आत्म निरीक्षण योग

April 1947

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हानिकारक एवं विजातीय तत्व वहाँ एकत्रित होते हैं, जहाँ ढीलढाल या लापरवाही रहती है, चौकसी निगरानी देखभाल, जाँच पड़ताल का अभाव रहता है। दाद अक्सर जंघाओं में होता है, कारण यह है कि शरीर के अन्य स्थानों की अपेक्षा जाँघों की सफाई कम होती है। स्नान करते समय भी वहाँ पूरी सफाई नहीं की जाती, धूप हवा से भी वहाँ स्थान वंचित रहता है, फलस्वरूप गंदगी के कीटाणु मजे में छिपे बैठे रहते हैं और अवसर पाकर दाद के रूप में प्रकट होते हैं। पूरी गहरी साँस न लेने के कारण फेफड़ों का कुछ हिस्सा निकम्मा पड़ा रहता है वहाँ विजातीय द्रव्य आसानी से जमा हो जाता है और क्षय सरीख रोग उपज पड़ते हैं। घर के जिस भाग में नित्य झाड़ू नहीं लगती वहाँ मकड़ी, मच्छर, पिस्सू, कीड़े-मकोड़े पलते रहते हैं और दुर्गन्ध आने लगती है। जो लोग दाँतों की नित्य भली प्रकार सफाई नहीं करते उनके मुख से बदबू आने लगती है और दाँत पीले पड़ जाते हैं। कहते हैं कि सुनसान, उजाड़, जनशून्य खण्डहरों में भूत, पलीत, उल्लू चमगादड़ छिपे रहते हैं। चोर, डाकू, लुटेरे, जुआरी प्रकृति के लोग अपना डेरा ऐसे स्थानों में जमाते हैं, जो जन साधारण की दृष्टि से ओझल हों। हिंसक पशु दिन में अपनी माँद में छिपे रहते हैं जब रात हो जाती है तब चुपके-चुपके निकलते हैं और अपना काम बनाने के लिए चोट करते हैं।

यही स्थिति हमारे मन क्षेत्र में होती है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, भय, शोक, द्वेष, ईर्ष्या, आलस्य, प्रमाद, व्यसन अहंकार, आदि अनेकों प्रकार के शत्रु मन क्षेत्र में घुस बैठते हैं और चुपके-चुपके अपना बल बढ़ाते रहते हैं। क्षय, दमा आतिशक, सुजाक कोढ़, दाद आदि रोगों के छोटे कीटाणु आरम्भ में किसी प्रकार मनुष्य के शरीर में घुस जाते हैं, और धीरे-धीरे अपनी वंश वृद्धि करते रहते हैं कुछ समय में उनका अधिकार समस्त शरीर पर हो जाता है इसी प्रकार मन में घुसे हुए यह शत्रु निधड़क होकर अपना अड्डा जमा लेते हैं और मनुष्य की जीवन शक्तियों को चूस-चूस कर परिपुष्ट होते रहते हैं। धीरे धीरे उनकी प्रबलता इतनी अधिक हो जाती है कि प्राणी अपने को उनके बन्धन से छूटना कठिन अनुभव करता है।

मानसिक क्षेत्र में अवाँछनीय तत्वों का, शत्रुओं का इतना प्राबल्य हो जाने का कारण यह है कि इनको निधड़क बैठ जाने का अवसर मिलता है। हममें से अधिकाँश व्यक्ति ऐसे हैं जो अपने अंतर्जगत की चौकसी नहीं करते उसकी क्षति और सुरक्षा की परवा नहीं करते। इस प्रमाद का फायदा शत्रुओं को होता है। जिस गोदाम का कोई पहरेदार न हो उसमें चोरियों का होना निश्चित है। जिस खेत का कोई रखवाला न हो उसे पशु पक्षी उजाड़ेंगे यह निश्चित है। जब अंतर्जगत की चौकसी छोड़ दी जाती है तो भी यही परिणाम होता है। बाहरी काम काज में, साज संभाल में, निर्माण उपार्जन में, लोग बड़े परिश्रम और प्रयत्न के साथ जुटे रहते हैं पर अंतर्जगत की ओर वे बिलकुल उदासीन रहते हैं, इस सम्पदा की रक्षा और वृद्धि के लिए उनका तनिक भी ध्यान नहीं जाता उस ओर आँख उठा कर भी नहीं देखा जाता। आत्म चिन्तन के लिए, आत्म निरीक्षण और परीक्षण के लिए कोई विरले ही थोड़ा समय खर्च करते हैं। इस प्रकार की उपेक्षा के कारण, मैदान खाली देख कर हानिकारक कुप्रवृत्तियाँ और वासनाएं उठ खड़ी होती हैं और निरन्तर बढ़ती, फलती फूलती तथा परिपुष्ट होती रहती हैं। जिस खेत की जुताई, सिंचाई नराई से संस्कारित नहीं किया जाता उसमें खर पतवार और जंगली झाड़ झंखाड़ जड़ जमा लेते हैं। जिस मनोभूमि को संस्कारित नहीं किया जाता उसमें अच्छी फसल नहीं उपजती वहाँ तो कुविचार और कुसंस्कारों का ही उत्पादन होता है।

इन सब बातों पर विचार करते हुए आध्यात्म विद्या के आचार्यों ने बताया है कि नित्य आत्मचिन्तन, आत्मनिरीक्षण, आत्मपरीक्षण करना चाहिए। जिससे शत्रुओं की दाल न गलने पावे, मनः क्षेत्र में कुसंस्कार जड़ न जमाने पाएं। जिस घर में घर का मालिक एक बच्चा भी खाँस रहा हो उसमें घुसने की बलवान चोर की भी हिम्मत नहीं पड़ती। घर से घुसे हुए चोर मालिक के जागने की आहट पाकर भाग खड़े होते हैं। क्योंकि असत्य स्वतः कमजोर होता है, कहते हैं कि “चोर के पाँव नहीं होते।” जो सोता है सो खोता है, जो जागता है सो पाता है। अंतर्जगत की चौकसी और बढ़ोतरी के लिए हमें जागृत रहना चाहिए, प्रयत्न शील रहना चाहिए, ताकि उसमें से दुखदायी कुसंस्कारों की जड़ें उखड़ जाएं और सच्ची शाँति का अमर कल्पवृक्ष लहलहाने लगे। उसकी छाया में हमारा भीतरी और बाहरी जीवन अखण्ड सुख शाँति का रसास्वादन करे।

आत्म चिन्तन की साधना।

रात को सब कार्यों से निवृत्ति होकर जब सोने का समय हो तो सीधे चित्त लेट जाइए। पैर सीधे फैला दीजिए। हाथों को मोड़ कर पेट पर रख लीजिए। शिर सीधा रहे। पास में दीपक जल रहा हो तो बुझा दीजिए या मन्द कर दीजिए। नेत्रों को अधखुले रखिए।

अनुभव कीजिए कि आपका आज का एक दिन, एक जीवन था। अब जब कि एक दिन समाप्त हो रहा है तो एक जीवन की इतिश्री हो रही है। निद्रा एक मृत्यु है। अब इस घड़ी मैं एक दैनिक जीवन की समाप्ति करके मृत्यु की गोद में जा रहा हूँ।

आज के जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि से समालोचना कीजिए। प्रातःकाल से लेकर सोते समय तक के कार्यों पर दृष्टिपात कीजिए मुझ आत्मा के लिए वह कार्य उचित था या अनुचित? यदि उचित था तो जितनी सावधानी एवं शक्ति के साथ उसे करना चाहिए था? उसके अनुसार किया या नहीं? बहुमूल्य समय का कितना भाग उचित रीति से, कितना अनुचित रीति से, कितना निरर्थक रीति से व्यतीत किया? यह दैनिक जीवन सफल रहा या असफल? आत्मिक पूँजी में, लाभ हुआ या घाटा? सद्वृत्तियाँ प्रधान रहीं या असद्वृत्तियाँ इस प्रकार के प्रश्नों के साथ दिन भर के कामों का निरीक्षण कीजिए।

जितना अनुचित हुआ हो उसके लिए आत्म देव के सम्मुख पश्चाताप कीजिए। भविष्य में भूल को न दुहराने का निश्चय ही सच्चा पश्चाताप है। धन्यवाद दीजिए और प्रार्थना कीजिए कि आगामी जीवन में कल के जीवन में उस दिशा विशेष कि ओर विशेष रूप से अग्रसर करें। इसके पश्चात शुभ्रवर्ण आत्म ज्योति का ध्यान करते हुए निद्रा देवी की गोद में शाँति पूर्वक चले जाइए।

दूसरी साधना :- प्रातःकाल जब नींद पूरी तरह खुल जाय तो एक अंगड़ाई लीजिए। तीन पूरे लम्बे साँस खींच कर सचेत हो जाइए।

भावना कीजिए कि आज नया जीवन ग्रहण कर रहा हूँ। नया जन्म धारण करता हूँ। इस जन्म को इस प्रकार खर्च करूंगा कि आत्मिक पूँजी में अभिवृद्धि हो। कल के दिन पिछले जन्म में जो भूल हुई थी, आत्म देव के सामने जो पश्चाताप किया था, उसको ध्यान में रखता हुआ आज के दिन का अधिक उत्तमता के साथ उपयोग करूंगा।

दिन भर के कार्यक्रम की योजना बनाइए। इन कार्यों में जो खतरा सामने आने को है उसे विचारिए और उससे बचने के लिये सावधान हो जाइए। उन कार्यों में जो आत्मलाभ होने वाला है वह और अधिक हो इसके लिए तैयारी कीजिए। यह जन्म यह दिन, पिछले की अपेक्षा अधिक सफल हो, यह चुनौती अपने आपको दीजिए और उसे साहसपूर्वक स्वीकार कर लीजिए।

परमात्मा का ध्यान कीजिए। और प्रसन्न मुद्रा में चैतन्यता, ताजगी, उत्साह, साहस आशा एवं आत्मविश्वास की भावनाओं के साथ उठ कर शय्या का परित्याग कीजिए। शय्या से नीचे पैर रखना मानो आज के नव जीवन में प्रवेश करना है।


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