सामगान, सामवेद का ज्ञान क्यों है अनिवार्य ?

February 1996

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

वेद का ज्ञान साम है गान। जब वेद के पद्यबद्ध मंत्रों को गान विद्या से अनुप्राणित किया गया हो तो -सामवेद’ बन गया। मानवी क्षमता के अंतर्गत ज्ञान और भावना सर्वोत्कृष्ट संयोग होने से इसे सर्वश्रेष्ठ प्रयोग कहना सब प्रकार सर्व संगत है। इन्हीं कारणों से ‘वेदानाँ समावेदोऽस्मि ‘ कहकर गीता उपदेशक ने सामवेद की गरिमा को प्रकट किया। साथ ही इस उक्ति के एक रहस्य की झलक पाने की ललक हर स्वाध्यायशील के मन में पैदा कर दी। यों तो वेद के सभी मंत्र अनुभूति जन्य ज्ञान के उद्घोषक होने के कारण लौकिक एवं अध्यात्मिक रहस्यों से लबालब भरे है किंतु सामवेद के परिष्कृत ज्ञान और उत्कृष्टतम भावना के संयोग से ईश्वरत्व की सहज अनुभूति जीवन काल में ही हो जाती है।

गान का सीधा साधा संबंध भाव संवेदना से है। अनुभूति की अभिव्यक्ति में शब्दों की सामर्थ्य छोटी पड़ जाती है। वेद अनुभूतिजन्य ज्ञान हैं, उसे व्यक्त करने के में भी शब्द शक्ति अपर्याप्त है। ऋषि के अनुभूतिजन्य ज्ञान के शब्दों में व्यक्त करने का प्रयास किया, किंतु जब देखा कि पूरे प्रयास के बाद भी अभिव्यक्ति अनुभूति के स्तर की नहीं बन सकी तो, उसने ईमानदारी से कह दिया ‘नीति-नेति ।’यह बात पूरी नहीं हो सकी।

वेद के ज्ञान का मूल स्रोत ऋषियों ने ईश्वर को ही माना है। ज्ञान की सार्थकता पूर्णता तभी है, जब वह पुनः अपने उद्गम तक जा पहुँचे। ईश्वर तक पहुंचने के लिए उसे भावना को योग चाहिए। भाषा को भावपूर्ण बनाने के प्रयास में मंत्र बने। गद्य की अपेक्षा पद्य के भाव संयोग और आभार की क्षमता अधिक पाई गई। पद्य को भी जब गान विद्या में जोड़ा गया तो भावना का प्रवाह अधिक पूर्णता से खुला। अभिव्यक्ति के तीन माध्यमों - 1-गद्य, 2-पद्य, 3-गायन में गायन को भाव विद्या में सबसे अग्रणी देखकर उसे विशेष महत्व दिया गया। ज्ञान की अभिव्यक्ति की उक्त तीन विधाओं के कारण वेदों को तीन प्रवाह युक्त-”वेदत्रयी-- कहा गया। त्रयी हो या चतुष्ठयी, वेद मंत्रों की गणना में कोई अंतर नहीं।

वेदत्रयी के भाषा की रचना प्रमुख है। और वेद चतुष्ठयी में प्रतिपाद्य विषय की प्रधानता है। इसको इस ढंग से भी समझा सकते हैं। वेदत्रयी अर्थात् वेद-मंत्र-गद्य मंत्र एवं गान के मंत्र । वेद चतुष्ठयी अर्थात् गुण वर्णन के मंत्र, यज्ञ कर्म के मंत्र और ब्रह्मज्ञान के मंत्र ।

इन सबमें भाव तरंगों के रहस्यमय दिव्य प्रयोगों को सम्पन्न करने वाले गान के मंत्रों की अपेक्षाकृत कहीं अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। तभी इसके प्रयोग सभी शुभ कर्म के प्रारम्भ में करने का स्पष्ट निर्देश है। बात यह भी सही है कि पद्य, गद्य और गायन में से मन पर गायन का विशेष प्रभाव पड़ता है। इसका अनुभव हम सबको सामान्य जीवन क्रम में भी होता रहता है। गायन से पीड़ित हृदय को शाँति और संतोष मिलता है। इससे मनुष्य की सृजन शक्ति का विकास और आत्मिक प्रफुल्लता बढ़ती है। सच कहें, गायन की अमूल्य निधि देकर परमात्मा ने मनुष्य की पीड़ा को कम किया है। मानवीय गुणों में प्रेम और प्रसन्नता की अभिवृद्धि इससे होती है।

शास्त्रकारों ने स्पष्ट स्वरों में घोषणा की है कि ‘स्वरेण संतलीयते योगी ‘ स्वर साधना के द्वारा योगी अपने को तल्लीन करते हैं। एकाग्र मनःस्थिति को विद्याध्ययन से लेकर जीवन के किसी क्षेत्र में लगाकर चमत्कारी सफलतायें अर्जित की जा सकती है। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण न होगा कि इससे मनुष्य की क्रिया शक्ति बढ़ती है और आत्मिक आनन्द की अनुभूति होती है। वेद के प्रणेता ऋषि महाऋषियों ने इस तत्व की अनुभूति बहुत पहले ही कर ली थी, तभी तो उन्होंने शोध निष्कर्षों में कहा “अभिस्वरन्तिबहवो मनीषिणों राजा नमस्य भुवनस्यर्निसते । “ ऋ॰ 1.57.13 अर्थात् - “ अनेक मनीषी विश्व के महाराजाधिकार भगवान को इंगित कर संगीत मय स्वर लगाते हैं और उसी के द्वारा उन्हें प्राप्त करते हैं। “ एक अन्य मंत्र में बताया है कि ईश्वर प्राप्ति के लिए भक्ति भावनाओं के विकास में गायन का योगदान असाधारण है- “स्वरन्ति त्वा सुते वसो निरेक उक्थिन...................। “

ऋ॰ 8....33.2 )

अर्थात् हे शिष्य ! तुम अपने आत्मिक उत्थान की इच्छा से पास आयें हो। मैं तुम्हें ईश्वर का उपदेश देता हूँ । तुम उसे प्राप्त करने के लिए संगीत के साथ उसे पुकारोगे, तो वह तुम्हारी हृदय गुहा में प्रकट होकर अपना प्यार प्रदान करेगा।

सामवेद में भगवान के संगीत शक्ति के ऐसे रहस्य एवं मर्म स्पर्शी सूत्र पिरोये हुए हैं, जिसका आवाहन कर मनुष्य अपनी आत्मिक शक्तियों तुच्छ से महान, सूक्ष्म से विराट बना सकता है। तभी तो संगीत के दृश्य अदृश्य प्रभावों के अनुसंधान में रत ऋषियों को ऐसी चमत्कारी शक्तियाँ सिद्धियाँ और अध्यात्म का इतना विराट ज्ञान उपलब्ध हुआ जिसे वर्णन करने के लिए एक पृथक वेद की रचना करनी पड़ी।

अब तो पाश्चात्य विद्वानों की मान्यताएँ भी उनके समर्थन में मुखर हो उठी है। उनके कथन से जो निष्कर्ष मिलते हैं, उनसे यही सिद्ध होता है कि मानवीय गुणों और आत्मिक आनन्द को जीवित रखना है तो मनुष्य स्वयँ को गायन से जोड़े रहे। उन्होंने संगीत की तुलना प्रेम से की है। दोनों ही समान उत्पादक शक्तियाँ है। इन दोनों की प्रकृति और जीवन दोनों पर चमत्कारी प्रभाव पड़ता है

“ संगीत आत्मा की उन्नति का सबसे अच्छा साधन है।, इसलिए हमेशा वाद्य यंत्र के साथ गाना चाहिए” यह पाइथागोरस की मान्यता थी । पर डॉ0 फैडन ने अकेले गायन को भी प्रभावोत्पादक और लाभकारी बताया है। इस संबंध को कविवर रवीन्द्र नाथ टैगोर के शब्दों में कहे तो “ सौंदर्य कोई साकार रूप और सजीव प्रदर्शन है, तो उसे संगीत ही होना चाहिए।” अलग अलग प्रकार की सम्मतियां वस्तुतः अपनी अपनी तरह की विशेष अनुभूतियाँ है अन्यथा गायन में शरीर, मन व आत्मा तीनों को बलवान बनाने वाले तत्व परिपूर्ण मात्रा में विमान है। यही कारण था कि ऋषियों ने विशिष्ट यंत्रों का संकलन कर गायन की पद्धति विकसित की।

समस्त स्वर, ताल, लय, छंद, गीत, मंत्र, स्वर चिकित्सा, राग, नृत्य मुद्रा, भाव आदि सामवेद से ही निकाले गये हैं। नाद को 22 श्रुतियों में विभक्त किया गया है। ये श्रुतियां कान को अनुभव की जाने वाली विशिष्ट तरंगें है। इनका प्रभाव मानवीय काया और चेतना पर होता है। 22 श्रुति का संबंध गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों से होता है। प्रणव और व्याहृतियों को श्रुतियों और श्रेणियों में नहीं रखा गया है क्यों कि ये दोनों ईश्वर और ब्रह्मांड के परिचायक है। ईश्वरत्व की अनुभूति होने पर ही ये प्रभावी होते हैं।

षडज से संबंधित तीवा, कुमुद्धति, मन्दा छंदोवती, ऋषभ दयावती, रंजनी, रतिका, गाधार रौद्री, क्रोधा, माध्यम वज्रिका आदि इन श्रुतियों का लाभ इसके गायत्री मंत्र के प्रणव एवं व्याहृति कहा गया है, मात्र ईश्वरोन्मुख भावयुक्त गायन से संभव है।

औषधियाँ जिस प्रकार मूल द्रव्यों के रसायन सम्मिश्रण से उत्पन्न होने वाले आँतरिक प्रभाव के कारण विभिन्न रोगों पर अपना प्रभाव डालती है। उसी प्रकार उन 24 शक्तियों का उनके सम्मिश्रण एवं प्राणियों पर प्रभाव पड़ता है। इस सारी शोध का मूल स्रोत सामवेद ही है। इस संबंध में ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में जो श्रुतियाँ इन रोगों सं संबंधित है उन रोगों का प्रयोग विशेष रोगियों को सुनाने एवं बाँसुरी सितार, वीणा और अन्य वाद्यों को बजाकर वा साधकों को उन्हें सुनाकर किया गया है। जो शोध निष्कर्ष निकला उसे हृदयरोग के लिए भैरवी, शिवरंजनी, अहैल्या, बिलावल मानसिक रोग के लिए ललित एवं केदार राग एवं दमा और खून की कमी वाली बीमारियों के लिए राज्यश्री केदार, कल्याण, पूरिया, प्रियदर्शिनी एवं सामवेद का गायन लाभदायी है। उच्च रक्तचाप के लिए राग हिण्डोल, पूरिया, कौसी, कानड़, कैंसर के लिए सामवेद गायन राग सिद्ध भैरवी, नर्वस ब्रेकडाउन के लिए अहिर भैरव राग, पूरिया चर्म रोग के लिए मेघ मल्हार, राग सुल्तनी, मधुवन्ती मधुमेह हेतु जौन पुरी जामवंती- उच्च ताप, बुखार में मालकोषबसन्त बहार जैसे राग बहुत उपयोगी है। इसी तरह कैंसर, खून बहना, आधा सिर का दर्द, उच्च अम्लता पैष्टिक अल्सर, इनसोमैनिया, ल्यूकोरिया जैसे रोग है, जिन पर संगीत का अचूक प्रभाव सफल रहा है। इस संबंध में जड़ी बूटी चिकित्सा खान-पान, आहर -व्यवहार का नियंत्रण सम्मिलित है। लेकिन चिकित्सा का एक प्रयोग संगीत का है जिससे चमत्कारी परिवर्तन देखने में आता है।

वैदिक काल में संगीत के इस रहस्यमय विज्ञान के ज्ञाता मंत्र गायन, भावमुद्राओं के रसानुभूतियों के आधार पर अपने अंतराल में दबी हुई शक्तियों को जगाते थे और संपर्क में आने वाले प्राणी मात्र की व्यथा वेदना को हरते थे। जड़ चेतन प्रकृति को प्रभावित करके वे अवांछनीय परिस्थितियों को बदलकर अनुकूल वातावरण उत्पन्न करने में चमत्कारी सफलता प्राप्त करते थे। उसी आधार पर ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान एवं शाँतिकुँज में नादयोग सामगान प्रेरणादायी संगीत साधना के माध्यम से सफलता प्राप्त की जा सकती है। एक शोधकर्त्ता के लिए यह विषय छोड़ा गया है कि वे इस संबंध में आगे प्रयोग शृंखला को कैसे आगे बढ़ा सकते हैं ? एक अच्छा विचारक स्वर विज्ञान का ज्ञाता होना चाहिए, ऐसा हमारे आयुर्वेद के विद्वान लिख ये है सही भी है। जिस वेद का साम का भान का नाद न हो उसके अंतः में संवेदना के अंकुर कैसे फूटेंगे एवं यह अन्याय औषधि के साथ संगीत को न जोड़ पाया तो उसकी चिकित्सा अधूरी रहेगी। सर्वांग पूर्ण चिकित्सा हेतु सामगान सामवेद का ज्ञान हर चिकित्सक को दिया जाना चाहिए, यह युग ऋषि की मान्यता है एवं इस संबंध में जागृति फैलाने का काम हम सबका है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118