को तत्क्षण करना पड़ता है। यह अनायास ही नहीं हो जाता। इसके लिए अनेकों गवाहों, वकीलों, सबूतों, नजीरों, कानूनों की उसे देखभाल करनी पड़ती है। इस कार्य में तन्त्रिका कोशाओं में संग्रह हुए अनुभव काम आते हैं। विभिन्न व्यक्तियों की कोशाएं पृथक पृथक प्रकार के अनुभव एवं अभ्यास संजोये रहती हैं। इसलिए उनके निर्णय भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। एक ही प्रश्न पर लोगों के अलग अलग प्रकार के फैसले होते हैं यह उनके कोशा समूह के संग्रहीत अनुभवों और अभ्यासों की भिन्नता पर निर्भर रहता है। इन कोशाओं के छोटे-छोटे समूह होते हैं जो परस्पर मिलकर एक प्रकार का काम पूरा करने की दृष्टि से सक्षम और अभ्यस्त होते हैं। यह मण्डलियां कभी-कभी तो दस-दस हजार कोशाओं की टीम की तरह मिल जुलकर काम करती देखी गई हैं। सभी दस अरब कोशाएं एक साथ तो काम धाम नहीं करतीं, पर सामान्य रूप से जो काम होता रहता है उसे भी जब इलेक्ट्रो एन्सेफैलोग्राम जैसे यन्त्रों से देखा जाता है तो लगता है खोपड़ी के भीतर भयंकर विद्युतीय तूफान उठते और भारी हलचलें उत्पन्न करते हैं। अब तक बने कम्प्यूटरों में जो सर्वश्रेष्ठ है उनमें दस लाख से अधिक इकाइयां नहीं रखी जा सकीं और उनमें से प्रत्येक का सम्पर्क समीपवर्ती पांच छह के साथ ही जुड़ सकना सम्भव हो सका है, पर इसकी तुलना में मस्तिष्क की तुलना कर सकना अतीव कठिन है। यों मस्तिष्क एक है और उसके सभी घटक एक दूसरे के साथ पूर्णतया सुसम्बद्ध हैं।

टेपरिकॉर्डर पर कुछ आवाजें अंकित कर ली जाती हैं। इसके बाद वे चुप हो जाती हैं। आवश्यकतानुसार उसे उत्तेजित करके फिर से सुना जा सकता है। मस्तिष्क एक प्रकार का टेपरिकॉर्डर है उसमें असंख्य टेप की हुई घटनाएं स्मृतियों के रूप में अंकित हो जाती हैं इसके बाद में वे विस्मृत हो जाती हैं किंतु फिर जब कभी आवश्यकता पड़े उन्हें फिर से उभारा जा सकता है। यह स्मृतियां ध्वनि और चित्र एवं सम्वेदनाओं के त्रिविध सम्मिश्रणों के रूप में होती हैं। टेप रिकॉर्डर तो मात्र आवाज ही अंकित करता है पर मस्तिष्क की स्मृति—कोशाओं पर दृश्य भी नोट होता रहता है। इतना ही नहीं जो भाव सम्वेदना उस समय प्रतीत हुई थी वह भी अर्जित रहती है। समयानुसार यह चित्र धूमिल हो जाते हैं। इस दिन पहले की घटना का विस्तार पूर्वक वर्णन किया जा सकता है वैसा दस वर्ष बाद नहीं हो सकता। तब तक वे अंकन काफी जीर्ण और धुंधले हो चुके होते हैं। अस्तु उनमें से उतना ही भाग याद रहता है जो अंकन के समय अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत हुआ था और जिसने अधिक गहरी छाप छोड़ी थी।

यहां एक बात और भी जानने योग्य है कि स्मृति अंकन के समय मस्तिष्क की क्या स्थिति थी इस बात पर भी यह निर्भर करता है कि कितनी गहराई तक स्मरण को नोट किया गया है। उथले अंकन गहरे अंकनों की तुलना में जल्दी ही घट या मिट जाते हैं। कुछ मस्तिष्कों की जन्मजात बनावट ही बहुत भोंड़ी होती है वे काम चलाऊ स्मृतियां ही नोट कर सकते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि किसी शारीरिक कष्ट या मानसिक उद्वेग में मानसिक चेतना बुरी तरह उलझी रहती है या उपेक्षा-उदासीनता का दौर रहा होता है। ऐसी दशा में जो जानकारियां मिल रही हैं वे या तो नोट हो ही नहीं पातीं या फिर वे इतनी उथली होती हैं कि दुबारा फिर उन्हें आसानी से उभार सकना सम्भव नहीं रहता। मस्तिष्क विज्ञानी स्मरण शक्ति का आधार उस विद्युत धारा को मानते हैं जो सम्वाद वाहिनी-तन्त्रिकाओं में गतिशील रहती है। न केवल स्मृतियों का अंकन और पुनर्जागरण वरन् मस्तिष्कीय संरचना को अपना काम ठीक करने योग्य बनाये रहने में भी इसी विद्युत धारा की प्रधान भूमिका रहती है। विद्युत विज्ञान के छात्र आवर्तन शील विद्युत चक्र—रिर्वरेटिंग सर्किट—की क्रिया प्रक्रिया से परिचित होते हैं। नाड़ियों में रक्त परिभ्रमण की तरह कुछ विद्युत भी अपने कार्यक्षेत्र में गतिशील रहती हैं। इस गतिचक्र में कितना विद्युत आवेश और परिभ्रमण में कितनी गतिशीलता है इन दोनों बातों पर यह निर्भर है कि स्मृतियों का स्थापन कितने और किस सीमा तक बना रहेगा। यह विद्युत स्वसंचालित और स्वनिर्मित होती है। मस्तिष्कीय तन्त्रिकाओं की संरचना में सोडियम और पोटेशियम के—‘आयन’ काम करते हैं। उनमें उथल-पुथल शरीर के अन्य अवयवों की भांति होती रहती है। उसी सहज हलचल से मस्तिष्कीय विद्युत धारा उत्पन्न होती और अपना काम करती रहती है। यह झीनी तो होती है पर पूर्णतया अन्त उसका तब तक नहीं होता जब तक कि जीव सत्ता का ही पूरी तरह अन्त न हो जाय।

मस्तिष्क की स्मरणशक्ति को प्रखर बनाने के लिए सामान्य सिद्धान्त के रूप में यह मान्यता प्रतिपादित की जाती है कि जिस बात पर अधिक ध्यान दिया जाता है वह स्वभावतः विकसित होने लगती है और जिसकी उपेक्षा की जाती है उसका घटना भी सुनिश्चित है। यह तथ्य स्वास्थ्य सपार्स शिक्षा आदि सामान्य बातों से लेकर यश, वर्चस्व और स्मृति तक पर समान रूप से लागू होता है। घटनाओं की—अवधारणाओं की—उपेक्षा की जाय, उन्हें अन्यमनस्क होकर उपेक्षित भाव से देखा जाय और महत्वहीन समझा जाय तो वे स्मृति पटल पर देर तक न टिक सकेंगी। इसके विपरीत यदि उन्हें तन्मयता के साथ एकाग्र होकर समझने, देखने का प्रयत्न किया जाय तो उनका स्मरण बहुत समय तक बना रहेगा। अधिकांश महत्वपूर्ण घटनाएं मनुष्य को आजीवन स्मरण बनी रहती हैं जबकि महत्वहीन समझी जाने वाली दो-चार दिन पुरानी होते ही विस्मरण हो जाती हैं।

मनुष्य-मनुष्य के बीच मस्तिष्कीय संरचना में अन्तर नहीं, मात्र उसमें स्थूलता और सूक्ष्मता का अन्तर पाया जाता है। वह भी जन्मजात नहीं परिस्थितिजन्य होता है जिस प्रकार व्यायाम, भोजन आदि से शरीर को सुदृढ़ बनाया जा सकता है उसी प्रकार मस्तिष्कीय प्रखरता की भी अभ्यास द्वारा अभिवृद्धि की जा सकती है। मनोविज्ञानी कार्ल सीशोर का कथन है कि औसत व्यक्ति अपनी स्वाभाविक स्मरण शक्ति का मात्र दस प्रतिशत प्रयोग करता है। 90 प्रतिशत तो ऐसे ही मूर्छित और अस्त-व्यस्त स्थिति में पड़ी रहती है। फलतः मनुष्य मंद बुद्धि और मूर्ख स्तर का बना रहता है। यदि प्रयत्न किया जाय तो ऐसे लोग अपने को बौद्धिक दृष्टि से कहीं अधिक सक्षम बना सकते हैं। विकसित मस्तिष्क वालों को भविष्य में और भी अधिक तीक्ष्णता उत्पन्न कर लेने की पूरी-पूरी गुंजाइश है।

विस्मरण के तीन कारण हैं—(1) किसी बात को स्मरण रखे रहने के पूर्व इच्छा का न होना (2) प्रस्तुत विषयों को पूरे मनोयोग पूर्वक समझने का प्रयत्न न करना (3) प्रसंगों में अरुचि और उपेक्षा का भाव रहना, महत्व स्वीकार न करना। यही है वह मनोभूमि जिसमें देखी, सुनी, बातों को उथले और आधे-अधूरे रूप में ग्रहण किया जाता है। रुचि की गहराई न होने से वे बातें चिन्तन के लिए काम करने वाले कणों में गहराई तक प्रवेश नहीं करती और जल्दी ही विस्मरण के गर्त में गिरकर खो जाती है। फिर भी स्मरण शक्ति का सम्बन्ध मस्तिष्क के फल और सूक्ष्म अवयवों से तो है ही।

मस्तिष्क एक दीखता भर है, वस्तुतः वह असंख्य घटकों में विभाजित है। वे प्रथक प्रथक होते हुए भी परस्पर एक दूसरे के साथ अति घनिष्ठता पूर्वक बंधे हुए हैं और भरपूर सहयोग देते हैं। यह सहयोग जिस मस्तिष्क में जितना प्रखर होगा उसमें स्मरण शक्ति उतनी ही तीव्र पाई जायगी। जहां इस सहयोग में जितना अनुत्साह होगा वहां मन्दबुद्धि एवं विस्मृति की शिकायत उसी अनुपात से बनी रहेगी।

ध्यान धारणा में यह विशेषता है कि मस्तिष्कीय विद्युत का बिखराव रुकता है और उस तन्त्र में ऐसी उत्तेजना उत्पन्न होती है जिसमें तंत्रिकाओं का मध्यवर्ती सहयोग प्रखर हो उठे और स्मरण शक्ति का अभाव अनुभव न हो। इसके लिए ध्यान अभ्यासों में से जो भी अपने लिए उपयुक्त हो उसे चुन लेना चाहिए। एकाग्रता बढ़ाने वाले सभी अभ्यास मनोबल बढ़ाते और स्मरण रखने की क्षमता को सतेज कर देते हैं।

आरम्भ में मस्तिष्क के जिन सुरक्षित कोष्ठों की चर्चा की गयी है उन्हें यदि जागृत किया जा सके तो न केवल अद्भुत विलक्षण स्मृति शक्ति प्राप्त की जा सकती है अपितु वैसी ही और भी कितनी ही क्षमतायें सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं जिनका मस्तिष्क के ज्ञात अज्ञात केन्द्रों से सम्बन्ध है।

उच्च अध्यात्म प्रयोजनों के लिए इन्हीं कोष्ठकों को खोलने और उनसे उपलब्ध क्षमता को असाधारण कार्यों में लगाने का प्रयत्न योगी तपस्वियों द्वारा किया जाता है। स्मृति-विस्मृति की चर्चा करने की अपेक्षा जागृति और सुषुप्ति के आधार पर विवेचन करना अधिक युक्ति युक्त है। असावधानी उपेक्षा और अनुत्साह की मनःस्थिति रहेगी तो विस्मृति की शिकायत बनी ही रहेगी। जहां ऐसी कठिनाई अनुभव होती है वहां मानसिक पोषण देने वाले आहार का परामर्श देना कोई विसंगति नहीं है, पर अधिक उपयुक्त यह है कि चिन्तित तन्त्र पर छाई हुई शिथिलता को दूर किया जाय। इसके लिए ध्यान धारणा के सभी उपचार न्यूनाधिक मात्रा में लाभदायक ही सिद्ध होते हैं। उपासना में ध्यान धारणा पर जोर देने के अनेक लाभों आध्यात्मिक लाभों के अतिरिक्त एक अतिरिक्त लाभ यह भी है कि उसे करते रहने पर मस्तिष्क की विभिन्न क्षमताओं और शक्तियों के भेद जागृत होते रहते हैं।
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