आत्म-कल्याण जप के साथ पय-पान का ध्यान

April 1968

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आत्म-कल्याण के लिए गायत्री महामंत्र की पहली एक माला जप करते समय अपने को एक वर्ष आयु के छोटे बालक के रूप में अनुभव करना चाहिये और सर्वशक्तिमान गायत्री माता की गोद में खेलने, क्रीड़ा-कल्लोल करने की भावना करनी चाहिये। उनका पाय-पान करते हुए यह अनुभूति जगानी चाहिये कि इस अमृत दूध के साध मुझे आदर्शवादिता, उत्कृष्टता, ऋतंभरा प्रज्ञा, सज्जनता एवं सदाशयता जैसी दिव्य आध्यात्मिक विभूतियाँ उपलब्ध हो रही हैं और उनके माध्यम से अपना अन्तःकरण एवं व्यक्तित्व महान बनता चला जा रहा है।

ध्यान का स्वरूप नीचे दिया जाता है।

(1) प्रलय के समय बची हुई अनन्त जलराशि में कमल के पत्ते तैरते हुए बाल भगवान का चित्र बाजार में बिकता है। वह चित्र खरीद लेना चाहिये और उसी के अनुरूप अपनी स्थिति अनुभव करनी चाहिये। इस संसार से ऊपर नील आकाश और नीचे नील जल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। जो कुछ भी दृश्य पदार्थ इस संसार में थे वे इस प्रलय काल में ब्रह्म के भीतर तिरोहित हो गये। अब केवल अनन्त शून्य बना है जिनमें नीचे जल और ऊपर आकाश के अतिरिक्त और कोई वस्तु शेष नहीं। यह उपासना भूमिका के वातावरण का स्वरूप है। पहले इसी पर ध्यान एकाग्र किया जाये।

(2) मैं कमल पत्र पर पड़े हुए एक वर्षीय बालक की स्थिति में निश्चिन्त भाव से पड़ा क्रीड़ा-कल्लोल कर रहा हूँ। न किसी बात की चिन्ता है, न आकाँक्षा और न आवश्यकता। पूर्णतया निश्चिन्त, निर्भय, निर्द्वन्द्व, निष्काम जिस प्रकार छोटे बालक को मनोभूमि हुआ करती है, ठीक वैसे ही अपनी है। विचारणा का सीमित क्षेत्र एकाकीपन के उल्लास में ही सीमित है। चारों ओर उल्लास एवं आनंद का वातावरण संव्याप्त है। मैं उसी की अनुभूति करता हुआ परिपूर्ण तृप्ति एवं सन्तुष्टि का आनन्द ले रहा हूँ।

(3) प्रातःकाल जिस प्रकार संसार में अरुणिमा युक्त स्वर्णिम आभा के साथ भगवान सविता अपने समस्त वरेण्य, दिव्य भर्ग ऐश्वर्य के साथ उदय होते हैं उसी प्रकार उस अनन्त आकाश की पूर्व दिशा में से ब्रह्म की महान शक्ति गायत्री का उदय होता है। उसके बीच अनुपम सौंदर्य से युक्त अलौकिक सौंदर्य की प्रतिमा जगद्धातृ गायत्री माता प्रकट होती है। वे हंसती-मुस्कराती अपनी ओर बढ़ती आ रही हैं। हम बालसुलभ किलकारियाँ लेते हुए उनकी ओर बढ़ते चले जाते हैं। दोनों माता-पुत्र आलिंगन आनन्द से आबद्ध होते हैं और अपनी ओर से असीम वात्सल्य की गंगा-यमुना प्रवाहित हो उठती है दोनों का संगम परम-पावन तीर्थराज बन जाता है।

माता और पुत्र के बीच क्रीड़ा-कल्लोल भरा स्नेह वात्सल्य का आदान-प्रदान होता है। उसका पूरी मरह ध्यान ही नहीं भावना भूमिका में भी उतारना चाहिये। बच्चा माँ के बाल, नाक, कान आदि पकड़ने की चेष्टा करता है, मुँह नाक में अंगुली देता है, गोदी में ऊपर चढ़ने की चेष्टा करता है, हंसता, मुस्कराता और अपने आनन्द की अनुभूति उछल-उछल कर प्रकट करता है वैसी ही स्थिति अपनी अनुभव करनी चाहिये। माता अपने बालक को पुकारती है, उसके सिर पीठ पर हाथ फिराती है, गोदी में उठाती, छाती से लगाती, दुलराती है, उछालती है, वैसी ही चेष्टायें माता की ओर से प्रेम उल्लास के साथ हंसी-मुस्कान के साथ ही जा रही हैं ऐसा ध्यान करना चाहिये।

स्मरण रहे केवल उपर्युक्त दृश्यों की कल्पना करने से काम न चलेगा वरन् प्रयत्न करना होगा कि वे भावनायें भी मन में उठें, जो ऐसे अवसर पर स्वाभाविक माता पुत्र के बीच उठती रहती हैं। दृश्य की कल्पना सरल और भाव की अनुभूति कठिन है। अपने स्तर को वयस्क व्यक्ति के रूप में अनुभव किया गया तो कठिनाई पड़ेगी किन्तु यदि सचमुच अपने को एक वर्ष के बालक की स्थिति में अनुभव किया गया, जिसको माता के स्नेह के अतिरिक्त और यदि कोई प्रिय वस्तु होती ही नहीं, तो फिर विभिन्न दिशाओं में बिखरी हुई अपनी भावनायें एकत्रित होकर उस असीम उल्लास भरी अनुभूति के रूप में उदय होंगी जो स्वभावतः हर माता और हर बालक के बीच में निश्चित रूप से उदय होती हैं। प्रौढ़ता भुला कर शैशव का शरीर और भावना स्तर स्मरण कर सकता यदि संभव हो सका तो समझना चाहिये कि साधक ने एक बहुत बड़ी मंजिल पार कर ली।

मन प्रेम का गुलाम है। मन भागता है पर उसके भागने की दिशा अप्रिय से प्रिय भी होती है। जहाँ प्रिय वस्तु मिल जाती है वहाँ वह ठहर जाता है। प्रेम ही सर्वोपरि प्रिय है। जिससे भी अपना प्रेम हो जाय वह भले ही कुरुप या निरूप भी हो पर लगता परम प्रिय है। मन का स्वभाव प्रिय वस्तु के आस-पास मंडराते रहने का है। उपर्युक्त ध्यान साधना में गायत्री माता के प्रति प्रेम भावना का विकास करना पड़ता है फिर उसका सर्वांग सुन्दर स्वरूप भी प्रस्तुत है। सर्वांग सुन्दर प्रेम को अधिष्ठात्री गायत्री माता का चिन्तन करने से मन उसी परिधि में घूमता रहता है। उसी क्षेत्र में क्रीड़ा कल्लोल करता रहता है। अतएव मन को रोकने, वश में करने की एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक आवश्यकता भी इस साधना के माध्यम से पूरी हो जाती है।

इस ध्यान धारणा में गायत्री माता को केवल एक नारी-मात्र नहीं माना जाता है। वरन् उसे सत् चित् आनंद स्वरूप समस्त सद्गुणों, सद्भावनाओं, सत्प्रवृत्तियों का प्रतीक, ज्ञान-विज्ञान का प्रतिनिधि और शक्ति सामर्थ्य का स्रोत मानते हैं। प्रतिमा नारी की भले ही हो पर वस्तुतः वह ब्रह्म चेतना क्रम दिव्य ज्योति बन कर ही- अनुभूति में उतरे।

जब माता के स्तन-पान का ध्यान किया जाय तो यह भावना उठनी चाहिये कि यह दूध एक दिव्य प्राण है जो माता के वक्षःस्थल से निकल कर मेरे मुख द्वारा उदर में जा रहा है और वहाँ एक धवल विद्युत-धारा बनकर शरीर के अंग-प्रत्यंग रोम-रोम में ही नहीं- वरन् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, हृदय, अन्तःकरण, चेतना एवं आत्मा का समाविष्ट हो रहा है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों में अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोशों में समाये हुये अनेक रोग-शोकों, कषाय-कल्मषों का निराकरण कर रहा है। इस पय-पान का प्रभाव एक कायाकल्प कर सकने वाली संजीवनी रसायन जैसा हो रहा है। मैं नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, अणु से विभु क्षुद्र से महान और आत्मा से परमात्मा के रूप में विकसित हो रहा हूँ। ईश्वर के समस्त सद्गुण धीरे-धीरे व्यक्तित्व का अंग बन रहे हैं। मैं द्रुतगति से उत्कृष्टता की ओर अग्रसर हो रहा हूँ। मेरा आत्म-बल असाधारण रूप में प्रखर हो रहा है।


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