मस्तिष्क प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष

​​​विस्मय विमुग्धकारी मस्तिष्क संस्थान

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जीवित रहने के लिए आवश्यक क्रिया कलापों का प्रत्यक्ष संचालन यों विभिन्न अंग प्रत्यंगों द्वारा होता है, पर उसका मूल भूत आधार मस्तिष्क की संचार प्रणाली है। अचेतन द्वारा शरीर की स्वसंचालित प्रणाली की साज संभाल रखी जाती है और चेतन द्वारा मन बुद्धि चित्त अहंकार के अन्तःकरण चतुष्टय का संचालन होता है। मस्तिष्क की स्थिति के अनुरूप व्यक्तित्व का निर्माण होता है और प्रगति का पथ प्रशस्त होता है। सोचने की विशेषता ने ही मनुष्य को क्रमशः समुन्नत करते हुए इस स्थिति तक पहुंचाया है जहां वह आज है। विज्ञान, शिल्प, दर्शन, अध्यात्म कला शिक्षा, चिकित्सा आदि ज्ञान की अगणित धाराएं ही वे विभूतियां हैं जिनका संग्रह करके मनुष्य सामान्य न रह कर असामान्य बनता है। अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य जितना विकसित एवं साधन सम्पन्न दीखता है उसे मस्तिष्कीय विकास का चमत्कार प्रतिफल ही कहना चाहिए।

मानवी चेतना की रहस्यमय परतें यदि समझी जा सकें और समुन्नत की जा सकें तो निश्चय ही उसे अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि की जीवन सफलता कहा जायगा। भौतिक विज्ञान स्थूल जगत में बिखरी हुई शक्ति को देखकर चकित है और उसमें से बहुत कुछ करतलगत करने के लिए लालायित है।

सामान्य के भीतर जो असामान्य छिपा पड़ा है, उसे अब अधिक अच्छी तरह समझा जाने लगा है। उदाहरण के लिए सूर्य को ही लें, वह गर्मी और रोशनी देने वाला रोज उगने और डूबने वाला छोटा सा अग्नि पिण्ड मात्र है, पर गम्भीरतापूर्वक पता लगाने से शक्ति का असीम भंडागार सिद्ध होता है।

सूर्य के मध्य भाग में 50000000 डिग्री गर्मी भरी पड़ी है। इस महाशक्ति का 200000 वां हिस्सा ही वह प्रकृति के विकास, विनास और सन्तुलन में काम लेता है। शेष भाण्डागार शायद इसलिए सुरक्षित है कि कोई उपयुक्त पात्र आए और किसी ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति के लिए शक्ति की आवश्यकता अनुभव करे, तो उसे इतनी शक्ति दी जा सके, जिससे वह कैसे भी ध्वंस या निर्माणकारी कार्यक्रम सुभीते से चला सके।

इस शक्ति भण्डार की तुलना में मानव उपार्जित समस्त साधन इतने स्वल्प है जितना कि समुद्र की तुलना में एक बूंद। सूर्य की शक्ति को यदि प्रयोग में लाया जाना सम्भव हो सके तो मनुष्य सर्व शक्तिमान का पद पा सकता है। मनुष्य का अपना शरीर भी कुछ कम विचित्र विलक्षण नहीं है। अपने शरीर की समस्त 600 खरब कोशिकाओं को यदि खींचकर लम्बाई में बढ़ाया जाये तो वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अर्थात् अब तक की खोज के अनुसार 186000×60×60×24×3651।4× 500000000 मील लम्बा होगा। इतने लम्बे फीते में प्रत्येक कोश में 1000000000 अक्षरों के हिसाब से उपरोक्त संख्या में इसका गुणा करने से जो संख्या बनेगी, उतने अक्षरों की और उन अक्षरों से बने शब्दों की स्मृति मनुष्य रख सकता है। ऐसा मनुष्य लगभग सर्वज्ञ ही हो सकता है। भारतीय योग दर्शन में यह बताया जाता है कि योग सिद्ध व्यक्ति संसार में जो कुछ भी हो रहा है, जो कुछ होगा और जो हो गया है, वह सब कुछ जानते हैं। इस तथ्य को स्थूल घटनाओं के आधार पर 5 फीट 6 इंच लम्बे 120 पौण्ड भार के शरीर में जो कुछ है आश्चर्य नहीं, बीज और संस्कार रूप में वह सब एक जीव कोष में विद्यमान रहता है। शरीर शास्त्रियों का मत है कि कोष स्थित गुणसूत्र (क्रोमोसोम) और संस्कार सूत्र (जीन्स) में वह सबक सब शारीरिक और मानसिक लक्षण और विशेषतायें विद्यमान रहती हैं, जो आगे चलकर मनुष्य शरीर में परिपक्व होने वाली होती हैं।

बच्चे की आकृति-प्रकृति का सारा ढांचा इन नगण्य से घटकों में छिपा है यह आश्चर्य की बात है। भले ही सिद्ध न किया जा सके पर अनेक प्रमाण अब इन तथ्यों की निरन्तर पुष्टि कर रहे हैं।

समीपवर्ती विचित्रताओं में सबसे बड़ा है। मस्तिष्क की टोकरी में रखा हुआ सूक्ष्म शक्तियों और दिव्य क्षमताओं का भाण्डागार। पर कठिनाई यह है कि जिस प्रकार अपनी आंखों से अपनी आंखों को देख सकना कठिन है और अपने ही रक्त में चल रही हलचलों को जान पाना दुःरूह है उसी प्रकार मस्तिष्क को समझाना तो कठिन है ही, उससे भी कठिन यह है कि मानसिक चेतना पर नियंत्रण कैसे किया जाय। यदि वैसा सम्भव हो सके तो शक्ति का लगभग इतना ही बड़ा स्रोत हाथ लग सकता है जितना कि बाह्य जगत के दृश्यमान सूर्य में सन्निहित है।

अधिक से अधिक तीन पौण्ड भार की खोपड़ी में वैज्ञानिकों की जांच के अनुसार लगभग 1400050000 (चौदह अरब पांच लाख) ज्ञान-तन्तु बैठे हुए हैं। सरकारी कार्यालयों में काम करने वाले क्लर्कों कर्मचारियों और पदाधिकारियों की तरह यह ज्ञान-तन्तु ही सम्पूर्ण शरीर समाज का रिकार्ड लेखा-जोखा रखते हैं और एक शुभचिन्तक अभिभावक की भांति शरीर के समस्त अंग-प्रत्यंगों की सुरक्षा और भरण-पोषण का ध्यान रखते हैं। मस्तिष्क से विलक्षण मशीन और रहस्यपूर्ण प्रयोगशाला इस संसार में दूसरी नहीं। सम्भवतः भगवान् ने जितना जटिल संसार बनाया है, मस्तिष्क को भी उतना ही जटिल बनाकर वह मनुष्य रूप में इस तरह प्रकट हो गया, जिस प्रकार विचित्र दृश्यों वाले विराट जगत् में वह विभिन्न क्रीड़ायें किया करता है।

भौतिक दृष्टि से अब तक मस्तिष्क के सम्बन्ध में प्राप्त कुल में से 27 प्रतिशत जानकारी में से अगले भाग (फोरब्रेन) के सम्बन्ध में तो अब तक कुल 3 प्रतिशत जानकारी है, प्राप्त की जा सकी है, शेष 97 प्रतिशत भाग अभी भी अविज्ञात ही है।

सुपीरियर एण्ड इन्फीरियर सेरेब्रल पेडेक्ल्स के बीच अवस्थित मस्तिष्क में ही सम्पूर्ण दृश्य केन्द्र (आप्टिक एरिया), अनुभूति केन्द्र (सेन्सरी ऐरिया) बने हैं। मस्तिष्क से निकलने वाली सभी नसों के नाभिक (न्यूक्लियाई) यहीं पर हैं। यहां एक अद्भुत संसार छिपा है पर उसे यन्त्रों से नहीं, भावनाओं से, ध्यान से ही देखा जा सकता है। उसकी जानकारी चित्त-वृत्तियों के विरोध, एकाग्रता, आध्यात्मिकता के समन्वय से ही की जा सकती है, अन्य कोई उपाय शायद ही सम्भव हो।

यह बात तो डॉक्टर और एनाटामिस्ट्स भी जानते हैं कि दोनों भौहों के सीध में जहां दोनों आंखों की नसें (आप्टिकनर्व्स) मिलकर आप्टिक कैजमा बनाती हैं, उन स्थान पर ‘पिचुट्री’ नाम की एक ग्रन्थि (ग्लैण्ड) पाई जाती है, यहीं से सारी शरीर का नियन्त्रण करने वाले क्रोध, भय, चिन्ता, प्रसन्नता आदि के हारमोन्स निकलते हैं इसका सारे शरीर में नियन्त्रण है, इसलिये इसे स्वामी ग्रन्थि (मास्टर ग्लैण्ड) कहते हैं। भारतीय इसे ही मन ‘आज्ञा-चक्र’ कहते हैं। इसी में सूंघने, स्वाद अनुभव करने, देखने आदि का ज्ञान होता है। यहां पर दाहिने-बायें दो बाल्व (आल फैक्ट्री बाल्व्स) लगे होते हैं। इनकी सूक्ष्म रचना के बारे में तो वैज्ञानिक नहीं जान पाये, किन्तु वे यह मानते हैं कि इस स्थान की आन्तरिक जानकारी मिलने से मस्तिष्क और शरीर के सूक्ष्म अन्तर्वर्ती रहस्यों का पता लगाया जा सकता है।

प्रसिद्ध जीव-शास्त्री जेम्स ओल्ड्स के एक विद्यार्थी ने एक चूहे के मस्तिष्क में ऐसा प्रयोग करके दिखाया कि उसके मस्तिष्क के एक भाग को संकेत कर देने से वह अपना व्यक्तित्व ही भूल गया और एक बच्चे की साइकिल का पाइडिल घुमाने लगा, उसे इसमें इतना आनन्द आया कि उसने एक घन्टे में कोई आठ सौ पाइडिल घुमाये, इस बीच उसके आगे मीठे भोजन का थाल भी रखा गया जिसे खाना और सूंघना तो दूर चखने देखा तक भी नहीं।

एक शरीर में भिन्न व्यक्ति का सन्निहित होना यह बताता है कि मनुष्य जीवन आत्म-विकास की एक कड़ी है, हमारी ज्ञान-धारायें, हमारी चेतना शाश्वत है, उसे शुद्ध, पवित्र बलवान् और आनन्दपूर्ण बनाकर हम सदैव ही अच्छे जीवन का आनन्द ले सकते हैं। जो थोड़ी-सी घटनायें पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने चूहों, बन्दरों पर प्रयोग करके देखी, वह वस्तुतः हमारे सामने प्रति-दिन, प्रति-क्षण घटित होती रहती हैं। भारतीय योगियों ने हमें जप करना, प्रार्थना करना, सेवा, सहयोग और सहानुभूतिपूर्ण जीवन जीना सिखाया है, उसके पीछे उनकी आत्म-चेतनता की गहनतम खोजें, प्रयोग और अनुभूतियां ही हैं, उन्होंने देखा था, हम जो भी हैं या जो कुछ रहे हैं और आगे होंगे, वह सब मस्तिष्क की रचना है। चोट लगती है पांव में अनुभव करता है मस्तिष्क, रोती हैं आंखें दुःख करता है मस्तिष्क, पत्थर उठाते हैं हाथ किन्तु उसके लिए आदेश देता है मस्तिष्क, अन्धकार होता है, हमारे शरीर से कोई वस्तु टकराती है, उसकी चिन्ता करता है मस्तिष्क, विश्लेषण करता है मस्तिष्क और फिर उसे बचने या उठा लेने की बात सोचना और आदेश भी देना यह सब मस्तिष्क के ही कार्य हैं, इसलिये उन्होंने मस्तिष्क की ही खोज करने का निश्चय किया।

अभी तक हुई खोजों के अनुसार यह मानने के लिए पर्याप्त आधार मिल गये हैं मनुष्य जीवन के सम्पूर्ण सुख दुःख, ईर्ष्या-द्वेष काम-क्रोध, तृष्णा संयम, भय निर्भयता, स्वार्थ परमार्थ आदि सभी गुण अवगुण यहीं से संबंधित है, मस्तिष्कीय शक्ति का किसी भी दिशा में विकास करके कैसी भी सफलता प्राप्त की जा सकती है।

प्राचीन काल में योग विज्ञान के द्वारा मस्तिष्कीय शक्ति को अभीष्ट दिशा में विकसित करने की पद्धति विकसित करली थी और उस विज्ञान से लाभ भी उठाया गया है। आधुनिक विज्ञान भी अपने ढंग से क ख ग से आरम्भ कर इस दिशा में प्रयोग अनुसंधान कर रहे हैं। फ्रान्सीसी वैज्ञानिक प्रो. डेलगाड़ो ने एक बार बाल से भी अधिक सूक्ष्म विद्युताग्र (इलेक्ट्रोड) बनाया और उसे लूलू जन्तु की कनपटी में स्पर्श कराया। लूलू बड़ा ही डरपोक जानवर होता है वह विद्युत् द्वारा मस्तिष्क के एक विशेष भाग को उत्तेजित करते ही उसका सारा भय निर्भयता में बदल गया और वह इस तरह से कार्य करने लगा जैसे वह कोई शेर हो। उससे अधिक बलवान् और खूंखार जानवर उसके सामने लाये गये पर वह तनिक भी नहीं डरा वरन् उल्टे उन्हें धमकाकर यह सिद्ध कर दिया भय जीवन की स्वाभाविकता नहीं है वरन् वह मस्तिष्क की एक अवस्था मात्र है। हम किसी भी गुण को अपने आप में एक नये सिरे से पैदा करके उसकी पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं।

इस प्रयोग से मानसिक दृष्टि से कमजोर व्यक्तियों को यह सोचने का अवसर मिला कि कमजोरी अपनी भूल है, वस्तुतः दुःख और कमजोरियां मनुष्य के लिये हैं ही नहीं, यदि अपने मस्तिष्क के गुण परक, साहस परक, सुख और आनन्द परक भाग को जागृत रखें तो हम अपने ही आनन्द से आनन्दित रह सकते हैं वरन् संसार में और भी जो सर्वत्र गुण और आनन्द के कण बिखरे पड़े हैं, उनसे भी खींच-खींचकर गुण और आनन्द की मात्रा बढ़ाकर सुख शांति और समृद्धि का जीवन जी सकते हैं। भय, बुराई और निराशायें यदि अपने ही अन्दर से उत्तेजित हो रही हों तो प्राकृतिक नियम के अनुसार और भी सब जगह से दुःख ही दुःख दौड़ता चला आयेगा और जीवन में जो थोड़ी सी शांति और प्रसन्नता थी उसे भी नष्ट कर डालेगा।

प्रसिद्ध रूसी वैज्ञानिक प्रोफेसर एनोरवीर ने कई प्रयोग करके यह दिखाया कि दुःख या सुख मस्तिष्क से स्रवित होकर रक्त में मिल जाने वाले दो विभिन्न प्रकार के रस हैं। और यह मनुष्य की इच्छा, स्वभाव और अभ्यास पर निर्भर है कि वह अपने मस्तिष्क के किस स्रोत का स्राव करता है। उन्होंने बताया कि मस्तिष्क की अत्यन्त गहराई में ऐसे सूक्ष्म संस्थान हैं, जिनका सम्बन्ध मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी को जोड़ने वाले ‘रेटीक्युलर फार्मेशन’ से है। यहीं से कुछ ग्रन्थियों का स्राव होता रहता है। कुछ ग्रन्थियों से अच्छे मधुर रस का स्राव होता है, जिससे प्रसन्नता, प्रफुल्लता, मुस्कान, हंसी, मृदुलता, शिष्टता, सौम्यता आदि गुण फूटते रहते हैं और अच्छा-सा लगता है और दूसरे प्रकार के रस में बुराई के अंश जुड़े रहते हैं, उससे मनुष्य चिन्तित, दुःखी, निराश और उद्विग्न बना रहता है। डा. एनोरवीन ने यह बताया कि इन ग्रन्थियों का स्राव अपने आप नहीं होता वरन् यह सब विचारणाओं से होता है; अर्थात् हमारे अच्छे-बुरे विचार और भावनायें ही सुख-दुःख की जन्मदाता हैं।

मस्तिष्क एक विद्युत बैठरी

रिवोन्यूक्लिक ऐसिड (आर.एन.ए.) नामक रसायन मस्तिष्कीय चेतना का आधार स्तम्भ ठहराया गया है। स्वीडन के डा. हाल्गर हाइडन के प्रयोगों में इस रसायन की मात्रा विभिन्न चेतना परतों में घटा बढ़ा प्राणियों के सोचने के तरीके को बदलने में अच्छी सफलता प्राप्त की है।

टैक्सास विश्वविद्यालय के डा. जेम्स मैक्कोनल और डा. राबर्ट थाम्पसन ने मस्तिष्कीय संरचना की दृष्टि से—पानी में पाये जाने वाले आधे इंच के चापटी किस्म के—प्लेरियन कीड़े को अधिक उपयुक्त पाया है और उसे इन प्रयोगों के लिए चुना है। इस की मस्तिष्कीय कोशिकाओं की उखाड़ पछाड़ करके वे यह प्रयत्न कर रहे हैं कि उसकी आदतें नये ढांचे में ढल जायं और फिर उसी नई रीति नीति की अभ्यस्त उसकी भावी पीढ़ियां बन जायं डा0 डी. एलवर्ट ने चूहों की एक ऐसी जाति पैदा की है जिसकी शक्ल अपने पूर्वजों की ही तरह है पर उनका सोचना और करना बिलकुल नये ढंग का है।

मस्तिष्कीय संरचना का जितना गहरा अध्ययन किया गया है उसके आधार पर यह पता चलता जा रहा है कि कपाल के भीतर भरी मज्जा के अन्तर्गत सूक्ष्म घटक, जितने सूक्ष्म जितने अधिक और जितने सक्षम होते हैं उसी अनुपात से बुद्धिमत्ता का विकास होता है। यह घटक अगणित वर्गों के हैं और उन्हीं के वर्ग विकास पर मानसिक गति-विधियों का निर्माण निर्धारण होता है।

यह समझा जाता है कि विकसित प्राणियों का मस्तिष्क बड़ा होता है। पर बात ऐसी नहीं है। मस्तिष्क का भार भी शरीर के वजन अनुपात पर निर्भर है। ह्वेल का मस्तिष्क 7000 ग्राम, हाथी का 5200, डाल्फिन का 1800, आदमी का 1350, घोड़े का 650, गेंडे का 600, गोरिला का 500, कुत्ते का 130, बिल्ली का 30 ग्राम होता है इस आधार पर इन प्राणियों की समझदारी का लेखा-जोखा नहीं लिया जा सकता।

प्रागैतिहासिक काल का विशालकाय दैत्य डाइनोसार 10 से लेकर 15 टन तक भारी होता था, किन्तु उसके मस्तिष्क का भार मात्र 30 ग्राम था। यानी घरेलू बिल्ली के बराबर। फिर भी वह अपनी बिल्ली की तुलना में काफी पिछड़ा हुआ और नासमझ था।

समझदारी का मस्तिष्क के वजन से सीधा सम्बन्ध नहीं, वरन् इस बात से है कि उनमें ‘न्यूरान’ कितने हैं और वे परस्पर कितनी सघनता पूर्वक सम्बद्ध होकर एक दूसरे के पूरक बनते हैं। मानव मस्तिष्क में प्रायः 140 अरब न्यूरान होते हैं और उनकी संरचना ऐसी है जिसके अनुसार हर न्यूरान अपना निर्धारित कार्य ही नहीं निपटाता वरन् दूसरे न्यूरानों के क्रियाकलाप में भी भारी योगदान करता है मानवी बुद्धिमत्ता का रहस्य इसी में है।

मनुष्य की बुद्धिमत्ता पिछले दस हजार वर्षों में प्रायः सौ गुनी अधिक विकसित हुई है। यदि भार और विस्तार से समझदारी का सम्बन्ध होता तो उसका सिर उसी अनुपात से बड़ा होता और आदमी का सिर ही शेष समस्त शरीर की तुलना में कई गुना अधिक बड़ा दिखाई देता।

डा. कैमरान के अनुसार मस्तिष्कीय कणों का मध्यवर्ती न्यूक्लिक ऐसिड इस विद्युत सम्वेग उत्पादन एवं नियन्त्रणकर्ता है। रासायनिक बैटरी की तरह यह ऐसिड ही मस्तिष्क में विभिन्न स्तर के सम्वेदन सम्वेग उत्पन्न करता है। इस अम्ल की स्थिति पर मानसिक स्तर बहुत कुछ अवलम्बित रहता है इसके लिए कुछ ही दिन पूर्व एक मैग्नीशियम पेन्सलीन आविष्कृत हुई है। केन्सास विश्वविद्यालय के रायन वेत्ताओं ने इसी प्रयोजन के लिए कुछ प्रोटीन ऐटम्स ढूंढ़ निकाले हैं और उनका उपयोग मस्तिष्कीय क्षमता को संतुलित एवं विकसित करने के लिए किया है।

कनाडा के मनःतत्व विशेषज्ञ डा. डब्ल्यू.जी. पेनफील्ड ऐसे विद्युताग्र —इलेक्ट्रोड—खोजने में समर्थ हो गये हैं जिनका अमुक स्थान के अमुक कोशिकाओं के साथ सम्बन्ध जोड़ देने पर मनुष्य भूतकाल की घटनाओं की आंखों के आगे मूर्तिमान होने की पुनरावृत्ति देख सकता है। इसी प्रकार भूतकाल के किन्हीं सम्वाद परिसम्वादों की अभी-अभी के घटनाक्रम की तरह अनुभव कर सकता है। मैस्मरेजम, हिप्नोटिज्म के आधार पर अतीन्द्रिय या अतिमानस के स्तर पर अनुभव किये जाते रहे हैं। और प्रयोक्ता अपनी मनमर्जी का चिन्तन एवं दृश्य प्रयोगी के मस्तिष्क को अनुभव करता रहा है। वह प्रयोग अब पुराने पड़ गये। क्योंकि उसके लिए प्रयोक्ता को स्वयं कई तरह के अभ्यास करने पड़ते थे। प्रयोगों को संवेदनशीलों में से चुनना पड़ता है फिर भी तकनीकी गलतियों से कई बार पूरी या आधी सफलता भी मिलती थी अब वह कार्य इलेक्ट्रोन की सहायता से यान्त्रिक उपकरण सुनिश्चित रूप से कर दिया, एक सीमित मात्रा में विद्युत तरंगें मस्तिष्क में प्रवेश कराके मनुष्य को थकान एवं अनिद्रा की पीड़ा से मुक्त कराया जा सकेगा। इतना ही नहीं उसे इतना मूर्छित भी किया जा सकेगा कि आपरेशन का कार्य भी आसानी से हो सके।

जीवशास्त्री जेम्स ओल्डस ने मस्तिष्क पर आंशिक नियन्त्रण करके चूहों को, बिल्ली से डरने की भावना से मुक्त कर दिया वे बिल्लियों को अपनी सजातीय मानने लगे और बिना डरे उसकी पीठ पर चढ़ने लगे।

फ्रांसीसी वैज्ञानिक प्रो. देल्गादो का कथन है आदतों और अभ्यासों को उसी तरह काट छांट की जा सकती है जैसे फोड़े-फुन्सियों की। किसी की नसों में रक्त चढ़ाने की तरह उसके मस्तिष्क में अच्छी आदतों का भी बाहर से प्रवेश करा सकना भी अगले दिनों सम्भव हो जायगा।

मस्तिष्कीय चेतना को उलटा अथवा बदला है इस सम्बन्ध में पिछले काफी दिनों से खोजबीन चल रही है। मस्तिष्क में किस स्थान पर किस प्रकार की क्षमता का निवास है यह बहुत कुछ जान लिया गया है और यह प्रयोग सफलता पूर्वक सम्पन्न किया है कि मस्तिष्क के किसी गर्त में पड़ी हुई किन्हीं विकृतियों को बिजली का झटका देकर जगाया जाय और मनुष्य यह अनुभव करे मानो वह घटना अतीत की नहीं अभी-अभी की है।

स्नायु विज्ञानी कार्ल लैसलेने ने यह पता लगाया है कि मस्तिष्कीय कणों के किस पर्त पर कितना विद्युत प्रवाह जारी करने के किस स्तर की पुरानी स्मृति जागृति हो सकती है। मैकगिल विश्वविद्यालय माण्ट्रील (कनाडा) के डा. विल्डरपेनफील्ड ने दृश्य ध्वनि और विचार का सम्बन्ध स्थापित करते हुए यह सम्भावना व्यक्त की है कि लोगों के मस्तिष्कों को इच्छानुसार चिन्तन करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। कैलीफोर्निया इन्स्टीट्यूट आफ टेकनोलोजी के डा. रोगरस्पेरी ने चिर संचित आदतों को भुला देने और अनायास ही नये अभ्यास के आदी बना देने में सफलता प्राप्त की है।

डा0 जे.वी. ल्यूको की खोजों ने यह तथ्य प्रस्तुत किया है कि मस्तिष्क स्वेच्छाचारी नहीं है और उस पर मनुष्य का अपना अधिकार ही सीमित नहीं है। वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा मस्तिष्क की दिशा उलटी जा सकती है और आज एक तरह सोचने वाला व्यक्ति कल दूसरी तरह सोचने के लिए विवश किया जा सकता है। न्यूरोन्स की सिनेप्टिक हलचलों में हेर-फेर करके मानसिक स्तर का हेर-फेर किया जा सकता है। इसके लिए नियत स्थान पर उपयुक्त मात्रा में विद्युत प्रवाह पहुंचा देने का कौशल हाथ में आ जाने से बहुत काम चल सकता है। डा0 जे.बी. ल्यूको ने तिलचट्टे जीवों में ऐसी नई आदतें डाली जो उनके पूर्वजों में भी नहीं थीं। बिल्ली और चूहे की दुश्मनी पुरानी है पर मस्तिष्कीय परिवर्तन से यह सम्भव हो गया है कि वह परम्परागत शत्रुता समाप्त हो जाय और वे दोनों हिलमिल कर रहने लगें।

समझाने बुझाने के झंझट में पड़ने की अपेक्षा किसी को अभीष्ट चिन्तन के लिए बाध्य करना और मन्द बुद्धि समझे जाने वाले मस्तिष्कों को प्रतिभा सम्पन्न बनाना उपचार पद्धति के सहारे भी संभव हो सकता है। विज्ञान वेत्ताओं का यह विश्वास अब दिन-दिन प्रबल होता जा रहा है।

मस्तिष्कीय कोशिकाओं का परस्पर एक दूसरे के साथ सघन सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध सूत्र को जोड़ने का काम एक विद्युत प्रवाह करता है। यह प्रभाव मनःचेतना की इच्छानुसार विभिन्न परतों में घूम जाता है और अरबों कोशिकाओं में बिखरी हुई क्षमताओं एवं स्मृतियों में से अपनी अभीष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप तथ्यों को ढूंढ़ लाता है। यह कोशिकाओं के मध्य सम्बन्ध सूत्र जोड़ने वाला विद्युत प्रवाह यदि मन्द हो अवरुद्ध होकर चले तो फिर मनुष्य मन्द बुद्धि, दीर्घ सूत्री अथवा भुलक्कड़ स्तर का बन जायगा। यह प्रवाह जितना द्रुतगामी, सुव्यवस्थित एवं सम्वेदनशील होगा, उसी अनुपात से मनुष्य की बुद्धिमत्ता एवं कुशलता बढ़ेगी।

मस्तिष्क को रीढ़ की हड्डी से जोड़ने वाले रेटिक्युलर फार्नेशन की हरकतों को समझाना और उसे प्रभावित करना जब जितनी मात्रा में सम्भव होता जायगा उसी अनुपात से मनुष्य को कृत्रिम रीति से हर्ष, शोक की अनुभूतियों से आच्छादित किया जा सकेगा, तब घटनाओं या उपलब्धियों के इन्तजार में किसी को प्रसन्नता से वंचित नहीं रहना पड़ेगा। अमुक रसायन या अमुक इलेक्ट्रोड ही किसी को धन कुबेर, सत्ताधारी सम्राट अथवा सिद्ध योगी जैसी प्रचुर प्रसन्नता सहज ही प्रदान कर दिया करेगी। रूसी वैज्ञानिक प्रो. एनाखीन ऐसी दवा विनिर्मित करने में सफल हो गये हैं जो पीड़ित अंगों में होने वाले दर्द के कष्ट से रोगी को बचा लेगी। इस औषध का नाम है—एमीनाजाइन। यह रेक्टिक्युलर फार्मेशन में स्थित पीड़ा सम्वेदन केन्द्र को जकड़ लेती है फिर भले ही कोई मांस काटता रहे किसी प्रकार के दर्द की अनुभूति न होगी। बिना निद्रा लाये इस प्रकार संज्ञा शून्यता उत्पन्न करने का यह अपने ढंग का अनोखा प्रयोग है। एड्रेनेलीन वर्ग की इस प्रकार की औषधियों का अगले दिनों तांता लगने वाला है। सोचा यह जा रहा है कि प्रसव से लेकर सिर दर्द साइटिका, उदरशूल जैसी व्यथाओं के रहते हुए भी बिना कष्ट सहे लोग अपना काम निपटाते रहें और जब आपरेशन की जरूरत पड़े तो बिना कष्ट की अनुभूति सहे वह काम भी हजामत बनाने की तरह सरलता पूर्वक निपट जाया करे।

मस्तिष्कीय नियन्त्रण के सूत्र जैसे-जैसे हाथ में आते जा रहे हैं वैसे-वैसे उसके लाखों का गुणगान बढ़ा-चढ़ाकर किया जाने लगा है कि औषधि उपचार, फाड़-चीर अंगों का प्रत्यारोपण, प्लास्टिक सर्जरी, विद्युत आघात, विकरण आदि के प्रयोगों द्वारा जिस प्रकार शारीरिक रुग्णता से निपटने के लिए प्रति हो रही है उसी प्रकार मानसिक रोगों से छुटकारा पाया जा सकेगा मनोव्यथाओं से छुट्टी मिलेगी। इतना ही नहीं मन के न मानने जैसा अवरोध भी न रहेगा उसे जैसे ढाला, मोड़ा जाना है उसके लिए किसी अविज्ञात प्रेरणा के प्रवाह में बहता हुआ सहज ही तैयार तत्पर हो जायगा। तब अनुशासन के लिए नियम प्रतिबन्ध न लगाने पड़ेंगे वरन् कुछ उपचार द्वारा ही यह सब झंझट निपटा लिया जाया करेगा।

देखने सुनने में यह सब्जबाग बहुत ही अच्छा लगता है पर इसमें यह भयानक संकट छिपा बैठा है कि चन्द सत्ताधारी इन उपचारों को हस्तगत करके प्रजा को अमुक उपचार लेने के लिए उसी प्रकार बाध्य कर दें, जिस प्रकार लड़ाई के दिनों में अनिवार्य सैनिक भर्ती को अनिवार्य कर दिया जाता है। ऐसी दशा में जनसाधारण को स्वतन्त्र चेतना से वंचित होकर चन्द लोगों के हाथ की कठपुतली मात्र बनकर रहना होगा।

मस्तिष्कीय चेतना को बाह्य पदार्थों और उपकरणों से प्रभावित करने की दिशा में विज्ञान दिन-दिन आगे बढ़ता जा रहा है और यह सम्भावना परिलक्षित हो रही है कि स्वतन्त्र चिन्तन का अगले दिनों अस्तित्व ही रह न जायगा। विज्ञान इस फिराक में है कि न केवल भौतिक पदार्थों की सुख-सुविधाओं के लिए मनुष्य को लुभाया, ललचाया अथवा पराश्रित बनाया जाय वरन् इससे भी एक कदम आगे बढ़कर यह किया जाय कि उसका ‘अपना’ नामक कोई स्तर ही न रहे। समर्थ लोगों के इशारे पर चल रहा विज्ञान तब मनुष्य समूह का उपयोग मक्खी-मच्छरों की तरह करेगा और न केवल इनका शरीर वरन् मन भी किन्हीं क्रिया-कुशल हाथों से होगा। भेड़ों के झुण्ड को गड़रिये हांकते हैं और उनके दूध, ऊन, खाल, मांस, गोबर का इच्छानुसार उपयोग करते हैं। तैयारी इस बात की की जा रही है कि जन साधारण को शारीरिक ही नहीं मानसिक स्थिति में आत्मसमर्पण जैसा हो जाय तब विज्ञान का देवता हर किसी के चिन्तन और कर्तव्य को अपनी मर्जी के अनुसार ढाला करेगा और कठपुतली की तरह लोग बिनानुनव किये स्वेच्छा पूर्वक नाचा करेंगे। इस पराधीनता के पाश में एक बार फंस जाने के बाद फिर किसी के लिये उससे निकल सकना ही सम्भव न रहेगा। आत्म विस्मृति के गर्त में गिर जाने के बाद फिर उद्धार की आशा किस आधार पर की जा सकेगी? अचेतन को प्रभावित करने की दिशा में कितने ही वैज्ञानिक प्रयोग हो रहे हैं और उनमें सफलताएं भी मिल रही हैं।

डा. डेलगाडो ने अपने कथन को प्रमाणित करने के लिए कई सार्वजनिक प्रयोग करके भी दिखाये। अली नामक एक बन्दर को केला खाने के लिए दिया गया। जब वह केला खा रहा था, तब डा. डेलगार्डो ने ‘इलेक्ट्रोएसी फैलोग्राफ’ के द्वारा बन्दर के मस्तिष्क को सन्देश दिया कि केला खाने की अपेक्षा भूखा रहना चाहिए तो बन्दर ने भूखा होते हुए भी केला फेंक दिया। ‘इलेक्ट्रोएसी फैलोग्राफ’ एक ऐसा यन्त्र है, जिसमें विभिन्न क्रियाओं के समय मस्तिष्क में उठने वाली भाव तरंगों को अंकित कर लिया गया है। [किसी भी प्रकार की भाव तरंग को विद्युत शक्ति द्वारा तीव्र कर देते हैं तो मस्तिष्क के शेष सब भाव दब जाते हैं और वह एक ही भाव तीव्र हो उठने से मस्तिष्क वही काम करने लगता है।]

डा. डेलगाडो ने इस बात को अत्यन्त खतरनाक प्रयोग द्वारा भी सिद्ध करके दिखाया। एक दिन उन्होंने इस प्रयोग की सार्वजनिक घोषणा कर दी। हजारों लोग एकत्रित हुए। सिर पर इलेक्ट्राड जड़े हुए दो खूंखार सांड़ लाये गये। इलेक्ट्राड एक प्रकार का एरियल है, जो रेडियो ट्रान्समीटर द्वारा छोड़ी गई तरंगों को पकड़ लेता है। जब दोनों सांड मैदान में आये तो उस समय की भयंकरता देखते ही बनती थी, लगता था दोनों सांड डेलगाडों का कचूमर निकाल देंगे, पर वे जैसे ही डेलगाडों के पास पहुंचे उन्होंने अपने यन्त्र के सन्देश भेजा कि शुद्ध करने की अपेक्षा शान्त रहना अच्छा है, तो बस फुंसकारते हुए दोनों सांड ऐसे प्रेम से खड़े हो गये जैसे दो बकरियां खड़ी हों। उन्होंने कई ऐसे प्रयोग करके रोगियों को भी अच्छा किया।

टैक्सास विश्व विद्यालय के राबर्ट थाम्पसन और जेम्स मैक कौनेल वैज्ञानिकों ने प्लेनेरिया नामक जीव पर परीक्षण करके यह सिद्ध किया कि विद्युत उपकरणों की सहायता से मस्तिष्कीय क्षमता को घटाया और बढ़ाया जा सकता है। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के डा. एलन जेकवसन ने प्रशिक्षित चूहों के मस्तिष्क में से आर.एन.ए. रसायन निकालकर अनाड़ी चूहों के मस्तिष्क में पहुंचाया तो अनाड़ी भी प्रशिक्षितों की तरह बुद्धिमान बन गये।

प्रगति जिस चरण में पहुंची है उसे देखते हुए मिशिगन का विश्वविद्यालय अमेरिका के इस संदर्भ में संलग्न विज्ञानी डा. ओटोशियल ने घोषणा की है कि अब हमारे हाथ में मानव मस्तिष्क को नियंत्रित करने की शक्ति आ गयी है, कि आशा की जानी चाहिए कि उसका प्रयोग केवल अच्छाई के लिए ही होगा। किंतु साथ ही इस खतरे को भी ध्यान में रखना होगा कि इस नव उपार्जित शक्ति का प्रयोग निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति एवं राष्ट्रीय विस्तारवाद के लिए भी किया जा सकता है। यदि ऐसा किया गया तो यह आविष्कार संसार का सबसे अधिक विधातक अस्त्र सिद्ध होगा।

अभिशाप भी संभव

स्वतंत्र चिन्तन की विशेषता को नियंत्रित करने के उपाय यदि सचमुच हाथ लग जायं तब फिर यह संभव हो सकेगा कि उस विज्ञान का ज्ञाता अपनी इच्छित दिशा में गतिशील होने की प्रेरणा अगणित मनुष्यों को दें सके। इस उपलब्धि में जहां सुधार की संभावनाएं हैं वहां यह खतरा भी है कि कोई अधिनायक समस्त प्रजा पर अपनी इच्छित विचार धारा थोप कर उसे सदा के लिए वशवर्ती बनाले।

मनोविज्ञान रसायनों के विशेषज्ञ डा. स्किनर का कथन है कि वह दिन दूर नहीं जब इस बीस करोड़ तंत्री कोशिकाओं वाले तीन पौण्ड वजन के अद्भुत ब्रह्माण्ड-मानवीय मस्तिष्क के दिये हुए एक से एक अद्भुत रहस्य को बहुत कुछ समझ लिया जायगा और उस पर रसायनों तथा विद्युत धाराओं के प्रयोग द्वारा आधिपत्य स्थापित किया जा सकेगा। यह सफलता अब तक की समस्त वैज्ञानिक उपलब्धियों से बढ़ कर होगी क्योंकि अन्य सफलताएं तो केवल मनुष्य के लिए सुविधा ही उत्पन्न करती हैं पर मस्तिष्कीय नियंत्रण से तो अपने आपको ही अभीष्ट स्थिति में बदल लेना संभव हो जायगा तब देवता या असुर किसी भी रूप में मनुष्य की सत्ता को बदला जा सकेगा। जर्मनी के मस्तिष्क विद्या विज्ञानी डा. ऐलन जैक बसन और उनके सहयोगी मार्क रोजन वर्ग एक प्रयोग कर रहे हैं कि क्या किसी सुविकसित मस्तिष्क की प्रतिभा का स्वल्प विकसित मस्तिष्क में परिवर्तन किया जा सकता है? क्या समर्थ मस्तिष्क का लाभ अल्प विकसित मस्तिष्क को अनुदान के रूप में प्राप्त हो सकता है?

शिक्षण की प्रणाली पुरानी है। शिक्षित व्यक्ति अशिक्षित व्यक्ति को पढ़ा लिखाकर सुयोग्य बनाते हैं और मस्तिष्कीय क्षमता विकसित करते हैं। विद्यालयों में यही होता चला आया है।

चिकित्सा शास्त्री ब्राह्मी, आंवला, शतावरि, असगन्ध, सर्पगन्धी आदि औषधियों की सहायता से बुद्धि वृद्धि का उपाय करते हैं। मस्तिष्क रासायनिक तत्वों का सार लेकर इंजेक्शन द्वारा एक जीव से लेकर दूसरे के मस्तिष्क में प्रवेश करने का भी प्रयोग हुआ पर वह कुछ अधिक सफल न हो सका। अन्य जाति के जीवों का विकसित मस्तिष्क सत्व अन्य जाति के जीवों का शरीर ग्रहण नहीं करता कई बार तो उलटी प्रतिक्रिया होने से उल्टी हानि होती है। फिर क्या उपाय किया जाय। उसी जाति के जीव का मस्तिष्क उसी जाति के दूसरे जीव को पहुंचायें तो लाभ कुछ नहीं क्योंकि उनकी संरचना प्रायः एक सी होती है।

मस्तिष्क के तीन भाग मुख्य है—एक समस्त क्रिया प्रक्रियाओं का संचालक, दूसरा मांस पेशियों का नियन्त्रक, तीसरा सांस लेने, भोजन पचाने आदि स्वसंचालित प्रक्रियाओं का विधायक। इन तीनों में वह भाग अधिक महत्वपूर्ण है जो मन और बुद्धि को संभालता है। इसी के विकास को मानसिक विकास माना जाता है। शेष मस्तिष्कीय क्रियाकलाप तो प्राणियों के शरीरों की स्थिति के अनुरूप अपना काम करते ही रहते हैं।

कुछ प्राणियों के मस्तिष्क सुई की नोंक जितने छोटे होते हैं। कुछ के बहुत बड़े। ह्वेल, मछली का मस्तिष्क मनुष्य से भी बड़ा होता है। इतने बड़े शरीर की व्यवस्था बनाये रखने के लिए इतना बड़ा यंत्र भी होना चाहिए पर उसमें भी बौद्धिक प्रतिभा वाला भाग अविकसित है।

प्राणिशास्त्री विचिस्टन और मनोविज्ञान शोधकर्त्ता वेलेस्कोप मानसिक विकास की बहुत कुछ सम्भावना इस बात पर सम्भव मानते हैं कि अविकसित मस्तिष्क वालों का सान्निध्य विकसित मस्तिष्क वालों के साथ रहे। सरकस के पशुओं को सिखाने में जहां सधाने की पद्धति कम कारगर सिद्ध होती है वहां उनका बौद्धिक और भावनात्मक विकास बहुत कुछ पशु शिक्षक की स्थिति से जुड़ा रहता है। समीपता के कारण उनका सोचने का ढंग और भावना बहुत कुछ वैसी ही बनने लगती है।

राजाओं, सेनापतियों के घोड़े, हाथी उनका इशारा समझते थे और सम्मान करते थे। बिगड़े हुए हाथी को राजा स्वयं जाकर संभाल लेते थे। राणा प्रताप, नैपोलियन,—झांसी की रानी के घोड़े मालिकों के इशारे ही नहीं उनकी इच्छा को भी समझते थे और उनका पालन करते थे। यह उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का अल्प विकसित बुद्धि वाले घोड़े हाथी आदि पशुओं पर पड़ा हुआ प्रत्यक्ष प्रभाव ही था।

मस्तिष्क में से एक प्रकार की गन्ध सरीखी विशेष चेतन क्षमता निरन्तर उड़ती रहती है। समीप रहने वाले लोग उस विशेषता से प्रभावित होते हैं। व्यक्तित्व जितना प्रभावशाली होगा—मस्तिष्क जितना विकसित होगा उसका सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित करने वाला चुम्बक थी उतना ही प्रभावशाली होगा। यदि तीव्र इच्छा और भावना के साथ इस शक्ति को किसी दूसरे की ओर प्रवाहित किया जाय तो उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। मनस्वी लोगों की समीपता से अल्प बुद्धि वालों का मस्तिष्कीय विकास होने लगता है; भले ही वह मन्द गति से क्यों न हो रहा हो।

धातु पट्टी बांधने बंधवाने के झंझट से बचने के लिए एक दूसरा सरल रासायनिक तरीका निकाला जा रहा है वह है रेडियो तत्वों से प्रभावित औषधियों को मनुष्य के रक्त में मिला देना। यह कार्य इंजेक्शन लगा कर अथवा मुख के द्वारा खिलाकर उसे खून में घोल दिया जायगा अब यह सारा रक्त ही एरियल का काम करेगा और प्रेषित प्रभाव तरंगों को पकड़ कर रक्त में समाविष्ट करेगा। यह रक्त मस्तिष्क में पहुंचने पर मनुष्य को उसी प्रकार से सोचने के लिए मजबूर कर देगा जैसा कि रक्त में मिश्रित तरंगें उसे प्रेरणा देंगी। इस अपेक्षाकृत अधिक सरल विधि से वैज्ञानिक साधन किसी भी व्यक्ति को कुछ भी सोचने और कुछ भी करने के लिए पूर्णतया पराधीन बना देंगे। जिस प्रकार अन्तरिक्ष यानों का नियन्त्रण निर्देशन धरती पर बैठे हुए वैज्ञानिक करते रहते हैं और यान उनके निर्देशानुसार अपनी गति विधियों में हेर-फेर करता रहता है, ठीक उसी प्रकार यह प्रयत्न भी वैज्ञानिक क्षेत्र में आरम्भ हो गया है कि मनुष्य के मन मस्तिष्क को भी वैसी ही सूक्ष्म तरंगों द्वारा नियन्त्रित किया जैसे राकेटों को किया जाता है।

इस नये वैज्ञानिक अन्वेषणों द्वारा मनुष्य को जीवित का ‘बांट’ बनाया जायगा। वह संचालकों की इच्छानुसार चेतना युक्त राकेट की भूमिका सम्पादित करेगा। प्रयोग अभी इस स्थिति में चल रहा है कि मनुष्य के सिर से एक विशेष प्रकार की धातु तारों से युक्त पट्टियां बांध दी जायं और व्यक्ति के मस्तिष्क को एक प्रकार से रेडियो सुनते समय काम आने वाले एरियल की तरह बना दिया जाय। ट्रान्समीटर द्वारा फेंकी हुई शब्द किरणों को जिस प्रकार एरियल पकड़ता है और उसे रेडियो पर सुन लिया जाता है उसी प्रकार वैज्ञानिक केन्द्र द्वारा फेंकी गई तरंगों को मनुष्य के सिर पर बंधी हुई वह धातु पट्टी पकड़ेगी और उसे मस्तिष्क में प्रवेश कर देगी। बस चिन्तन पर वही प्रेषित तरंगें छा जायगी और उसे जैसा सोचने के लिए निर्देश दिया गया था वैसा ही सोचने के लिए विवश करेंगी। मनुष्य की स्वतन्त्र चिन्तन क्षमता समाप्त हो जायगी और वह बौद्धिक पराधीनता से पूरी तरह ग्रस्त होकर वही सोचेगा जो उसे सोचने के लिए बाध्य किया गया है।

मनस्विता का चमत्कार

यह क्षेत्र मनस्वी महापुरुषों और सदाशयी उच्च उद्देश्यों के प्रति दृढ़ निष्ठावान व्यक्तियों के लिए ही छोड़ दिया जाना चाहिए ताकि इस विज्ञान का सदुपयोग ही हो सके। दुरुपयोग की रत्ती भर सम्भावना न रहने पाये। प्राचीन काल में मनीषी ऋषियों ने इस तरह के सफल प्रयोग किये थे, उन प्रयोगों का आधार और विज्ञान निःसन्देह आज के भौतिक विज्ञान से अलग था परन्तु इस तथ्य को आधुनिक विज्ञानवेत्ता भी स्वीकार कर चुके हैं कि प्राचीन काल में। भारत के अध्यात्म वेत्ता किसी समय इस दिशा में बहुत बड़ी खोज करने और सफलता प्राप्त करने में कृत कार्य हो चुके हैं। बुद्ध की प्रचण्ड विचार धारा ने अपने समय में लगभग ढाई लाख व्यक्तियों को अपनी विलासी एवं भौतिक महत्त्वाकांक्षी गति-विधि छोड़कर उस कष्टकर प्रयोजन को अपनाने के लिए खुशी-खुशी कदम बढ़ाया जो प्रचण्ड मानसिक विद्युत से सुसम्पन्न बुद्ध को अभीष्ट था। भगवान् राम ने रीछ वानरों को ऐसे कार्य में जुट जाने के लिए भावावेश में संलग्न कर दिया जिससे किसी लाभ की आशा तो नहीं उलटे जीवन संकट स्पष्ट था। भगवान कृष्ण ने महाभारत की भूमिका रची और उसके लिए मनोभूमियां उत्तेजित कीं। पाण्डव उस तरह की आवश्यकता अनुभव नहीं कर रहे थे और न अर्जुन को उस संग्राम में रुचि थी तो भी विशिष्ट प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए मानसिक क्षमता के धनी कृष्ण ने उस तरह की उत्तेजनात्मक परिस्थितियां उत्पन्न कर दीं। गोपियों के मन में सरस भावाभिव्यंजनाएं उत्पन्न करने का सूत्र संचालन कृष्ण ही कर रहे थे।

ईसा मसीह, मुहम्मद जरथुस्त्र आदि धार्मिक क्षेत्र के मनस्वी ही थे जिन्होंने लोगों को अभीष्ट पथ पर चलने के लिए विवश किया। उपदेशक लोग आकर्षक प्रवचन देते रहते हैं पर उनकी कला की प्रशंसा करने वाले भी उस उपदेश पर चलने को तैयार नहीं होते। इसमें उनके प्रतिपाद्य विषय का दोष नहीं उस मनोबल की कमी ही कारण है जिसके बिना सुनने वालों के मस्तिष्क में हलचल उत्पन्न किया जा सकना सम्भव न हो सका। नारद जी जैसे मनस्वी ही अपने स्वल्प परामर्श से लोगों की जीवनधारा बदल सकते हैं। वाल्मीकि, ध्रुव, प्रहलाद, सुकन्या आदि कितने ही आदर्शवादी उन्हीं की प्रेरणा भरी प्रकाश किरण पाकर आगे बढ़े थे।

समर्थ गुरु रामदास, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, गुरुगोविन्द सिंह, दयानन्द, कबीर आदि मनस्वी महामानवों ने अपने समय के लोगों को उपयोगी प्रेरणायें दी हैं। और अभीष्ट पथ पर चलने के लिए साहस उत्पन्न किया है। गान्धी जी की प्रेरणा से स्वतन्त्रता संग्राम में अगणित व्यक्ति असाधारण त्याग बलिदान करने के लिए किस उत्साह के साथ आगे आये यह पिछले ही दिनों की घटना है।

शक्तिपात इसी स्तर की प्रक्रिया है जिसमें मानुषी विद्युत से सुसम्पन्न व्यक्ति का तेजस् दूसरे अल्प तेजस व्यक्तियों में प्रवेश करके उन्हें देखते-देखते समर्थ बनाकर रख देती है। दीपक से दीपक जलने का, पारस स्पर्श से लोहा सोना होने का, उदाहरण इसी प्रकार के सन्दर्भों में दिया जाता है।

वैज्ञानिक आधार पर मस्तिष्कीय नियन्त्रण की प्रक्रिया यदि मनुष्य के हाथ लग गई तो उससे सदा के लिए मानवी प्रजा को किसी अधिनायक वादी गुट के वशवर्ती हो जाने का खतरा है। अणु शक्ति के विनाशात्मक उपयोग की आशंका इसी कारण है कि उसका स्वामित्व अवांछनीय लोगों के हाथों में चला गया है। यदि वह प्रामाणिक हाथों में सीमित रही होती तो उस वैज्ञानिक उपलब्धि के केवल हित साधन ही होता।

मस्तिष्कीय नियन्त्रण का विज्ञान विकसित होना चाहिए पर उसका नियन्त्रण सनातन महामानव ही कर सके ऐसी व्यवस्था रहनी चाहिए। अच्छा यही है कि इस प्रतिस्पर्धा के युग में आत्मविज्ञान विकसित किया जाय और उस विद्या के विज्ञानी इस महाशक्ति का उत्पादन एवं उपयोग करने की दिशा में पहल करें।

यह प्रश्न फिर भी अपने स्थान पर है कि क्या दूरवर्ती लोग बिना किसी तार रेडियो आदि के केवल मनःचेतना के आधार पर परस्पर सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं, उनके बीच विचारों का आदान प्रदान हो सकता है? इस प्रश्न को किम्वदन्तियों पर आधारित नहीं छोड़ा गया है, वरन् मनःशास्त्रियों ने इस सन्दर्भ को शोध का विषय भी बनाया है। उत्तरी केरोलिना के ड्यूक विश्वविद्यालय द्वारा डा. राइन के नेतृत्व में इस विषय पर ढूंढ़ खोज की गई। और केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के डा. व्हाटले कैरिंगटन ने इस अन्वेषण को हाथ में लिया। उन्होंने पाया कि यह चेतना एक सीमा तक हर किसी में होती है पर जो लोग उसे विकसित कर लेते हैं वे अपेक्षाकृत अधिक सफल रहते हैं। किन्हीं को जन्मजाति रूप से यह प्राप्त रहती है और कुछ साधनाओं द्वारा इसे विकसित कर सकते हैं। प्रेम और घनिष्ठता की स्थिति में यह आदान प्रदान किन्हीं महत्वपूर्ण अवसरों में अनायास भी हो सकता है।

अतः इसमें भी कोई सन्देह नहीं किया। इसकी क्षमताओं को इस दलित और अभीष्ट दिशाओं में मोड़ा व विकसित किया जा सकता है। इतना ही नहीं उससे मनोवांछित सफलतायें और सिद्धियां प्राप्त की जा सकती है। विज्ञान देर-सवेर इस तथ्य से भी साक्षात् करेगा ही अभी तो वह मस्तिष्क का एक चौथाई स्वरूप भी नहीं समझ पाया है। केवल इसका भाग ही जाना जा सका है। उनका जानने पर भी विज्ञान और वैज्ञानिक हतप्रभ है—मस्तिष्क को विलक्षण और अद्भुत बता रहे हैं तो पूरा स्वरूप जान लेने के बाद होने वाले आश्चर्य की कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती।
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