जीवन-साधना द्वारा मनुष्य का व्यक्तित्व महामानवों देवपुरुषों जैसा सक्षम एवं आकर्षक बनाया जाना संभव है ।
जीवन की सुव्यवस्था जहाँ उसे आकर्षक एवं गौरवपूर्ण बनाती है, वहीं अस्त-व्यस्तता उसे कुरूप और हानिकारक भी बना देती है । मशीन के पुर्जे ठीक प्रकार कसे हुए है, तो वह सुंदर भी दीखेगी तथा उपयोगी भी होगी । किंतु यदि उन्हें खोलकर छितरा दिया जाय तो उपयोगिता तो समाप्त हो ही जायेगी, चारों ओर
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दार्शनिक दृष्टि से देखें या वैज्ञानिक दृष्टि से, मानव जीवन को एक अमूल्य संपदा के रूप में ही स्वीकार किया जाता है । शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक क्षेत्र में ऐसी-ऐसी अद्भुत क्षमताएँ भरी हुई है कि सामान्य बुद्धि से उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । यदि उन्हें विकसित करने की विद्या अपनायी जा सके तथा सदुपयोग की दृष्टि पाई जा सके, तो जीवन में लौकिक एवं अलौकिक संपदाओ-विभूतियों के ढेर लग सकते हैं ।
मनुष्य को मानवोचित ही नहीं, देवोचित जीवन जी सकने योग्य साधन भी प्राप्त हैं । फिर भी उसे पशुतुल्य, दीन-हीन जीवन इसलिए जीना पड़ता है, कि वह जीवन को परिपूर्ण सुडौल बनाने के मूल तथ्यों पर न तो ध्यान ही देता है और न उनका अभ्यास करता है । जीवन को सही ढंग से जीने की कला जानना तथा कलात्मक ढंग से जीवन जीने को, जीवन-जीने की कला कहते है । इस प्रकार कलात्मक जीवन जीते हुए मनुष्य-जीवन के श्रेष्ठतम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अनेक सद्गुणों का विकास करना होता है, अपने अंदर अनेक दोषों का शोधन तथा अनेक सद्गुण, सत्प्रवृतियों एवं क्षमताओं का विकास करना होता है । उन्हें विकसित और सुनियोजित करने की विद्या ही "जीवन साधना '' कही जाती है