शूरसेन राज्य की सीमाएँ काफी क्षेत्रों में फैली हुई थी। उस राज्य के अधिपति थे सम्राट चित्रकेतु, सन्त साधु प्रकृति के साथ-साथ प्रतापी-पराक्रमी भी थे। उन्हें किसी बात की क्या होगा ? क्योंकि उनके कोई सन्तान न थी। एक दिन महर्षि अंगिरा चित्रकेतु के पास राजभवन में आए। राजा की चिन्ता व्यथा देखकर महर्षि का मन करुणार्द्र हरे उठा । उन्होंने महाराजा को पुत्रेष्टि यज्ञ करने का परामर्श दिया । डुबते करे जैसे तिनके का सहारा नहीं, जहाज का सहारा मिल गया । पुत्रेष्टि यज्ञ की तैयारियां होने लगी । देश-देशान्तर से पुत्रेष्टि यज्ञ से कर्मकाण्ड विशेषज्ञ, आचार्य देव एवं तपोनिरत महाऋषियों का आमंत्रण देने प्रधान मात्य स्वयँ गये। समारोह के साथ यज्ञ सम्पन्न हुआ । महर्षि अंगिरा ने यज्ञ शेष हविष्यन्न राजमहर्षि कृतद्युति को दे दिया । जाते जाते महर्षि कहते गये - राजन् । आपको एक पुत्र तो होगा किन्तु वह आपके हर्ष तथा शोक दोनों का कारण बनेगा। महर्षि का कथन अनबूझ पहली जैसा था। महाराजा चित्रकेतु एवं कृतद्युति कुछ पलों तक सोचते रह गये, पर रहस्य न समझ सके। फिर यह सोचकर प्रसन्न हो गये, कि महर्षि ने पुत्र होने कास आश्वासन तो दे ही दिया ।
महारानी कृतद्युति गर्भवती हुई । समय पर उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया । माता-पिता दोनों ने पुत्र का मुख देखा - निमेष भर के लिए एक टक देखते ही रह गये, जिसे अपनी एक आँखों में बाँध पाने को वे बार बार तरस गये थे । आज वही सौन्दयी - वही सौंदर्य बँध आया है, आज उन्हीं के रक्त -माँस के बँधनों में । दोनों ने बारी बारी से शिशु को अपनी भुजाओं में भर की चूम लिया। उत्तराधिकारी की चिंता मिटी और इस उपलक्ष्य में पूरक राज्य भर में उत्सव हर्षोल्लास मनाया गया। वर्षों तक राज्य करते रहने और अब प्रवणता की ओर अग्रसर होते जा रहे है। चित्रकेतु के यहाँ संतान का जन्म हुआ था सो उनके हर्ष का पारावार न रहा । पुत्र के स्नेह वश वे प्रायः महारानी कृतद्युति के आवास में ही ज्यादातर समय व्यतीत करते थे। पुत्रवती बड़ी रानी पर उनका एकान्त अनुराग हो गया था फलतः दूसरी रानियाँ कुढ़ने लगी।
पति की अपेक्षा से उत्पन्न हुआ क्षोभ ने द्वेष का रूप धारण कर लिया। उन्होंने सोचा राजा कृतद्युति पर विशेष स्नेह इसलिए रखते हैं कि उसने संतान को जन्म दिया है। यह नवजात शिशु ही उनकी अपेक्षा का कारण है। अंत में सबने मिलकर उस अबोध शिशु को विष दे दिया - और वह बालक मृत्यु का ग्रास बन गया।
महारानी कृतद्युति और सम्राट चित्रकेतु के लिए तो यह अनभ्र वज्रपात था। वे बालक के शव के पास कटे वृक्ष की तरह गिर पड़े। पूरे राजभवन में करुण क्रंदन की चित्कारें गूंजने लगी। चित्रकेतु ने अपने पुत्र का अंतिम संस्कार भी नहीं कराया था। उसी समय महर्षि अंगिरा और महर्षि नारद आये। अंगिरा ने समझाया कि इस देह में अब क्या अशक्ति रखना, इसकी अंत्येष्टि कर दो । राजन् ! जो भाग्य में नहीं होता है उसे बचाया नहीं जा सकता है।
चित्रकेतु ने कहा - “ नहीं महात्मन् ! ऐसा मत कहिए आप जैसे तपस्वी के लिए सब कुछ संभव है भला ऐसा कौन सा काम है, जिसे तपोनिष्ठ महर्षि न कर सके। मैं अपने प्रिय पुत्र को प्राण देकर भी प्राप्त करना चाहता हूँ। आप इसे पुनर्जीवित कर दीजिए।”
महर्षि अंगिरा एवं देवर्षि नारद ने अनेकों तरह महाराजा चित्रकेतु एवं महारानी कृतद्युति को समझाया । लेकिन किसी तरह से भी वे दोनों न माने । ऐसी दशा में महर्षि अंगिरा में ध्यानस्थ होकर उस बालक की आत्मा को आमंत्रित किया । थोड़ी ही देर में बालक जी उठा लेकिन अब वह किलकारियाँ करने वाला शिशु नहीं था उसके मुख मण्डल पर एक स्वर्गीय आभा थी। वह आस पास के वातावरण से उपराम लग रहा था।
अपने पुत्र को जीवित देखकर राजा और रानी उसे अपनी बाँहों में उठाने के लिए आतुर हो उठे। मेरे लाल ! कहकर उन्होंने जैसे ही उसे उठाने की चेष्टा की, कि बालक बोल उठा-” कौन पुत्र ! देवर्षि ! ये लोग कौन थे ? “ बालक ने नारद से कहा “ यह तुम्हारे माता-पिता है।” नारद बोले !
तब बालक ने कहा- “ नहीं, मैं तो जीवात्मा हूँ । शरीर पुत्र हो सकता है। सारे संबंध शरीर के ही है, जहाँ शरीर से संबंध छूटा वही सारे संबंध छूट जाते हैं। वर्तमान जीवन तो जीवात्मा की विकास यात्रा का एक सुपाँत है। मैं अपनी अब विकास कदम की ओर बढ़ना चाहता हूँ मुझे रोकिये मत। यह कहकर शरीर फिर निष्प्राण हो गया। चित्रकेतु का जैसे सारा मोह आवरण नष्ट हो गया। वे पुत्र के शव का अंतिम संस्कार करके लौटे तो देवर्षि नारद ने कहा -” अनात्मा वस्तु में आशाक्य रखना ही शोक का कारण है, अतः किसी किसी के लिए आशाक्य न करते हुए अपने कर्मों को भली भाँति पूरा करते चलना ही संसार में सुखी रहने का सर्वोत्तम साधन है।”
राजा को जीवन दर्शन समझ में आया वह अनासक्त हो वे राज्य कार्य में पुनः निरत हो गये।