वृद्धावस्था आने पर कई व्यक्ति स्वभाव में परिवर्तन ला नहीं पाते। दुश्चिंतन मिटे तो ही आगे की व्यवस्था बन सकती है। बुढ़ापे ने काया जीर्ण कर दी तो ब्राह्मण और किसी लायक न रहा । सूखी लकड़ियाँ पास के जंगल से बीनकर गाँव में बेंच आता और किसी प्रकार निर्वाह चलाता। एक दिन लकड़ी भी थोड़ी मिली और दुर्भाग्य से बाघ भी झाड़ी से निकलकर सामने आ खड़ा हुआ। ब्राह्मण प्राण जाने के भय से थर थर काँपने लगा। इतने में उसे एक सूझ सूझी। दोनों हाथ ऊपर की आशीर्वाद की मुद्रा में प्रसन्न होकर मंत्र पढ़ने लगा। बाघ की इस विचित्र व्यवहार को जानने की इच्छा हुई और वह झपटने से पूर्व बोला -तुम कौन हो और ऐसी विचित्र भाषा में क्या कह रहे हो। अब तक तुमसे भेट ही नहीं हो पायी थी।, सो प्रतीक्षा में था कि प्रसन्न होकर आशीर्वाद के मंत्र पढ़ने लगा। तुम्हारा कल्याण हो ! अपने पूर्वजों की भाँति जो दक्षिणा बने, सो देने का प्रयत्न करो।
बात इस विचित्र कथन पर सकपका गया और पुरोहित को प्रणाम करके बोला- देखते हैं न, मेरे हाथ सर्वथा खाली है। शरीर से कुछ काम कराना चाहें तो कर दूँ। ब्राह्मणा ने कहा -यजमान तुम्हारी श्रद्धा बहुत सराहनीय है। इतना भर कर दो कि मेरी लकड़ियाँ पीठ पर लादकर पास के गाँव में पहुँचा दीजिए। बाघ सहमत हो गया और ब्राह्मण द्वारा लादे बोझ को गाँव की सीमा तक पहुँचा दिया । बाघ ने कहा ऐसी सेवा तो मैं रोज दिया करूंगा। इसी समय तुम मेरी प्रतीक्षा किया करना। ब्राह्मण नित्य लकड़ी का लट्ठा जमा करता और बाघ उसे ढोकर गाँव तक पहुँचाता था। इसी तरह कितने ही दिन बीत गये और एक दिन बाघ विलंब से आया । तो ब्राह्मण ने उसे बहुत खरी खोटी सुनाई और शाप देने की धमकी दी। बाघ चुप रहा और गट्ठा पहुँचाने के बाद उसने ब्राह्मण से कहा- आज मेरा एक काम कर दो कल से मैं नहीं आऊँगा। ब्राह्मण के तेवर बदले देख कर उसने समझा कि कहना न माने तो खैर नहीं। सो उसने नम्र होकर आदेश पूछा । बाघ ने कहा - अपनी लकड़ी काटने की कुल्हाड़ी से मेरे कंधे पर घाव कर दो। असमंजस के बाद उसने वैसा कर भी दिया। घाव छोटा था। बाघ चला गया और दूसरे दिन से फिर नहीं आया। एक दो महीने बीतने पर बाघ फिर प्रकट हुआ। उसने ब्राह्मण को अपनी घाव दिखाते हुए कहा यह अच्छा हो गया है न। पर अभी तक उस दिन के कटु वचनों का घाव अभी भी हरा है और तुम्हारे जैसे से कोई व्यवहार न रखने की नसीहत दे गया है।