श्रम ही सुख का सेतु

मानव-जीवन का सबसे बड़ा आधार श्रम ही है । हमारी सबसे प्रधान आवश्यकताओं- भोजन, वस्त्र, निवास स्थान की पूर्ति किसी न किसी के श्रम द्वारा ही होती है । अन्न के मिल जाने पर उसको खाने के लायक रोटी के रूप में परिवर्तित करने में भी श्रम करना पड़ता है और बिना श्रम के वह ठीक तौर से हजम होकर शरीर में रस-रक्त के रूप में बदल भी नहीं सकती । यह सब देखते हुए भी मनुष्य श्रम से बचने की चेष्टा करते रहते हैं । इसके लिए वे अपना कार्य- भार दूसरों पर लादने की कोशिश ही नहीं करते, वरन् तरह-तरह के आविष्कार करके, यंत्र बनाकर भी अपने हाथ-पैरों का कार्य उनसे पूरा कराने का प्रयत्न करते हैं । परिणाम यह होता है कि चाहे मनुष्य की दिमागी शक्तियां बढ़ रही ही, पर शारीरिक शक्तियां क्षीण होती जाती हैं और उसका जीवन कृत्रिम तथा परावलम्बी होता चला जाता है । चाहे नकली बातों को महत्व देने वाले और विचारशून्य इन बातों में भी गौरव और शान समझते हों पर जीवन-संघर्ष में इसके कारण विपत्तियां ही सहन करनी पड़ती हैं । इस सम्बन्ध में एक लेखक ने बहुत ठीक कहा है-''पता नहीं कहां से यह गलत ख्याल लोगों में आ गया है कि परिश्रम से बचने में कोई सुख नहीं है । परिश्रम करने से कुछ थकावट आती है पर श्रम न करने से तो शक्ति का स्रोत ही सूख जाता है । मेरी समझ से तो बेकार रहने से अधिक ' श्रमसाध्य ' और कोई काम नहीं है । कुछ काम न करना मानो जीते जी मर जाना है । ''

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