मनोविज्ञान और योग

February 1955

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(प्रो. लालजीराम शुक्ल)

सभी धर्मों का सार योग है, जो मानसिक शाँति प्राप्त करने का श्रेष्ठ मार्ग है। योग का अर्थ होता है कि व्यक्तिगत जीव में जो आत्म-तत्व व्यापक है, वह समष्टि में समाविष्ट हो जाय। इस क्रिया के उपराँत मनुष्य की स्थिति शून्य हो जाय—यही ईश्वर साक्षात्कार का भी मार्ग है। इच्छाओं के समुच्चय का नाम व्यक्ति है। इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति इच्छाओं को समाप्त कर समृद्धि की ओर प्रेम तत्व की ओर अग्रसर होता है—

मालिक तेरी रजा रहे, और तू ही तू रहे। बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे॥

अहंकार युक्त स्वत्व की समाप्ति के लिये क्रमशः इच्छाओं की समाप्ति करनी पड़ती है। भारतीय परम्परा में ज्ञान, भक्ति और कर्म तीन योग−पथ प्रदर्शित हैं। ज्ञान योग, इच्छाओं की समाप्ति की ओर ही प्रमुखतया प्रयत्नशील है। इच्छा और दुख एक दूसरे के पूरक तथा आपेक्ष हैं। क्राइस्ट, बुद्ध तथा कृष्ण सभी ने यही कहा है। कर्म योग में निष्काम कर्मशीलता की ओर ध्यान विशेष रखा जाता है। भक्ति योग से भी अपने भगवान के समक्ष अपनी इच्छाओं को समाप्त किया जाता है। इस प्रकार सभी का उद्देश्य सम्पूर्ण तत्व की ओर उन्मुख कराना है। यदि हम शान्ति का ध्यान तथा आवाहन करें तो इच्छाओं की कमी तथा ह्रास होता है। इच्छाओं के ध्यान से शान्ति स्वयं आ जाती है। बौद्ध तथा अद्वैत दर्शन में यही सापेक्षिक अन्तर है।

इच्छाओं का विनाश सीधे करना हानिप्रद नहीं तो क्लिष्ट तथा खतरनाक अवश्य है। हाथ के काम को पूरा करना अत्यन्त ही आवश्यक है। इच्छाओं के अकस्मात् निरोध से एक प्रकार की आत्म−हत्या हो जाती है। मनोविज्ञान आत्मा हत्या नहीं प्रत्युत आत्मा विकास का मार्ग बताता है। ब्रह्मपद−विष्णुपद ये सभी आत्म विकास के प्रतिफल हैं। इच्छाओं की समाप्ति एक जन्म में नहीं प्रत्युत बहुत दिनों में होती है। अतः हमें क्रमिक विकास की ओर ध्यान देना चाहिए। यह जीवन का एक दिन का तो है नहीं अतः शीघ्रता करना मूर्खता है। मनुष्य को पहले छोटी इच्छाओं की समाप्ति करनी चाहिये। आशीर्वाद से मनुष्य के मन में एक दृढ़−निश्चय उत्पन्न हो जाता है—जो जीवन में अनेकों प्रकार का चमत्कार दिखाता है। इस प्रकार के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। निष्कामी सत्पुरुष—जिस को स्वतः इच्छा कुछ नहीं होती−उसके आशीर्वाद में सचाई निकलती है। बुद्ध तथा कृष्ण आज भी अपने मार्ग तथा साधकों के लिए चिरनवीन हैं। स्वतः की कोई इच्छा नहीं थी।

बाहरी मन से व्याभिचारी होना उतना घातक नहीं है जितना आन्तरिक व्याभिचारी−मन। बाहरी व्यभिचार समाज के दण्ड से छूट जाते हैं परन्तु आन्तरिक को तो स्वयं मनुष्य ही नहीं जान पाता। ढोंग एक दिन मनुष्य को आत्म हत्या के लिए भी बाध्य कर देता है। इच्छाओं को रखते हुए महात्मापन दिखाने से अपना ही नहीं सारे देश का विनाश होता है। अतः आन्तरिक−मन से इच्छाओं को एक एक करके निकाल देना चाहिए। इच्छाओं को खोज निकालना अत्यन्त ही दुरूह है। इच्छाओं की समाप्ति−भोग−विचार−कल्पना आदि अनेक मार्गों से होती है। जो इच्छा जिस मार्ग से समाप्त होती हो, उसी को अपनाना चाहिये। इसी से सच्चा लाभ होता है।

गुरु और चिकित्सक में अन्तर है। गुरु समस्त रोगों के मूल को निकालता है चिकित्सक एक−दो को। चिकित्सक परावलम्बी बनाता है, परन्तु गुरु स्वावलम्बी। गुरु गुरु नहीं है जो शिष्य को ‘स्व’ का ज्ञान न करादे। भगवान बुद्ध इसीलिए “धर्म” का अर्थ “मार्ग” करते थे। यह “मार्ग” इच्छाओं से मनुष्य का त्राण करता है। जनका गुरु ‘अष्टावक्र’ सभा में उपहासित हुआ—और उसने सभासदों को चमार कहा। उन्होंने कहा कि ये लोग चमड़े का मूल्य करते हैं—ज्ञान तथा आत्मा का नहीं।

भगवान बुद्ध ने योग द्वारा इच्छाओं का ज्ञान प्राप्त किया और उसी के द्वारा उनको समाप्त किया। मनुष्य का परम पुरुषार्थ इच्छाओं को वश में करना है। जानी हुई इच्छाओं को वश करना सरल है—नहीं जानी हुई इच्छाओं को वश में करना ही परम पुरुषार्थ है। अहंकार ग्रस्त व्यक्ति शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता। भगवान बुद्ध ने अहंकार को त्याग कर ही परम−सत्य प्राप्त किया।

योग भव रोग की परम−चिकित्सा है। हम सभी को योगी बनने की आवश्यकता होती है। ओझा लोगों में भी सद्भावना तथा आत्म−संयम होता है—इसलिए उन्हें सर्वांशतः अथवा अल्पाँशतः सफलता मिलती है। सद्भावना तथा आत्म−संयम द्वारा विचारों में दृढ़ता आती है। ऐसे सद्भावी व्यक्ति के दर्शन मात्र से ही शान्ति तथा आत्म−ज्ञान प्राप्त होते हैं।


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