मंत्र साधना की सफलता के लिए साधक का उपयुक्त व्यक्तित्व निर्माण करना एक ऐसा कार्य है जिस पर जितना अधिक ध्यान दिया जाय उतना ही उत्तम है। शरीर के क्रिया कलाप ऐसे हो, जिनसे इन्द्रिय शक्ति कलुषित एवं विकृत न होती हो । इस दृष्टि से इन्द्रिय निग्रह, संयम और सदाचार पर अत्यधिक जोर दिया जाना चाहिए। साथ ही भावनाओं की उत्कृष्टता मंत्र शक्ति में प्राण झोंक देती है इस बात का भी ध्यान रखा जाय। साधना के लक्ष्य एवं साधन विधान की यथार्थता एवं सफलता के बारे में मन सुनिश्चित और संयम सहित रहना चाहिए। इसके लिए सतत् प्रयत्न करते रहने और तत्काल फल प्राप्ति के लिए उतावली न करने का धैर्य भी आवश्यक है।
इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत जीवन की रीति नीति एवं लोक व्यवहार में सौम्य उद्दात्त एवं निर्मल दृष्टिकोण रहना चाहिए। स्नेह सद्भावना सज्जनता, करुणा एवं उदारता का अंतःकरण में जितना अधिक समावेश होगा, उसी अनुपात में साधना की सफलता के लिए उपयुक्त मनो भूमि बनेगी। इस प्रकार का शारीरिक और मानसिक निर्माण आध्यात्मिक जगत की कुँजी समझी जानी चाहिए। साधक की सफलता का तीन चौथाई श्रेय इसी तथ्य पर निर्भर है कि विधि विधान का तो एक चौथाई ही को महत्व दिया जा सकता है। इन दिनों साधक पथ के पथिकों जो असफलता और जन्य निराशा ही हाथ लगती है। और उसका एक बहुत बड़ा कारण जीवन साधना की उपेक्षा और विधि विधान को सब कुछ मान बैठने की भूल है और यह भूल सुधार ली जाय और साधना के राज मार्ग पर चलने की सर्वांग पूर्ण तैयारी की जाय तो उसकी सफलता भी उतनी ही निश्चित है जितनी सही ढंग से किये गये भौतिक विज्ञान संबंधी क्रिया कलापों की।
साधना के अन्य माध्यम भी है पर मंत्र साधना सर्वत्र अनिवार्य है। कारण कि इसमें संकल्प शक्ति जागृत एवं नियंत्रित होती है, साथ ही शब्द विज्ञान का ऐसा सुन्दर सुयोग भी जुड़ता है जो साधक की प्रसुप्त किन्तु अति अद्भुत शक्तियों को जागृत कर उसे आत्मबल सम्पन्न बनाता है और वाह्य जगत को प्रभावित करने की रहस्यमयी हलचलों का सृजन करता है।
मंत्र क्या है इसके बारे में आज की स्थिति, सर्वभौम और सर्वजनीन दृष्टि से कुछ कह सकना कठिन है कारण यह है कि इन दिनों साम्प्रदायिक पक्षपात और पूर्वाग्रहों का बोलबाला है। हर सम्प्रदाय अपनी परम्परा को प्रधानता देता है। अन्य मत वालों की बात उसके गले नहीं उतरती।किसी प्रकार समझा भी दिया जाय तो श्रद्धा नहीं जमती। ऐसी दशा में सामयिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए यही कहना ठीक होगा कि साधक अपनी मान्यताओं के आधार पर कोई मंत्र अपनालें और उसी पर श्रद्धा केन्द्रित करें और उसी को साधना का माध्यम बनाये। ऐसी दशा में विधि विधान भी अपनी अपनी परम्पराओं के अनुसार अपनाना होगा। यों यह मार्ग भी देर सवेर में लक्ष्य तक पहुँचा ही देगा और अश्रद्धा, संदेश एवं आशंका के वातावरण में किये गये उपयुक्त मंत्र की अपेक्षा अधिक अच्छा रहेगा। पर यह काम चलाऊ समझौता है, तथ्य नहीं। यदि लेखक को हिन्दू धर्मानुयायी होने और एक मंत्र विशेष पर उसका पक्षपात होने के द्वेष से मुक्त किया जा सके, तो उसे यह कहने में कोई संकोच न होगा कि गायत्री मंत्र की शब्द संरचना अनुपम और अद्भुत है। आगम और निगम का समस्त भारतीय अध्यात्म इसी पृष्ठभूमि पर खड़ा है। मंत्र और तंत्र की अगणित शाखा प्रशाखाएँ इसी का विस्तृत परिवार है। अन्य धर्मावलंबियों के अन्य मंत्र हो सकते हैं पर जब कभी सर्वभौम और सर्वजनीन मंत्र की खोज पूर्वाग्रह को दूर रखकर निष्पक्ष भाव से उसकी निजी महत्ता के आधार पर की जायेगी तो उसका निष्कर्ष गायत्री मंत्र ही निकलेगा। पर इन दिनों इसी के लिए आग्रह करना साधना के क्षेत्र में गतिरोध उत्पन्न करना होगा। अभी तो सरल प्रतिपादन तो यही है कि श्रद्धानुरूप मंत्र और परम्परानुसार विधि विधान अपना लिया जाय। यह तरीका भी बुरा नहीं है। प्रगति धीमी भले ही रहे पर प्रगति लक्ष्य की ही ओर रहेगी।
श्रद्धा और एकाग्रता युक्त मनोभूमि में स्वच्छ शरीर मन, वस्त्र स्थान और उपकरणों का ध्यान रचाते हुए किया हुआ जप तुरन्त स्फूर्ति प्रदान करता है। और जिस प्रकार चाय आदि उत्तेजक पदार्थ पीने से तत्काल फुर्ती दिखाई पड़ती है वैसा ही अनुभव साधना काल एवं उसके उपरान्त होता है। लगता है कुछ आन्तरिक और महत्वपूर्ण शक्ति कहाँ से मिलती है और वह अपेक्षाकृत अधिक आत्मबल सम्पन्न बना है। हर्ष संतोष और प्रकाश के रूप में मंत्र की उपलब्धि को सहज ही परखा जा सकता है। कहना न होगा कि इसका मन अपने तक ही सीमित नहीं रहता। उसका प्रभाव वाह्य जगत पर भी पड़ता है। किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति को इस उपलब्धि से प्रभावित और परिवर्तित किया जा सकता है। सिद्धि इसी का नाम है।
स्वामी रामतीर्थ ने एक बार कहा था- ईश्वर बना जा सकता है।उसे देख या दिखाया नहीं जा सकता। सूक्ष्म तत्व के बारे में यही बात है। ईश्वर तत्व में शब्द प्रवाह के संचार को रेडियो यंत्र अनुभव करा सकता है पर ‘ईश्वर’ को उसके असली रूप में देखा जा सकना संभव नहीं। गर्मी, सर्दी, सुख, दुख की अनुभूति होती है उन्हें पदार्थ की तरह प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता। मंत्र में उच्चस्तरीय शब्दावली मंत्र की मूल शक्ति नहीं वरन् उसको सजग करने का उपकरण है। किसी सोते को हाथ से झकझोर कर जगाया जा सकता है। पर यह हाथ ‘जागृति’ नहीं। अधिक से अधिक उसे जागृत निमित्त होने का श्रेय ही मिल सकता है। मंत्रोच्चार भी अंतरंग में और अंतरिक्ष में भरी पड़ी अगणित चेतन शक्तियों में से कुछ को जागृत करने का एक निमित्त कारण भर है।
किस मंत्र से किस शक्ति को, किस आधार पर जगाया जाय, उसका संकेत हर मंत्र के साथ जुड़े हुए विनियोग में बताया जाता है। आगम और निगम शास्त्रों में मंत्र विधान के साथ ही उसका उल्लेख रहता है। जप तो मूल मंत्र का ही किया जाता है पर उसे आरम्भ करते समय विनियोग को पढ़ ले ना तथा स्मरण कर लेना आवश्यक है। इससे मंत्र के स्वरूप और लक्ष्य के प्रति साधना काल में जागरुकता बनी रहती है और कदम सही दिशा में बढ़ता रहता है।
मंत्र विनियोग के पाँच अंक है- ऋषि, छन्द, देवता, बीज, तत्व । इन्हीं से मिलकर मंत्र शक्ति सर्वांगपूर्ण बनती है। पंच तत्वों के सम्मिश्रण से विभिन्न शरीर और पदार्थ बनते हैं। इसी प्रकार विनियोग के पाँच अंक उसके प्रत्यक्ष और सजीव बनाने वाले आधार माने जाते हैं। हमारे सूक्ष्म शरीर की पाँच परतें है इन्हें आवरण या कोश कहते हैं। प्याज के भीतर जिस तरह परतें होती है हमारी अंतः चेतना में वैसी ही है उन्हें
(1) अन्नमय कोश (2) प्राणमय कोश (3) मनोमय कोश (4) विज्ञान मय कोश और (5) आनन्दमय कोश कहते हैं। इन्हें पाँच शक्ति भण्डार भी कह सकते हैं। पृथ्वी पर जैसे पाँच महाद्वीप है उसी प्रकार चेतना सत्ता को स्थूल और सूक्ष्म प्रकृति की काया में इन्हें देखा व समझा जा सकता है। मंत्र विनियोग के पाँचों अंक ऋषि, छंद, देवता बीज और तत्व इन पाँचों आधारों को प्रस्फुटित, प्रदीप्ति एवं प्रयुक्त कैसे किया जाय इसका पथ प्रदर्शन करते हैं। अस्तु किसी मंत्र की साधना करते हुए उसके विनियोग भाग को भी जानना समझना और अपनाना आवश्यक है।
‘ऋषि’ तत्व संकेत है -मार्गदर्शक गुरु। ऐसा व्यक्ति जिसमें उस मंत्र से पारंगतता प्राप्त की हो सर्जरी, संगीत जैसे क्रिया कलाप अनुभवी शिक्षक ही सिखा सकता है। पुस्तकीय ज्ञान से नौकानयन नी सीखा जा सकता है इसके लिए किसी मल्लाह का प्रत्यक्ष प्रदर्शन चाहिए। चिकित्सा ग्रंथ और औषधि भण्डार उपलब्ध रहने पर भी चिकित्सक की आवश्यकता पड़ती है । विभिन्न मनो भूमियों के कारण साधना पथिकों के मार्ग में भी कई प्रकार के उतार चढ़ाव आते हैं, उस स्थिति में सही निर्देश और उलझनों का समाधान केवल वही कर सकता है जो उस विषय में पारंगत हो। गुरु का यह कर्तव्य भी हो जाता है कि शिष्य ने केवल पथ प्रदर्शन करे वरन् उसे अपनी शक्ति का एक अंश अनुदान देकर प्रगति पथ को सरल भील बनाये। अस्तु ऋषि का आश्रय मंत्र साधना की प्रथम पीढ़ी बताई गयी है।
छंद का अर्थ है- लय । काव्य में प्रयुक्त होने वाली पिंगल प्रक्रिया के आधार पर ही छन्दों का वर्गीकरण होता है, यहाँ उसका कोई प्रयोजन नहीं मंत्र रचना से काव्य प्रक्रिया अनिवार्य नहीं। फिर यदि हो भी तो उसको जानने न जानने से कुछ बनता बिगड़ता नहीं। यहाँ लय को ही छंद समझा जाना चाहिए किस स्वर में, किस क्रम से, किस उतार चढ़ाव के साथ मंत्रोच्चारण किया जाय यह एक स्वतंत्र शास्त्र है, सितार में तार तो उतने ही होते हैं, अंगुलियां चलने का क्रम भी हर वादन में चलता है, पर बजाने वाले के कौशल तारों पर आघात करने के क्रम में करके विभिन्न राग रागनियों का ध्वनि प्रवाह उत्पन्न करता है। मानसिक, वाचिक, उपार्शु, उदात्त, अनुदात्त स्वरित ही नहीं मंत्रोच्चार के और भी भेद प्रभेद है जिनके आधार पर उसी मंत्र द्वारा अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाएं उत्पन्न की जा सकती है।
ध्वनि तरंगों के कंपन इस लय पर निर्भर है। साधना विज्ञान में इसे यति कहा जाता है।मंत्रों की एक यति सबके लिए उचित नहीं। व्यक्ति को स्थिति और अपनी आकाँक्षा को ध्यान में रखकर यति का-लय का -निर्धारण करना पड़ता है। साधक को उचित है कि मंत्र साधना में प्रवृत्त होने के लिए उपयुक्त छंद की लय निर्धारण करले।
ध्वनि योग का तीसरा चरण है- देवता । देवता का अर्थ है चेतना सागर में से अपने अभीष्ट शक्ति प्रवाह का चयन। आकाश में एक ही समय में अनेक रेडियो स्टेशन बोलते रहते हैं पर हर किसी की फ्रीक्वेंसी अलग होती है। ऐसा न होता तो ब्रोडकास्ट किये गये सभी शब्द मिलकर एक हो जाते। शब्द धाराओं की पृथकता और उनसे संबंध स्थापित करने के पृथक माध्यमों का उपयोग करके ही किसी रेडियो सेट के लिए आज यह संभव है कि अपनी पसंद का रेडियो प्रोग्राम सुने और अन्यत्र में चल रहे प्रोग्रामों को चलने से रोक दें। निखिल ब्रह्माण्ड में ब्रह्म चेतना की अनेक धारायें समुद्री लहरों की तरह अपना पृथक आस्तित्व लेकर भी चलती है। भूमि एक ही होने पर उसमें परतें अलग अलग तरह की निकलती है।समुद्री अगाध जल में पानी की परतें तथा असीम आकाश में वायु से लेकर किरणों तक की अनेक परतें होती है।इस प्रकार ब्रह्म चेतना के अनेक प्रयोजनों के लिए उद्भूत अनेक तरंगें निखिल ब्रह्माण्ड में प्रवाहित होती रहती है। उनके स्वरूप और प्रयोजनों को ध्यान में रखते हुए ही उन्हें देवता कहा जाता है। साकार उपासना पक्ष इनकी अलंकारिक प्रतिमा भी बना लेता है और निराकार पक्ष प्रकाश किरणों के रूप में उसको पड़ता है। सूर्य की सात रंग की किरणोँ में से हम जिसे चाहे उसे रंगीन शीशे के माध्यम से उपलब्ध कर सकते हैं। एक्सरे मशीन अल्ट्रावायलेट किरणें आकाश में से अपनी अभीष्ट किरणों को ही प्रयुक्त करते हैं। हंस दूध पीता है, पानी छोड़ देता है। इसी प्रकार किसी मंत्र के लिए ब्रह्म चेतना की किस दिव्य तरंग का प्रयोग किया जाय इसके लिए विधान निर्धारित है।
स्थापन, पूजन, स्तवन, आदि क्रियायें इसी प्रयोजन के लिए होती है। निराकार साधक ध्यान द्वारा उस शक्ति को अपने अंग प्रत्यंगों में तथा समीपवर्ती वातावरण में ओत - प्रोत होने की भावना करते हैं। किस देव संपर्क का यह तरीका ठीक रहेगा यह निश्चय करके ही मंत्र साधक को प्रगति पथ पर अग्रसर होना होता है।बीज का अर्थ है उद्गम । मानवी काय कलेवर में विभिन्न शक्तियों के लिए विभिन्न स्थान निर्धारित है। षट् चक्रों 108 उपत्यिकाओं, सहस्र शक्ति नदियों का निर्धारण स्थान है। उन स्थानों को शक्ति संपर्क स्थान कहाँ है और उसे किसी विधि से प्रभावित किया जाय इसी जानकारी को बीज विज्ञान कहते हैं। ह्रीं, श्री, क्लीं, ऐं, हुँ, यं, वं, रं, लं, आदि बीज अक्षर भी है जिसे किसी मंत्र में अतिरिक्त शक्ति भरने का सूक्ष्म इन्जेक्शन कहते हैं। आवश्यकतानुसार मंत्रों के साथ इन अतिरिक्त बीजों को भी जोड़ दिया जाता है। गायत्री मंत्र और मृत्युंजय मंत्र में इसी आधार पर कई बीज उलट पलट कर लगायें जाते हैं। यद्यपि उन्हें लगाना अनिवार्य नहीं पर मंत्र के उद्गम स्थान को तो जानना ही चाहिए। टेलीफोन के डायल को घुमाकर अभीष्ट नंबर से बाते की जा सकती है। बीज स्थान और बीज शक्ति का प्रयोग करके मंत्र को समर्थ बनाने वाली ब्रह्म चेतना के साथ संबंध जोड़ा जा सकता है और उसका समुचित लाभ उठाया जा सकता है।
तत्व को मंत्र की कुँजी कह सकते है दूसरे शब्दों में इसे लक्ष्य भी कहा जा सकता है। अक्सर साधना करने से पूर्व संकल्प पढ़े जाते हैं उनमें यह प्रतिज्ञा रहती है कि साधना का उद्देश्य क्या है ?इसके माध्यम से हमें जाना कहाँ है- और प्राप्त करना क्या है ?स्थूल रूप से पंच तत्वों एवं तीन गुणों के रूप में मंत्रों की प्रवृत्ति मिलती रहती है और उस तत्व के अनुरूप पूजा उपकरण इकट्ठे करके तत्व साधना की जाती है।
आयुर्वेद शास्त्र में वस्तुओं के स्थूल, सूक्ष्म और कारण प्रवृत्तियों का वर्णन है। सामान्य तथ्य अन्न का स्थूल भाग रक्त माँस बनता है, सूक्ष्म भाग से बुद्धि और मनः चेतना विकसित होती है और कारण प्रभाव से अंतरात्मा को पोषण मिलता है।
योगशास्त्र में आहार का सात्विक राजस, तामस वर्गों का वर्गीकरण किया जाता है। मनुष्य के तीन शरीर होते हैं स्थूल, सूक्ष्म और कारण । इसी प्रकार हर वस्तु के अंतराल में उपरोक्त प्रकृतियों की न्यूनाधिकता भरी रहती है। पेड़ों में से केवल यज्ञ कार्य के लिए वही प्रयुक्त होती है जिनकी सूक्ष्म और कारण शक्ति सूक्ष्म प्रयोजनों में सहायक होती है। इसी आधार पर निर्माण निर्धारण किया जाता है किस मंत्र की, किस उद्देश्य के लिए, किस स्थिति का मनुष्य साधना करें तो उसे आहार, वस्त्र, रहन-सहन, माला, दीपक, धूप, नैवेद्य आदि में किस प्रकार का चयन करना चाहिए। तत्व निर्धारण में इसी बात का ध्यान रखा जाता है।
दबी हुई प्रसुप्त क्षमता को प्रखर करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। यंत्रों को चलाने के लिए ईंधन चाहिए। हाथ या पैर से चलने वाले ईंधन के लिए न सही उन्हें चलाने वाले हाथ पैरों को काम करते रहने के लिए ऊर्जा की जरूरत रहती है यह तापमान जुटाने पर ही यंत्र काम करते हैं। मंत्रों की सफलता भी इसी ऊर्जा उत्पादन पर निर्भर है।
साधना विधान का सारा कलेवर इसी आधार पर खड़ा किया गया है कि आयुर्वेद में भी नाड़ी शोधन के लिए वमन, विरेचन, स्नेहन, स्वेदन, नस्व यह पाँच कर्म शरीर शोधन के लिए हैं। मंत्र साधन में व्यक्तित्व के परिष्कार के अतिरिक्त पाँच आधार - ऋषि, छंद, देवता, बीज और तत्व है। जो इन सब साधनों को जुटाकर मंत्र साधना कर सके उसे अभीष्ट प्रयोजन की प्राप्ति होकर रहती है।