विदाई की घड़ियाँ और गुरुदेव की व्यथा वेदना ?

February 1996

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विगत अंक में लिखे गये अनेक लेख जो पूर्व प्रकाशित लेख की पुनरावृत्ति था किंतु संक्षिप्त करके दिया गया था, को पढ़ने के बाद पाठकों ने इच्छा जाहिर की है कि इस क्रम को आगे भी जारी रखा जाय। भले संक्षिप्त ही सही, एक पृष्ठ के कलेवर में पर ये मार्मिक अंश प्रकाशित होते रहे ताकि पाठक उस युग ऋषि की अंतर्वेदना को समझ सके एवं तद्नुरूप बढ़ चढ़कर हमारी क्षमताएँ महाकाल के निमित्त नियोजित हो सके । पाठकों की इच्छा का भाव रखते हुए फरवरी 61 में तीन पन्नों से अपनी बात के कुछ अंश इस, पृष्ठ पर दिये जा रहे है। जितना हम पक्ष पर मनन चिंतन करेंगे, उतना ही गुरु सत्ता के मर्म को समझ पायेंगे। नीचे के पैराग्राफ में मार्मिक हृदय स्थल को स्पर्श करने वाले अंश इसी लेख में दिये जा रहे है।

विदाई के दिन समीप आते जा रहे है, हमारी भावनाओं में उतनी तेजी से उफान आता चला जा रहा है। बार बार जो हूक और इठन कलेजे में उठती है उसका कारण यदि कोई दुर्बलता हो सकती है तो एक ही हो सकती है, कि जिनको प्यार किया, उसको समीप पाने की अभिलाषा भी सदा बनी रही।

प्यार के धागों को इस तरह तोड़ना पड़ेगा, इसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। आने जाने की बहुत दिन से कही सुनी जा रही थी। उसकी जानकारी भी थी, पर यह पता न था कि प्रियजनों के बिछुड़ने की व्यथा कितना अधिक कचोटने वाली- ऐंठने मरोड़ने वाली होती है।

अपनों से छिपाया क्या जाय ? अब हम अपने अंतर के हर घुटन, व्यथा और अनुभूति को अपनों के आगे उगलेंगे तो हमारे अंतर का भाव हल्का हो जायेगा और परिजनों को भी वास्तविकता का पता चल जायेगा । आत्म कथा तो कैसे लिखी जा सकेगी यह अंतर्द्वंद्व घुमड़ते हैं, उन्हें तो बाहर लाया जा सकता है । इस सुनने से सुनने वालों को मानवी सत्ता के एक पहलू का समझने का अवसर मिलेगा।

किसी ने हमें विद्वान, किसी ने तपस्वी, किसी ने तत्वदर्शी, किसी ने याँत्रिक, किसी ने तपस्वी, किसी ने लोकसेवी, किसी ने प्रतिभा पुँज आदि कुछ भी समझा हो । हम अपनी आँखों और अपनी समझ में केवल मात्र एक अति सहृदय, अति भावुक और अतिशय स्नेही प्रकृति के एक नगण्य से मनुष्य मात्र रहे।

प्रेम के व्यापार में घाटा किसी को नहीं रहता, फिर भी हमें ही नुकसान क्यों उठाना पड़ता है ? नुकसान एक ही रहा कि यह सोचने में आया कि स्नेह का तन्तु जितना मधुर है, वियोग की घड़ियों में वह उतना ही तीखा बन जाता है।

स्नेह से दूरी बाधक होती है। आत्मीयता शरीर से नहीं आत्मा से होती है, आदि दर्शन तत्व हमने पढ़े तो बहुत है दूसरों को सुनाये भी है पर उसका प्रयोग सफलता पूर्वक कर सकना किसी भी ऊँची स्थिति पर पहुँचे व्यक्ति के लिए संभव है, यह कभी सोचा न था। लगता है अभी अपना आत्मिक प्रगति नगण्य है।

स्नेहियों से स्नेह और अनुग्रहियों से अनुग्रह का कितना ऋण भार लेकर विदा होना पड़ रहा है, यह सोच कर कभी कभी बहुत कष्ट होता है। अच्छा होता जन्म से ही एकान्त में चले गये होते।

सोचते तो बहुत रहे, स्वप्न तो बड़े बड़े देखते रहे, अमुक के लिए यह करेंगे, अमुक को यह देंगे। पर किया जा सका और दिया जा सका, वह इतना कम है कि आत्मग्लानि होती है और लज्जा से सिर नीचा हो जाता है।”

एक इच्छा अवश्य मन में थी कि असीम स्नेह बरसाने वाले स्वजनों के लिए प्रतिदान में जो कुछ अपने भीतर बाहर और कुछ शेष बच रहा है, उसे राई−रत्ती देकर जाते और सबके जिए की धूल सिर पर रखकर कहते- “ इस नगण्य प्राणी से अभी इतना बन पड़ा है। 84 लाख योनियों में यदि विचरण करना पड़े तो हर शरीर को लेकर आप लोगों की सेवा में उपलब्ध प्रेम और सहकार का कुछ न कुछ ऋण भार चुकाने के लिए अति श्रद्धा के साथ उपस्थित होते रहेंगे और जिस शरीर से जितनी सेवा सहायता बन पड़ेगी, उतनी कृतज्ञता और श्रद्धा व्यक्त कर सकने की क्षमता रहेगी, उसका पूरा पूरा उपयोग आपके समक्ष करते रहेंगे।

“ हम अज्ञान ग्रस्त मोह बन्धन में बँधे प्राणी अपना दूरवर्ती हित नहीं समझते हैं और जिसमें हमारा हमारे परिवार, हमारे समाज धर्म एवं विश्व का कल्याण हो, उसी को करने जा रहें है।”

अपना मन कितना ही इधर उधर क्यों न होता हो यह निश्चित है की हमें ढाई वर्ष बाद निर्धारित तपश्चर्या के लिए जाना होगा। यों यह मृत्यु जैसी स्थिति है, पर संतोष इतना ही है कि वस्तुतः ऐसी बात होगी नहीं।

थ्वयोग की घड़ियों में भी संतोष केवल इस बात का है कि दूसरे लोग भले ही शरीर समेत हमसे मिल न सके पर जिन्हें अभीष्ट है, उनके साथ भावनात्मक संबंध यथावत बना रहेगा वरन् सच पूछा जाय तो और भी अधिक बन जायेगा। (आगे भी जारी )


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