क्या विधवा विवाह शास्त्र विरुद्ध है ?

संसार भार के मनुष्यों की मान्यता है कि प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को, चाहे वह नर हो या नारी अपनी इच्छा अनुसार विवाहित या अविवाहित जीवन व्यतीत करने का पूर्ण अधिकार है। यह अधिकार मानवीय अधिकार है । इससे किसी को वंचित करना उसके नागरिक अधिकारों का हनन करना है । इस संबंध में किसी प्रकार का अनुचित प्रतिबन्ध लगाना न्याय की स्पष्ट हत्या है । रोगी, कोढी, पागल, नपुंसक, आदि शारीरिक मानसिक असमर्थताओं से ग्रसित व्यक्तियों को विवाह के अधिकार से वंचित करना न्यायोचित हो सकता है, आर्थिक दृष्टि से जो गृहस्थ का भार उठा सकने में असमर्थ है उन्हें भी विवाह करने से रोका जाय तो कुछ औचित्य समझ में आता है, पर जो व्यस्क व्यक्ति, नर या नारी अपने लिए विवाह की आवश्यकता अनुभव करते हैं और उसके लिए शारीरिक और मानसिक दृष्टि से समर्थ है उन पर इस सन्दर्भ में कोई प्रतिबन्ध रहना, मानव प्राणी को प्राप्त मूल अधिकारों के सर्वथा विपरीत है । इसलिए ऐसा प्रतिबन्ध संसार में कहीं है भी नहीं ।

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