युग-निर्माण-सत्संकल्प

April 1968

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हम आस्तिकता और कर्त्तव्यपरायणता को मानव जीवन का धर्म कर्त्तव्य मानेंगे।

शरीर को भगवान का मन्दिर समझ कर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।

मन को जीवन का केन्द्र बिन्दु मान कर उसे सदा स्वच्छ रखेंगे।

कुविचारों और दुर्भावनाओं से इसे बचाये रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।

अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।

व्यक्तिगत स्वार्थ एवं सुख को सामूहिक स्वार्थ एवं सामूहिक हित से अधिक महत्व न देंगे।

नागरिकता, नैतिकता, मानवता, सच्चरित्रता, शिष्टता, उदारता, आत्मीयता, समता, सहिष्णुता, श्रमशीलता जैसे सद्गुणों को सच्ची सम्पत्ति समझ कर इन्हें व्यक्तिगत जीवन में निरन्तर बढ़ाते रहेंगे।

साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा कार्यों में आलस्य और प्रमाद न होने देंगे।

चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।

परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्व देंगे।

अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।

मनुष्य के मूल्याँकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।

हमारा जीवन स्वार्थ के लिये नहीं, परमार्थ के लिये होगा।

संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिये अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।

दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे जो हमें अपने लिए पसंद नहीं।

ईमानदारी और परिश्रम की कमाई ही ग्रहण करेंगे।

पत्नीव्रत धर्म और पतिव्रत धर्म का परिपूर्ण निष्ठा के साथ पालन करेंगे।

‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है’ इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनायेंगे तो युग अवश्य बदलेगा।

हमारा युग-निर्माण संकल्प अवश्य पूर्ण होगा।


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