शिक्षा अर्थात सुसंस्कारिता का व्यावहारिक शिक्षण विकासवादी डार्विन के अनुसार मनुष्य बंदर की औलाद है ।। बंदर की यह विशेषता है कि अपने इर्द- गिर्द जो देखता है, उसी की नकल करने लगता है ।। तोता- मैना जो सुनते हैं, उसे रटकर सुना देते हैं ।। पर मनुष्य अपने आस- पास होने वाली गतिविधियों की नकल करता है ।। यही उसकी वास्तविक शिक्षा है ।। यों वह पुस्तकों, पत्रिकाओं में पढ़ता है, उससे भी कुछ न कुछ निष्कर्ष तो निकालता ही है ।। पर इससे पाठकों में पक्ष और विपक्ष को मंथन करके निष्कर्ष पर पहुँचने की स्वतंत्र चिंतन क्षमता कम ही होती है ।। देखना यह है कि इस कमी को पूरा किस प्रकार किया जाए? इसे अपने देश का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि शिक्षा और नौकरी पर्यायवाची बन गए हैं ।। जितने बच्चे पढ़कर निकलते हैं उनकी तुलना में रिक्त स्थान कहीं कम खाली होते हैं ।। सबको नौकरी मिलना कठिन है ।। ऐसी दशा में शिक्षितों में ऐसी प्रतिभा का उपार्जन आवश्यक है, जिसके कारण उनका व्यक्तित्व निखरा हुआ हो ।। अन्यत्र जहाँ कहीं भी स्थान मिले या पैतृक धंधे को अपनाए- उसे अपने कौशल के सहारे संतोषजनक स्थिति पर पहुँचा सकें ।। सरकारी ऋण लेकर नया धंधा खोलना और उसे सफलतापूर्वक चला सकना उतना सरल नहीं है, जितना कि समझा जाता है ।।